Friday, December 31, 2010

वर्ष का अंतिम दिन .........

रोज  ध्यान रखता हूँ
सहेज कर रखता हूँ कितना

फिर भी हर बार
छीन ले जाते हो तुम
किस तेजी से...

मेरे

चेहरे से रंगत
दोस्तों की संगत

आँखों  की लालिमा
बालों की कालिमा

दिन  की स्निग्धता
रातों की उनिग्धता

गर्दन का गुरूर
बातों का सुरूर

क़दमों की तीव्रता
धड़कन की आवृता

रिश्तों की पहचान
किराये का मकान

छुटपन के साथी
संस्कारों कि थाती

हर बार
ले ही तो लेते हो तुम
बिना समय गवाए
बिना  सूचित किये
न चेतावनी
न कोई राहत

बस आभास भर
और
गुजर जाते हो
दबे कदमों से

किस कदर
निष्ठुर
आताताई हो तुम

ओ नव वर्ष
फिर कैसे 
स्वागत  करू
भला तुम्हारा

Thursday, December 30, 2010

हाथ से छूटा पल


वर्ष

बीतते ही

ऐसे लगा

कुछ रीत

गया हो

जैसे

मांगे हुए

पलों मैं से

कोई पल

अकेला

बीत गया हो

जिंदगी

हार गयी

और वो

जीत गया हो

Monday, December 27, 2010

नव वर्ष की पूर्व संध्या पर

हैं  कौन किसी के. साथ खड़ा
हा समय का ये अन्याय बड़ा
ये मित्र तो शोभित दिन के हैं
जब साँझ हुई ,तब जान पड़ा

कल तक जो साथ मैं थे मेरे
निशदिन थे ,, चार प्रहर  घेरे
पर अब विरक्त, वो मुझसे हैं
क्या  अजब समय के हैं फेरे

कितनों परथा  विश्वास किया
ओरों  का विष भी स्वयं पिया
जब चोट लगी तब भान हुआ
व्यर्थ ही सब कुछ दिया लिया

ये साथ तेरा भी  का क्या देंगे
सब दोष ही  तुझ पर धर देंगे
सेकेंगे आग.. लगा के स्वयम
और साँस न तब तक ये लेंगे

हे मित्र  ये जग  की रीत  नयी
जब रात गयी  सब बीत गयी
सब चेहरे हैं..... हलकान यहाँ
और चेहरों पे...... चहरे हैं कई

ये देश हैं... मक्खन बाजों  का
इन्के अभिशिप्त  रिवाजों का
ओकात तेरी क्या कुछ कहदे
सिक्का हैं धान्धले  बाजों  का 

तुम कौन विषय के साधक हो
तुम कौन..... देव आराधक हो
क्यों इतर तुम्हारा, दृष्टि कोण
क्यों भाव सृजन मैं बाधक हो

पर शक्ति नहीं ,अब लड़ पाऊँ
एकल प्रयास मैं....भिड़  पाऊँ
कोई तो  साथ  नहीं ..पग भर
अब क्षमता नहींकी अड़ जाऊं

फिर क्यों मैं तुम्हारी आस करूं
फिर क्यों तुमपे, विश्वास धरूं
तुम कौन सखा बचपन के मेरे
क्या पड़ी तुम्हे किस ठौर मरूं

अब  साल  की अंतिम बेला हैं
नववर्ष का अद्भुत...... मेला हैं
हो जश्न रहा चहु और.. मगर
मन चातक  निपट अकेला हैं

तो आओ चलो इतना कर लो
जो रूठे  हैं उनको उर  भर लो 
क्या रोष करे जब दिन कम हैं
सब राग द्वेष ,,हिय से हर लो

Thursday, December 23, 2010

कशमकश -रिश्तों की

.........."नहीं दीपिका इस जिन्दगी से अब कुछ नहीं चाहिए मुझे" ........
सतीश ने झुझलाकर दीपिका को कहा ...."कुछ नहीं हो सकेगा मेरा न किसी मुकाम पे ले जा पाउँगा खुद को"
"नहीं सतीश.... तुम मेरे दोस्त हो न ...मेरी तरफ देखों.... मैं तुम्हे इस तरह टूटते नहीं देख सकती तुम मैं क़ाबलियत हैं ,कोशिश की जरूरत हैं यूं हार मत मानो अभी से"""भर्राए गले से कहा दीपिका ने
""'दीपिका'..मैं कभी कामयाब हो ही नहीं पाऊँगा ..क्या क्या सपने देखे थे मैंने बचपन से ही एक बड़ा सा स्टेज ...सामने लोगो का हजूम ओटोग्राफ लेने के लिए भागते लोग ...चकाचौध से भरपूर दुनिया.... लेकिन.. सब ख़त्म ,,सब ख़त्म मैं गा ही नहीं पा रहा हूँ दो दिन से"" .......सतीश के मुह से शब्द निकल नहीं रहे हो जैसे 
दीपिका की आखे नम हो आई .......
दीपिका और सतीश एक प्रोग्राम के सिलसिले मैं आगरा मैं मिले थे ताज महोत्सव मैं दीपिका अपने शहर देहरादून से अपने राज्य की नुमायन्दगी पर थी और सतीश ...बचपन से ही सिंगर बनने का ख्वाब दिल मैं लिए आया था महोत्सव की जादूगरी को देखने, वही सतीश ने दीपिका के गाने की तारीफ की और अपने मन की ख्वाहिश बयां की ,,दीपिका ने भी उसका हौसला बढ़ाते हुए उसकी मदद करने का वायदा किया था

और आज चार महीने बाद ये सहानुभूति दोस्ती मैं बदल चुकी थी ...एक अच्छी आवाज होते हुए भी सतीश मैं आत्मविश्वास की कमी थी वह जल्दी टूट जाता था और फिर परिवार की समस्याए भी तो मुह बाए खड़ी थी . दीपिका ने अपनी पहुच से कुछ अछे प्रोग्राम मैं सतीश को भी चांस दिलवा दिया था पर आगे तो उसे ही बढ़ना था

.."दीपिका आज कल तुम रहती कहाँ हो भाई.... तुम्हारे प्रोग्राम तो आजकल चल नहीं रहे हैं कहीं... फिर भी तुम इतनी व्यस्त हो की बच्चों की अभिवाहक मीटिंग मैं जाने का भी टाइम नहीं मिला" ...राजेश ने देर से घर पहुची दीपिका से कुछ तल्खी से पूछा था ......"'वो मैं अपनी एक रेकॉर्डिंग के सिलसिले मैं निर्देशक साहब के साथ थी"" '...झूठ बोल गयी थी दीपिका अपने पति से...........
कैसे कहती की वो सतीश को सांत्वना देने उसके साथ थी........
...........""देखो दीपिका तुम्हारा रचनात्मक जीवन तुम्हारे साथ हैं लेकिन मैं यह कभी नहीं चाहूँगा की तुम अपने शौक के लिए परिवार की जिम्मेदारियों को तिलांजलि दे दो.. और तुम्हारे ये प्रोग्राम रिहार्सल्स क्या रेस्टोरेंटों मैं होने लगे हैं आजकल.... कल अपने त्रिपाठी जी ने बताया की तुम मिडवे रेस्तरां मैं बैठी थी किसी के साथ .....
 बहुत घटिया सा मुह  बनाया था उसने  """यदि तुम इन्हे आपस मैं व्यवस्थित नहीं कर पा रही होतो घर मैं बेठों यूं भी बाहर लोगो से मिलना जुलना मुझे पसंद नहीं"" ....राजेश ने उसे समझाते हुए अपना फेसला सुना दिया था
एक नश्तर सा उतर गया दीपिका के सीने मैं .....इसी जद्दोजहद मैं दो बार फ़ोन काटा था उसने सतीश का ...
अजीब कशमकश थी दीपिका के जहन मैं...सतीश....राजेश.....परिवार.......और उसका करियर सब एक साथ घूम गया था ...आश्चर्य की सतीश का नाम पता नहीं क्यों बार बार आ रहा था इन सबके बीच ...जोर से सर झटक दिया था उसने और चल दी रसोई की तरफ .............
'कैसी हो दीपिका आज बहुत दिन बाद मिली हो अब तो फ़ोन भी नहीं उठाती तुम मेरा ....सुनो मुझे रत्नाकर साहब ने अपने ग्रुप मैं गाने का मौका दिया हैं ..बहुत अछे इन्सान हैं रत्नाकर साहब कई अच्छी फिल्म्स की हैं उन्होंने पता नहीं उन्हें मेरी आवाज कैसे पसंद आ गयी.""....सतीश ने चहक कर कहा
फीकी सी मुस्कराहट थी दीपिका के चहरे पे ....'तुम्हारा प्रयास हैं सतीश तुम्हारी मेहनत रंग ला रही हैं कहा था दीपिका ने '
न बता पाई की रत्नाकर जी को सतीश की सिफारिश के लिए क्या कीमत चुकाई थी उसने
........"".सुनो सतीश तुम्हारी मुराद अब पूरी होने लगी हैं अब तुम्हे मेरी जरूरत नहीं प्लीज मुझे फ़ोन मत करा करों"" ..सपाट कह गयी थी दीपिका
''''....नहीं दीपिका अब तो कहने के दिन आये हैं अगर आज मुझे कुछ हासिल हैं तो तुम्हारी ही कोशिश हैं नहीं तो मैं तो टूट ही चूका था तुम राह न दिखाती तो शायद मैं कभी गा ही न पाता तुम मेरी जरूरत हो दीपिका मेरी प्रेरणा तुम्हे कैसे न शामिल करता अपनी ख़ुशी मैं....'' सतीश उत्तेजित सा था कुछ
""बस सतीश मैं अपने परिवार से बहुत प्यार करती हूँ तुम्हारा साथ तुम्हारे जजबात कोई नहीं समझता वहां ...मैं तो आखरी बार कहने आई हूँ की शायद अब मैं मिल न पाऊँ""
झक्क पढ़ गया था  था सतीश का चेहरा कितने अरमान थे उसके दिल मैं ....सोचा था उसने की आज तो अपने दिल की बात कह ही देगा वह दीपिका से .....
....''ये क्या कह रही हो दीप मैं...मैं....तो ........नहीं दीपिका मैं मर जाऊंगा .........मैं तो.....तुम्हे........अपना बनाना चाहता हूँ...........
..........मैं शादीशुदा हूँ सतीश तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया......... बिदक गई थी दीपिका .....तुम....तुमने मेरी सहानुभूति को कुछ और समझा ........
""तो तुमने ...क्या जरूरत थी ..तुम्हे.....मेरी जिंदगी मैं आने की.....वो बाते.....हे ईश्वर."".....सतीश फट पड़ा था ............व्यर्थ के तर्क कुतर्क........बेमतलब वाद विवाद ........अंतहीन कहासुनी..........

दो माह हो गए राजेश अब दीपिका के साथ नहीं रहता हैं कहीं हल्द्वानी ट्रान्सफर करवा लिया हैं उसने अलग जो रहना था उसे रोज रोज त्रिपाठी जी की जासूसी बरगला रही थी उसे
और सतीश ...एक नई फिल्म कर रहा हैं वह ........
.दीपिका स्कूल से बच्चों को घर लाते हुए ...सोच रही हैं कैसे कैसे मरहले आते हैं जीवन मैं......राजेश हो या सतीश रिश्तों की गर्माहट कम हो गई हैं सर्द हवा के साथ
क्या गलत किया था उसने घर मैं बैठ के सोचती हैं जब. तो जवाब नहीं मिलता कुछ भी

साफ जाहिर हैं इश्क हैं तुमको

आजमाने की ये सजा क्या हैं
ये नावाज़िस  मेरे खुदा क्या हैं

सर पे इल्जाम भी तो ले लेते
एसे मरने से, फायदा क्या हैं

उसके चेहरे  पे, साफ गोई हैं
कौन जाने ये माजरा क्या हैं

साफ जाहिर हैं इश्क हैं तुमको
बज्म मैं फिर ये मुद्दआ क्या हैं

वक़्त ने भी,, तो बेवफाई की
तू भी कह दे तेरी रज़ा क्या  हैं

मैं भी अंदोह-ए-वफ़ा से, छूटूं
पहले ये  जान लूं  जफ़ा क्या हैं

कैसे कह दूं की, लौट आऊँगा
बद्गुमानों का  वायदा  क्या हैं

Tuesday, December 21, 2010

तिनका तिनका

तिनका तिनका बिखर न जाऊं  मैं
अहद-ए-वफ़ा को गर  निभाऊं मैं

जाने कैसा सितम हो क्या मंज़र
करके वादा अगर न जाऊं मैं

सर-ए-बाजार उसने क़त्ल किया
कैसे सबसे नजर मिलाऊं  मैं

वक्त-ए-रुख्सत न तुने याद किया
अब भला तुझको क्यों भुलाऊं मैं

इश्क हैं  या जुनूं हैं  क्या मालूम
इस तलातुम में जी न  पाऊं मैं

Monday, December 20, 2010

हरिद्वार को पार कर वो


हरिद्वार को पार कर वो
विश्व द्वार के पार गया
आश्चर्य श्वाश के साधक से
 हर रोग विश्व का हार गया 

घनघोर तपस्वी ऋषियों की
अनमोल धरोहर थी ये जिसे
निस्वार्थ भाव से योगी इक
आरोग्य सभी पर वार गया
हरिद्वार को पार कर वो
विश्व द्वार के पार गया
आश्चर्य श्वाश के साधक से
 हर रोग विश्व का हार गया

जब स्वास कंठ मैं खीच कर
हुंकार  ओम हो जाते हैं
जब साधक के विश्वास योग पर
चरम व्योम तक जाते हैं
जब ब्रह्म काल की बेला में
ये यज्य  योग का होता हैं
तब प्राण वायु की अग्नि में
सब रोग होम हो जाते हैं
मैं शक्तिवान  सामर्थ्यवान
उन्माद सभी को मार गया
हरिद्वार को पार कर
वो विश्व द्वार  के पार गया
आश्चर्य श्वाश के साधक से
 हर रोग विश्व का हार गया

बहुतेरों ने निर्बुद्धि से
कर विरोध के लहराए
बहुतेरों ने इस योगी पर
प्रस्तर विरोध  के बरसाए                               
पर चट्टान सरीखा दृढ प्रतिज्ञ
वह नांद ओम  सा खड़ा रहा
ब्रह्मास्त्र योग का लिए हुए
वो सहस्र बाहु सा अड़ा  रहा
भीष्म सरीखे कन्धों पर
वो  भार देश का सार गया
हरिद्वार को पार कर वो
विश्व द्वार के पार गया
आश्चर्य श्वाश के साधक से
 हर रोग विश्व का हार गया

पतंजलि योग पीठ


  योग पीठ के द्रश्य :


1। योग पीठ का मुख्यद्वार


2 योग पीठ का मुख्य भवन





२। अन्नपूर्ण भवन - शुद्ध भोजन शाला

३। ॐ का सुंदर द्रश्य

४। सुंदर बगीचों का आनंद लेते हुए मरीज

भारत स्वाभिमान – संक्षिप्त लक्ष्य, दर्शन एवं सिद्धान्त

भारत स्वाभिमान –  लक्ष्य, दर्शन एवं सिद्धान्त

  
100% मतदान, 100% राष्ट्रवादी चिन्तन,
100% विदेशी कम्पनियों का बहिष्कार व
स्वदेशी को आत्मसात करके, देशभक्त
लोगों को 100% संगठित करना तथा
100% योगमय भारत का निर्माण कर
स्वस्थ, समृद्ध , संस्कारवान भारत बनाना
– यही है “भारत स्वाभिमान” का अभियान ।
इसी से आएगी देश में
नई आजादी व नई व्यवस्था
और भारत बनेगा महान् और राष्ट्र की
सबसे बडी समस्या – भ्रष्टाचार का होगा पूर्ण समाधान ।
जगत की दौलत – पद, सत्ता, रूप एवं ऐश्वर्य के प्रलोभन से
योगी ही बच सकता है । अत: राष्ट्र – जागरण के, भारत स्वाभिमान
के अभियान में प्रत्येक योग – शिक्षक, कार्यकर्ता एवं सदस्य का 
योगी होना प्राथमिक एवं अनिवार्य शर्त है क्योंकि योग न करने
के कारण अर्थात योगी न होने से आत्मविमुखता पैदा होती है ।
और आत्मविमुखता का ही परिणाम है – बेईमानी, भ्रष्टाचार,
हिंसा, अपराध, असंवेदनशीलता, अकर्मण्यता, अविवेकशीलता,
अजितेन्द्रियता, असंयम एवं अपवित्रता ।
हमने योग जागरण के साथ राष्ट्र – जागरण का कार्य आरंभ करके
अथवा योग – धर्म को राष्ट्र – धर्म से जोड़ कर कोई
विरोधाभासी कार्य नहीं किया है अपितु योग को विराट रूप में
स्वीकार किया है । योग धर्म एवं राष्ट्र – धर्म को लेकर
हमारे मन में कोई संशय, उलझन, भ्रम या असामन्जस्य नहीं है ।
हमारी नीयत एवं नीतियाँ एकदम साफ है और हमारा इरादा
विभाजित भारत को एक एवं नेक करने का है । 
योग का अर्थ ही है – जोडना । योग का माध्यम बना,
हम पूरे राष्ट्र को संगठित करना चाहते है ।
हम देश के प्रत्येक व्यक्ति को प्रथमत: योगी बनाना चाहते है ।
जब देश का प्रत्येक व्यक्ति योगी होगा,
तो वह एक चरित्रवान युवा होगा, वह देशभक्त, शिक्षक
व चिकित्सक होगा, वह विचारशील चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट होगा,
वह संघर्षशील अधिवक्ता होगा, वह जागरूक किसान होगा,
वह संस्कारित सैनिक, सुरक्षाकर्मी एवं पुलिसकर्मी होगा,
वह कर्तव्य – परायण अधिकारी, कर्मचारी एवं श्रमिक होगा,
वह ऊर्जावान व्यापारी होगा, वह देशप्रेमी कलाकार होगा, 
वह राष्ट्रहित को समर्पित वैज्ञानिक होगा, वह स्वस्थ, 
कर्मठ एवं अनुभवी वरिष्ठ नागरिक होगा 
एवं वह संवेदनशील न्यायाधीश अधिवक्ता होगा
क्योंकि हमारी यह स्पष्ट मान्यता है कि
आत्मोन्नति के बिना राष्ट्रोन्नति नहीं हों सकती ।
योग करके एवं करवाकर हम एक इंसान को
एक नेक इंसान बनाएँगे । एक माँ को एक आदर्श माँ बनाएँगे ।
योग से आदर्श माँ व आदर्श पिता तैयार कर
राम व कृष्ण जैसी संताने फिर से पैदा हों,
ऐसी संस्कृति एवं संस्कारों की नींव डालेंगे।
योग से आत्मोन्मुखी हुआ व्यक्ति जब स्वयं में समाज,
राष्ट्र, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व जीव मात्र को देखेगा 
तो वह किसी को धोखा नहीं देगा,
वह किसी की निंदा नहीं करेगा क्योंकि वह अनुभव करेगा
कि दूसरो से झूठ बोलना, बेइमानी करना 
व धोखा देना मानो स्वयं से ही विश्वासघात करना है,
आत्म – विमुखता के कारण ही देश में भ्रष्टाचार,
बेइमानी, अनैतिकता, अराजकता व असंवेदनशीलता है ।
हम इस सम्पूर्ण योग – आन्दोलन से इस धरती पर
ॠषियों की संस्कृति को पुनः स्थापित कर सुख, समृद्धि, 
आनन्द एवं शांति का साम्राज्य लायेंगे ।



हरिद्वार



हरिद्वार
हरिद्वार की एक झलक
गंगाघाट हरिद्वार
प्रदेश
 - जिला
उत्तराखण्ड
 - हरिद्वार
निर्देशांक 29.96° N 78.16° E
क्षेत्रफल
 - समुद्र तल से ऊँचाई
2360 वर्ग किमी  वर्ग कि.मी.

 - 249.7 मीटर
समय मण्डल भा॰मा॰स॰ (स॰वि॰स॰ +५:३०)
जनसंख्या (2001)
 - घनत्व
1147.19 हजार
 - /वर्ग कि.मी.
महापौर
नगर पालिका अध्यक्ष
संकेतक
 - डाक
 - दूरभाष
 - वाहन

 - 249401
 - +91-01334
 - 

हरिद्वार, , उत्तराखण्ड, भारत में एक पवित्र नगर और नगर निगम बोर्ड है। हिन्दी में, हरिद्वार का अर्थ हरि "(ईश्वर)" का द्वार होता है। हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है।
३१३९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गौमुख (गंगोत्री हिमनद) से २५३ किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में गंगा के मैदानी क्षेत्रो में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को गंगाद्वार के नाम सा भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, हरिद्वार वह स्थान है जहाँ अमृत की कुछ बूँदें भूल से घडे से गिर गयीं जब खगोलीय पक्षी गरुड़ उस घडे को समुद्र मंथन के बाद ले जा रहे थे। चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरीं, और ये स्थान हैं:- उज्जैन, हरिद्वार, नासिक, और प्रयाग| आज ये वें स्थान हैं जहां कुम्भ मेला चारों स्थानों में से किसी भी एक स्थान पर प्रति ३ वर्षों में और १२वें वर्ष इलाहाबाद में महाकुम्भ आयोजित किया जाता है। पूरी दुनियाभर से करोडों तीर्थयात्री, भक्तजन, और पर्यटक यहां इस समारोह को मनाने के लिए एकत्रित होते हैं और गंगा नदी के तट पर शास्त्र विधि से स्नान इत्यादि करते हैं।
वह स्थान जहाँ पर अमृत की बूंदें गिरी थी उसे हर-की-पौडी पर ब्रह्म कुंड माना जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है 'ईश्वर के पवित्र पग'। हर-की-पौडी, हरिद्वार के सबसे पवित्र घाट माना जाता है और पूरे भारत से भक्तों और तीर्थयात्रियों के जत्थे त्योहारों या पवित्र दिवसों के अवसर पर स्नान करने के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ स्नान करना मोक्ष प्राप्त करने के लिए आवश्यक माना जाता है।
हरिद्वार जिला, सहारनपुर डिवीजनल कमिशनरी के भाग के रूप में २८ दिसंबर १९८८ को अस्तित्व में आया। २४ सितंबर १९९८ के दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा ने 'उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, १९९८' पारित किया, अंततः भारतीय संसद ने भी 'भारतीय संघीय विधान - उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २०००' पारित किया, और इस प्रकार ९ नवंबर, २०००, के दिन हरिद्वार भारतीय गणराज्य के २७वें नवगठित राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल), का भाग बन गया।
आज, यह अपने धार्मिक महत्व से परे, राज्य के एक प्रमुख औद्योगिक गंतव्य के रूप में, तेज़ी से विकसित हो रहा है, जैसे तेज़ी से विक्सित होता औद्योगिक एस्टेट, राज्य ढांचागत और औद्योगिक विकास निगम, SIDCUL (सिडकुल), भेल (भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड) और इसके सम्बंधित सहायक।

हरिद्वार: इतिहास और वर्तमान

प्रकृति प्रेमियों के लिए हरिद्वार स्वर्ग जैसा सुन्दर है। हरिद्वार भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक बहुरूपदर्शक प्रस्तुत करता है। इसका उल्लेख पौराणिक कथाओं में कपिलस्थान, गंगाद्वार और मायापुरी के नाम से भी किया गया है। यह चार धाम यात्रा के लिए प्रवेश द्वार भी है (उत्तराखंड के चार धाम है:- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री), इसलिए भगवान शिव के अनुयायी और भगवान विष्णु के अनुयायी इसे क्रमशः हरद्वार और हरिद्वार के नाम से पुकारते है। हर यानी शिव और हरि यानी विष्णु।
महाभारत के वनपर्व में धौम्य ऋषि, युधिष्टर को भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों के बारे में बताते है जहाँ पर गंगाद्वार अर्थात् हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का भी उल्लेख किया गया है।
कपिल ऋषि का आश्रम भी यहाँ स्थित था, जिससे इसे इसका प्राचीन नाम कपिल या कपिल्स्थान मिला। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगीरथ, जो सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र (श्रीराम के एक पूर्वज) थे, गंगाजी को सतयुग में वर्षों की तपस्या के पश्चात् अपने ६०,००० पूर्वजों के उद्धार और कपिल ऋषि के श्राप से मुक्त करने के लिए के लिए पृथ्वी पर लाये। ये एक ऐसी परंपरा है जिसे करोडों हिन्दू आज भी निभाते है, जो अपने पूर्वजों के उद्धार की आशा में उनकी चिता की राख लाते हैं और गंगाजी में विसर्जित कर देते हैं। कहा जाता है की भगवान विष्णु ने एक पत्थर पर अपने पग-चिन्ह छोड़े है जो हर की पौडी में एक उपरी दीवार पर स्थापित है, जहां हर समय पवित्र गंगाजी इन्हें छूती रहतीं हैं।

प्रशासनिक पृष्ठभूमि

हरिद्वार जिले के पश्चिम में सहारनपुर, उत्तर और पूर्व में देहरादून, पूर्व में पौढ़ी गढ़वाल, और दक्षिण में रुड़की, मुज़फ़्फ़र नगर और बिजनौर हैं। नवनिर्मित राज्य उत्तराखंड ने सम्मिलित किए जाने से पहले यह सहारनपुर डिविज़नल कमिशनरी का एक भाग था।
पूरे जिले को मिलाकर एक संसदीय क्षेत्र बनता है, और यहाँ उत्तराखंड विधानसभा की ९ सीटे हैं जो हैं - भगवानपुर, रुड़की, इकबालपुर, मंगलौर, लांधौर, लस्कर, भद्रबाद, हरिद्वार, और लालडांग
जिला प्रशासनिक रूप से तीन तहसीलों हरिद्वार, रुड़की, और लस्कर और छः विकास खण्डों भगवानपुर, रुड़की, नर्सान, भद्रबाद, लस्कर, और खानपुर में बँटा हुआ है। 'हरीश रावत' हरिद्वार लोकसभा सीट से वर्तमान सांसद, और 'मदन कौशिक' हरिद्वार नगर से उत्तराखंड विधानसभा सदस्य हैं।

भूगोल

हरिद्वार उन पहले शहरों में से एक है जहाँ गंगा पहाडों से निकलकर मैदानों में प्रवेश करती है. गंगा का पानी, अधिकतर वर्षा ऋतु जब कि उपरी क्षेत्रों से मिटटी इसमें घुलकर नीचे आ जाती है के अतिरिक्त एकदम स्वच्छ व ठंडा होता है. गंगा नदी विच्छिन्न प्रवाहों जिन्हें जज़ीरा भी कहते हैं की श्रृंखला में बहती है जिनमें अधिकतर जंगलों से घिरे हैं. अन्य छोटे प्रवाह हैं: रानीपुर राव, पथरी राव, रावी राव, हर्नोई राव, बेगम नदी आदि. जिले का अधिकांश भाग जंगलों से घिरा है व राजाजी राष्ट्रीय प्राणी उद्यान जिले की सीमा में ही आता है जो इसे वन्यजीवन व साहसिक कार्यों के प्रेमियों का आदर्श स्थान बनाता है. राजाजी इन गेटों से पहुंचा जा सकता है: रामगढ़ गेट व मोहंद गेट जो देहरादून से २५ किमी पर स्थित है जबकि मोतीचूर, रानीपुर और चिल्ला गेट हरिद्वार से केवल ९ किमी की दूरी पर हैं. कुनाओ गेट ऋषिकेश से ६ किमी पर है. लालधंग गेट कोट्द्वारा से २५ किमी पर है. २३६० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से घिरा हरिद्वार जिला भारत के उत्तराखंड राज्य के दक्षिण पश्चिमी भाग में स्थित है. इसके अक्षांश व देशांतर क्रमशः २९.९६ डिग्री उत्तर व ७८.१६ डिग्री पूर्व हैं. हरिद्वार समुन्द्र तल से २४९.७ मी की ऊंचाई पर उत्तर व उत्तर- पूर्व में शिवालिक पहाडियों तथा दक्षिण में गंगा नदी के बीच स्थित है.

हरिद्वार में हिन्दू वंशावलियों की पंजिका

वह जो अधिकतर भारतीयों व वे जो विदेश में बस गए को आज भी पता नहीं, प्राचीन रिवाजों के अनुसार हिन्दू परिवारों की पिछली कई पीढियों की विस्तृत वंशावलियां हिन्दू ब्राह्मण पंडितों जिन्हें पंडा भी कहा जाता है द्वारा हिन्दुओं के पवित्र नगर हरिद्वार में हस्त लिखित पंजिओं में जो उनके पूर्वज पंडितों ने आगे सौंपीं जो एक के पूर्वजों के असली जिलों व गांवों के आधार पर वर्गीकृत की गयीं सहेज कर रखी गयीं हैं. प्रत्येक जिले की पंजिका का विशिष्ट पंडित होता है. यहाँ तक कि भारत के विभाजन के उपरांत जो जिले व गाँव पाकिस्तान में रह गए व हिन्दू भारत आ गए उनकी भी वंशावलियां यहाँ हैं. कई स्थितियों में उन हिन्दुओं के वंशज अब सिख हैं, तो कई के मुस्लिम अपितु ईसाई भी हैं. किसी के लिए किसी की अपितु सात वंशों की जानकारी पंडों के पास रखी इन वंशावली पंजिकाओं से लेना असामान्य नहीं है.
शताब्दियों पूर्व जब हिन्दू पूर्वजों ने हरिद्वार की पावन नगरी की यात्रा की जोकि अधिकतर तीर्थयात्रा के लिए या/ व शव- दाह या स्वजनों के अस्थि व राख का गंगा जल में विसर्जन जोकि शव- दाह के बाद हिन्दू धार्मिक रीति- रिवाजों के अनुसार आवश्यक है के लिए की होगी. अपने परिवार की वंशावली के धारक पंडित के पास जाकर पंजियों में उपस्थित वंश- वृक्ष को संयुक्त परिवारों में हुए सभी विवाहों, जन्मों व मृत्युओं के विवरण सहित नवीनीकृत कराने की एक प्राचीन रीति है.
वर्तमान में हरिद्वार जाने वाले भारतीय हक्के- बक्के रह जाते हैं जब वहां के पंडित उनसे उनके नितांत अपने वंश- वृक्ष को नवीनीकृत कराने को कहते हैं. यह खबर उनके नियत पंडित तक जंगल की आग की तरह फैलती है. आजकल जब संयुक्त हिदू परिवार का चलन ख़त्म हो गया है व लोग नाभिकीय परिवारों को तरजीह दे रहे हैं, पंडित चाहते हैं कि आगंतुक अपने फैले परिवारों के लोगों व अपने पुराने जिलों- गाँवों, दादा- दादी के नाम व परदादा- परदादी और विवाहों, जन्मों और मृत्युओं जो कि विस्तृत परिवारों में हुई हों अपितु उन परिवारों जिनसे विवाह संपन्न हुए आदि की पूरी जानकारी के साथ वहां आयें. आगंतुक परिवार के सदस्य को सभी जानकारी नवीनीकृत करने के उपरांत वंशावली पंजी को भविष्य के पारिवारिक सदस्यों के लिए व प्रविष्टियों को प्रमाणित करने के लिए हस्ताक्षरित करना होता है. साथ आये मित्रों व अन्य पारिवारिक सदस्यों से भी साक्षी के तौर पर हस्ताक्षर करने की विनती की जा सकती है.
.

तीर्थ स्थान

हिन्दू परम्पराओं के अनुसार, हरिद्वार में पांच तीर्थ गंगाद्वार (हर की पौडी), कुश्वर्त (घाट), कनखल, बिलवा तीर्थ (मनसा देवी), नील पर्वत (चंडी देवी) हैं.
हर की पौडी:
यह पवित्र घाट राजा विक्रमादित्य ने पहली शताब्दी ईसा पूर्व में अपने भाई भ्रिथारी की याद में बनवाया था. मान्यता है कि भ्रिथारी हरिद्वार आया था और उसने पावन गंगा के तटों पर तपस्या की थी. जब वह मरे, उनके भाई ने उनके नाम पर यह घाट बनवाया, जो बाद में हरी- की- पौड़ी कहलाया जाने लगा. हर की पौड़ी का सबसे पवित्र घाट ब्रह्मकुंड है. संध्या समय गंगा देवी की हरी की पौड़ी पर की जाने वाली आरती किसी भी आगंतुक के लिए महत्वपूर्ण अनुभव है. स्वरों व रंगों का एक कौतुक समारोह के बाद देखने को मिलता है जब तीर्थयात्री जलते दीयों को नदी पर अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिए बहाते हैं. विश्व भर से हजारों लोग अपनी हरिद्वार यात्रा के समय इस प्रार्थना में उपस्थित होने का ध्यान रखते हैं. वर्तमान के अधिकांश घाट १८०० के समय विकसित किये गए थे.
चंडी देवी मन्दिर - ६ किमी
यह मन्दिर चंडी देवी जो कि गंगा नदी के पूर्वी किनारे पर "नील पर्वत" के शिखर पर विराजमान हैं, को समर्पित है. यह कश्मीर के राजा सुचत सिंह द्वारा १९२९ ई में बनवाया गया. स्कन्द पुराण की एक कथा के अनुसार, चंड- मुंड जोकि स्थानीय राक्षस राजाओं शुम्भ- निशुम्भ के सेनानायक थे को देवी चंडी ने यहीं मारा था जिसके बाद इस स्थान का नाम चंडी देवी पड़ गया. मान्यता है कि मुख्य प्रतिमा की स्थापना आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने की थी. मन्दिर चंडीघाट से ३ किमी दूरी पर स्थित है व एक रोपवे द्वारा भी पहुंचा जा सकता है. फोन: ०१३३४- २२०३२४, समय- प्रातः ८.३० से साँय ६.०० बजे तक.
मनसा देवी मन्दिर - ०.५ किमी
बिलवा पर्वत के शिखर पर स्थित, मनसा देवी का मन्दिर, शाब्दिक अर्थों में वह देवी जो मन की इच्छा (मनसा) पूर्ण करतीं हैं, एक पर्यटकों का लोकप्रिय स्थान, विशेषकर केबल कारों के लिए, जिनसे नगर का मनोहर दृश्य दिखता है. मुख्य मन्दिर में दो प्रतिमाएं हैं, पहली तीन मुखों व पांच भुजाओं के साथ जबकि दूसरी आठ भुजाओं के साथ. फोन: ०१३३४- २२७७४५.
माया देवी मन्दिर - ०.५ किमी
११वीं शताब्दी का माया देवी, हरिद्वार की अधिष्ठात्री ईश्वर का यह प्राचीन मन्दिर एक सिद्धपीठ माना जाता है व इसे देवी सटी की नाभि व ह्रदय के गिरने का स्थान कहा जाता है. यह उन कुछ प्राचीन मंदिरों में से एक है जो अब भी नारायणी शिला व भैरव मन्दिर के साथ खड़े हैं.

Sunday, December 19, 2010

आभावों मैं जीने वालों

आभावों मैं जीने वालों क्यों इतना पछताते हों 
क्यों ओरों की चकाचौध मैं अपनी रात छुपाते हो 
आभावों मैं कौन नही हैं कौन यहाँ परिपूर्ण कहों 
मानव हो ओर मानवता का ह्रास हुआ बतलाते हों 

स्मृतियाँ .

तूफ़ानो झंझावतो से कहो कौन... यहाँ  बच पाया हैं 
पर जीवन के चौराहो पर हर तरफ इन्ही का साया हैं
स्मृतियों को मिटा सके हमे इतना भी अधिकार नही
मुस्कान जिन्होने दी हैं हमे ये दर्द उन्ही का ज़ाया हैं 

मृत्यू चक्र

शाम सबेरे के बंधन से कहो कौन बच पाता हैं 
शाम सबेरे के रिश्तो मैं प्रकृति मनुज का नाता हैं 
मैं कल था मैं आज नही वो कल था वो आज नही 
नव जीवन का नवंकुर भी मृत्यू चक्र से आता हैं 

आशा ओर निराशा

आशा ओर निराशा ये दो शब्द नही दो चेहरे हैं 
पर दोनो के अर्थ बहुत ही कठिन बहुत ही गहरे हैं 
जिसने जीवन मैं जो पाया उसी का रुख़ वो करता हैं 
जिसको राह मिली ना अभी तक कहा कही पर ठहरे हैं 

Friday, December 17, 2010

उर्मिला का विछोह ...



""यदि भ्राता राम माँ सीता संग वन जाएगे तो मैं भी जाऊँगा"
कह तो दिया था श्री लक्ष्मण ने पर कुछ तो कहना बांकी था प्राणप्रिया उर्मिला को भी एक सीधा साधा सा वाक्य की "तुम धरो धीर मैं वन जाता हूँ" तब उस क्षण क्या जवाब दिया होगा उर्मिला ने!!!!! क्या कहा होगा विरह ओर कर्तव्य के पशोपेश मैं !!!!! वही मेरी रचना का काल्पनिक पक्ष हैं शायद वर्तमान परिपेक्ष मैं भी जब एक युवक अपने घर से मात्र्भुमि की रक्षा हेतु अथवा परिवारिक दायित्वओ की पूर्ति हेतू अनिश्चित पथ पर निकलता होगा तो यही जवाब मिलता होगा उसे भी जो उर्मिला ने वन जाते समय अपने आराध्य श्री लक्ष्मण को दिया होगा 

हे आर्य पुत्र,,, दशरथ नंदन !
हे राम अनुज, सौ सौ वंदन !!
तुम आज विदा को, आए हो !
हूं दीन करूँ मैं, क्या अर्पण !!

जिस क्षण तुमने संकल्प लिया !
तुम प्रिय भ्राता संग जाओगे !!
मैं गर्व से आह्लादित तब से !
इतिहास नया, रच...आओगे !!

पर क्यों उनिग्ध हो तुम इतने !
मुख पर विषाद की,.. रेखाए ?!
क्यों धनुः शिथिल हैं काँधे पर !
क्यों सूर्य भाल पर,..चिंताए ? !!

सौमित्र, ...तुम्हारे नयनों में !
हैं प्रश्न नेह का,..... तैर रहा !!
क्यों कंपित हैं ये स्पर्श आज !
अवसाद से तुमको, बैर रहा !!

हैं आज सखे,.... ..चिंता मेरी !
कर्तव्यविमूढ़, से..दिखते हो !!
मुझ किंचित सी छाया के लिए !
तुम व्यर्थ ही चिंता करते हो !!

हैं ज्ञात मुझे तुम ना भी कहों !
प्राणो मैं तुम्हारे,.... बसती हूँ !!
पलछिन को भी मैं, दूर कहीं !!
ना बिना तुम्हारे रह सकती हूँ !!

जब ऋतु बसंत पर यौवन हैं !
ओर नेह जलद, घिर आए हों !!
ले मौन निवेदन,.. अधरों पर !
जाने को तुम,, अब आये हों !?

ये भ्रमर,, जो गुंजन करते हैं !
क्यों काम सुधा रस, बरसाते !!
अतृप्त कमलदल बगिया में !
उनके खिलने तक रुक जाते ?!

पर आज प्रणय का प्रश्न नही !
ये प्रश्न तो रघुकुल आन का हैं !!
केवल पल छिन की बात कहाँ !
जीवन पर्यंत स्वाभिमान का हैं !!

ये हो न सकेगा,, वीर.. कभी !
मैं चक्षु स्वयं से, गिर.. जाऊं !!
मैं आर्या वर्त की,.... नारी हूँ !
कर्तव्य के पथ से, डिग जाऊं !!

यदि आज जो मैने रोक लिया !
इतिहास भी, दोषी.. कह देगा !!
मैं पीर पराई थी,.... कह कर !
आक्षेप जनक पर,.. धर देगा !!

ठहरो दो पल यदि देर ना हो !
जाओगे श्रेष्ठ, तिलक कर दूँ !!
तूरीण बाँध दूँ...... कांधे पर !
अंतिम स्पर्श संचित कर लूँ !!

पर रहे भान प्रियवर ....मेरे !
मैं बाट, कभी ना.. निहारूँगी !!
यदि रामधर्म संग, सिया रहे !
लक्ष्मण सा, व्रत मैं..धारूँगी !!

मुजरिम तेरा....


दिल को मेरे यूं छू के कोई गैर हो गया
फूलों के तसव्वुर मैं जैसे जहर भर गया

नाहक ही परेशा रही धड़कन मेरी दिनरात
नज़रोंसे कोई सख्श जो दिल मैं उतर गया

जज्बातों को ज़िद थी मेरे तू गैर नही हैं
हर लम्हा मगर मेरा अश्कों से तर गया

तुमको तो चलो दिलसे मेरी दुश्मनी नथी
वर्ना ये यूँही कत्ल हुआ जिस तरफ गया

अच्छा हैं पास रहके भी तुम दूर ही रहे
मैं भी कहीं अब दूर ही जाउँगा गर गया

सोचना जो मेरी याद बहुत आए किसी दिन
मुजरिम तेरा शहर मैं शायद वो मर गया

रामदेव स्वामी कहें..........


दोस्तों योग ऋषि स्वामी रामदेव जी महाराज का का अनुयायी होने के नाते कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ बेहद हल्के फुल्के अंदाज मैं, अन्यथा ना ले, मकसद केवल योग ओर आयुर्वेद के प्रति जन जागरण हैं
रोग रोग सब हीं कहें,योग ना बान्चे कोय
जो जन बान्चे योग को,तो रोग कहा से होय!

रामदेव स्वामी कहें,सब कलीयुग का झोल
नियम आसान जाप हवन कर दीने सब गोल!

ईश्वर या संसार मैं , प्राणी ये कुल चार
दो तो स्वर्ग सिधार गये,दो एडमिट बीमार!

कोल्डड्रिंक का आचमन,जंक फ़ूड का भोग
सर्वनाश का मूल यह, समझे ना ये लोग!

शल्य चिकित्सा कर गये,डाक्टर दीनानाथ
दो थे परअब एक हैं किडनी,आँख ओ हाथ!

दारू पी पी जुग भया,मॅन का मिला न चैन
डेढ़ पसलियां पीठ से ,चिपकी रही दिन रैन!

हास्पिटल मैं भी गया,करवाने उपचार
दो रोग पहले से थे, हो गये हैं अब चार

आसान प्राणायाम से, स्वस्थ रहे शरीर
ना डा. की फीस कोई,ना इंजेक्शन पीर!

पद्मासन मैं बेठ कर, दोनो हाथ पसार
प्राण वायु को साध ले, यही योग का सार!

कौन हो तुम ओर क्या हो तुम


दोस्तो एक समय था जब प्रणय गीत का चलन था जो पत्र के माध्यम से संचारित होता था एसा ही एक प्रणय गीत कुछ वर्ष पहले किसी को लिखा था जो सौभाग्य से आज मेरी अर्धान्ग्नी भी हैं आज सभा मैं रख रहा हूँ

सुबह यूँही क्यों बीत जाती हैं
शाम यूँही क्यों जाती
रात हुई जब सोना चाहू
नीद नही हैं आती
एक यही शन्शय रहता हैं
कौन हो तुम ओर क्या हो तुम

बहुत दीनो से हृदय पुष्प मैं
तुम परिमल सी संचित हो
बहुत दीनो से सलिल स्वप्न मैं
तुम वीणा सी झंकृत हो
नयनो मैं दो विश्व सजाए
तुम कुसुमित सी लगती हो
होठो पर दो कमल खिलाए
ललित रति सी लगती हो

प्रिय तुम्हारे रूप सिंधु की
थाह बहुत हैं गहरी
सकल सुधामय रूप तुम्हारा
सूर्य चंद्र हैं प्रहरी
एक अनंत सिंधु हो जैसे
तुम बिन विभावरी यूं कटती हैं
कालकूट से लिप्त हो जैसे
सर्पमयी सी लगती हैं

तुम अनूप्मित अद्वितीय तुम
हर युग मैं मृग तृष्णा
तुम अवर्णनीय अनीयवर्च्निय
ज्यों ओस कणो की प्रतिमा
चित्र तुम्हारा मेरे हृदय पर
ऐसे है रेखांकित
इंद्रधनुष के रंग हो जैसे
व्योम देह पर अंकित

ज्योतिपुंज तुम ज्योतिशिखा तुम
ज्योतिर्मय नख शिख हो
स्वप्न सुंदरी स्वप्न जनित तुम
स्वप्न रूप स्वप्निल हो
मुख शुक्ल पक्ष का चंद्र हो जैसे
नयन भोर का तारा
शयाह रंग कुन्तल ललाट पर
विश्व भ्रमित हैं सारा
हे प्रिय मेरी रचनाओ का
सार तुम्ही हो केवल
तुम बिन ये स्वर अर्थ हीन हैं
अर्थहीन हैं जीवन

तुम्हे मैं अपना बना चुका हूं
किंतु नही हूं जाना
तुम्हे कविता बना चुका हूं
किंतु नही हूं जाना
की कौन हो तुम ओर क्या हो तुम

हाँ ये मुश्किल तो ना था....


दोस्तो कुछ नई पंक्तियाँ रखता हूँ आपके समक्ष आपके समर्थन मैं आप ही की रचनाओ का असर ले कर

अब किसी से भी कोई वफ़ा करता नही
ए खुदा दुनिया मैं तेरी तन्हा कोई रहता नही

जिसको देखो सब शरीक-ए-जुर्म हैं इस दौर मैं
लाख ढूँढो आदमी खुद से जुदा मिलता नही

सोचता हूं ख़ुदकुशी की कोन सी सूरत करूँ
सर पटकने को वो संग-ए-आस्तां मिलता नही

खुद ही अपने आपको खतभी लिखे तो कब तलक
दिलको बहलानेका ये तरीका यूँभी कुछ जचता नही

दोस्ती इंसानियत की बात मैं कब तक करूँ
भूख की शिद्दत मैं जब ईमान तक बचता नही

सर बदलने की यहाँ मैने बहुत कोशिश करी
तुम भी इज़्ज़तदार थे तुमसे भी तो कटता नही

चाहता था छोड़ देना मैं मोहब्बत का चलन
हाँ ये मुश्किल तो ना था पर इतना भी आँसा नही

(संग-ए-आस्तां-महबूब की चौखट का पत्थर)

एक चुटकी गुलाल,अच्छा हैं .......


साहिबान एक नई रचना के साथ रूबरू हुआ हूँ "एक चुटकी गुलाल अच्छा हैं..."

हिज्र हो या विसाल अच्छा हैं
आशिकी को ये साल, अच्छा हैं

तुम्हारे कुर्ते पे खूब ज़चता हैं
ये फ़िरोज़ी रुमाल, अच्छा हैं

सरहदों के हालात मत पूछो
इससे घर का बबाल,अच्छा हैं

गीले रंगों से वो लरज़ते हैं
एक चुटकी गुलाल,अच्छा हैं

बाद बारिश के धूप बिखरी हैं
उसपे तेरा जमाल, अच्छा हैं

करके नेकी क्यों घर मैं रक्खी हैं
इसको दरिया मैं डाल,अच्छा हैं

माँ ने फिर खीर बनाई होगी
मुह मैं आया हैं बाल,अच्छा हैं

इश्क़ की इंतेहा हैं या हैं फरेब ..........


जिंदगी मैं कुछ पल एसे भी आते हैं जब परिस्थितियों पर हमारा अख्तियार नही रहता उस कशमकश को लोगो ने अलग अलग नाम दिया हैं कुछ अश्आर इन्ही लम्हात के नाम..............
सब्र का इम्तिहान लेते हो
यूंही कहदो की जान लेते हो!

दुश्मनो को तो आजमाना था
दोस्तों का ईमान लेते हों!

इश्क़ की इंतेहा हैं या हैं फरेब
मैं जो कहता हूँ मान लेते हो!

तुम पे इल्ज़ाम भी तो कैसे हो
तुम कहाँ मेरा नाम लेते हो!

मैं तो बदनाम था ही मुद्दत से
तुम भी दिल से ही काम लेते हों!

हौसला हैं तो जान देने का
क्यों यूं तिनके को थाम लेते हों!

हाशिये...........


कुछ हाशिये उग आये हैं ....मेरे उनके दरमीयां
यारो ने  जाने कितनी दूर ,बसा ली हैं बस्तियां


थक चुके हैं पैर ओ मंजिल के निशा कुछ भी नहीं
कर नहीं पाऊँगा सर.... लगता हैं   अब ये दूरियां


मुद्दते गुजरी हैं उनकी अब तो ..शक्ल भी देखे हुवे
जब भी गुजरा उस गली ,बंद थी उनकी खिड़कियाँ


यूं तो दिल की बात खुल कर लब पे वो लाते नहीं
फिर भी पीछे से मेरे ....कसते तो हैं वो फब्तियां


कौन जाने कोन सी ......दुनिया मैं होंगे लोग वो
लौट कर आती नहीं साहिल पे जिनकी कश्तियाँ


कल ही अखबारों मैं पड़ के हमको मालूम हो सका
गुमशुदा मुद्दत से हैं...... चेहरे से उनकी शोखियाँ


उनके दिल की आग जाने क्या कहर ढायेगी अब
वो जो तिनको से.... बना बेठे हैं अपना आशियाँ

कहकहो मैं रहने वाले..... क्या सुनेगे ए हरीश
तेरे शेरो की फिजा मैं... जब्त हैं जो सिसकियाँ

गुज़ारिश.. ......


एक ग़ज़ल कहने की कोशिश हैं... बेहर / मीटर की बंदिशो से इतर रखने की गुज़ारिश के साथ

सख़्त अंधेरा हैं ओर रात बहुत बांकी हैं
अपनी आँखो के चिरागो को जलाए रखना

कही एसा ना हो की ख्वाब पिघल जाए कहीं
अपने हाथो मेरी नींदों को सुलाए रखना

ये फलक पर जो सितारे हैं कही देख ना ले
मेरी आँखो मैं तुम खुद को छुपाए रखना

मैं बियाबा हूँ मेरे हमराह गुजर कोई नही
इस तरफ आना कभी मुझको बसाए रखना

बहुत आसां हैं मेरे दोस्त तेरी याद आना
सख़्त मुश्किल हैं मगर तुझको भुलाए रखना

उसकी संजीदा जफाओ का भरम रख ले हरीश
तेरी फ़ितरत ही नही उसको रुलाए रखना

Tuesday, December 14, 2010

चक्रव्यूह ....


कौन तोड़ेगा यह चक्रव्यूह
युधिष्ठिर ने पूछा था
जब महारथियों से
सबके सर
नीचे मिले थे उन्हे
तो क्या
वे पराजय स्वीकार कर लेते
तभी घटित हुआ था वह वीर की तरह
अर्जुन नही
तो अर्जुन पुत्र तो हैं
"अभीमन्न्यु"
सोलह बरस का वह बालक
भेद तो गया था वह
पर प्राणो की बलि दे कर
कौन तोड़ेगा यह चक्रव्यूह
द्वापर मैं एक बार यह प्रश्न उठा था
ओर आज फिर यह प्रश्न उठा हैं
आज जबकि ना कोई अर्जुन हैं
न कोई अभिमन्न्यु
फिर कौन तोड़ेगा यह चक्रव्यूह
इस चक्रव्यूह के
पहले द्वार पर हैं "अशिक्षा"
दूसरे द्वार पर "छुआछूत"
तीसरे द्वार पर महारथी "दहेज"
चौथे द्वार पर "अंधविश्वास"
पाचवे द्वार का दारोमदार थामे हैं "महँगाई"
छटे द्वार पर महाबली "भ्रष्टाचार"
ओर सातवे द्वार पर रक्तपीपासु "ग़रीबी"
इस कलयुगी चक्रव्यूह को भेदने
अब कोई अभिमन्न्यु पैदा नही होता
द्वापर से कलयुग तक
इस व्यूह को भेदने वाला अभिमन्न्यु
तो शायद एक ही हुआ हैं
किंतु
व्यूह के निर्माता
कई द्रोणाचार्य
आज भी विध्यमान हैं
जो अपने निहित स्वार्थों के लिए
रच रहे हैं आज भी चक्रव्यूह
ओर आम जनता
आज के कुरुक्षेत्र मैं
इस व्यूह मैं फस कर
दम तो तोड़ देती हैं
पर निकल नही पाती
व्यूह के सातों महारथी
हर बार ओर भी
बलवान होते रहे हैं
ओर आज के अभिमन्न्यु
नितांत असहाय
हे कृष्ण
उठाना पड़ेगा
तुम्हे ही
"चक्र" अब

जैसे हो याद ..


एक गीत लिखने की कोशिश हैं आप बताए कितना कामयाब हो पाया

साँसों के समंदर मे दिल की
मैं, कश्ती डुबोने .निकला हूँ
जैसे हो याद ...लड़कपन की,
ओर उसको भुलाने निकला हूँ

क्यों मुझसे वफ़ा तुम करते हो
क्यों मुझसे तआल्लुक रखते हो
मैं खाक हूँ जिन ....वीरानों की
उन मैं ही समाने ....निकला हूँ
जैसे हो याद ...लड़कपन की.ओर उसको भुलाने निकला हूँ

वो आग की जिसके साए मैं
तुम अपने गमो को भूल गये
वो शम्म कही पर मध्यम हैं
मैं उसको जलाने ..निकला हूँ

कई शहर उजड़ते .....देखे हैं
कई बस्तियाँ डूब गई दिलकी
इस दौर-ए-खिजाँ से दूर कहीं
एक गाँव बसाने ..निकला हूँ
जैसे हो याद ...लड़कपन की.ओर उसको भुलाने निकला हूँ

बरसों से ...जनाज़ों को मैने
इस राह .....गुज़रते देखा हैं
फिरभी हर सांस के साए मैं
खुद को भरमाने .निकला हूँ

वो सुर्ख हसीं हाथों की हिना
चेहरे पे दिए सी उज्जवलता
बस याद रह गई ...हैं बांकी
यादों के बहाने ....निकला हूँ
जैसे हो याद ...लड़कपन की, ओर उसको भुलाने निकला हूँ

घर नदी के मुहाने आ गये....


जबसे मौसम सुहाने आ गये
जख्म ताज़ा था दिखाने आ गये!

यहाँ रंगीनियों का मौका था
तुम कहाँ गम सुनाने आ गये!

बाद मुद्दत मेरा ख्याल आया
छत पे कपड़े सुखाने आ गये!

तुमने रोशन किया किसी घर को
मेरे कमरो मैं जाले आ गये!!

मेरी आँखो मैं गर्मी इतनी बड़ी
उनके पाओं मैं छाले आ गये!

गाँव मैं अबकी इतनी बारिश हैं
घर नदी के मुहाने आ गये!!

आइनो को न रोज़ कोसो तुम
रुख़ पे फिर से ये दाने आ गये!

कमनसीबी का सबब....


आसमा था दूर तक तन्हा था मैं
तेरी ग़ज़लों का फक्त उन्वा था मैं!

कमनसीबी का सबब पूछो न यारों
सब खुदा थे शहर मैं इन्सा था मैं!

मूह छुपाता हूं तेरी बेबाकियों पर
सोचता हूं क्या कभी ऐसा था मैं!?

तुम तो मोहसिन थे बुलंदी पा गये
खुद परस्ती मैं कहीं पिन्हा था मैं!

उसने हर ताल्लुक पे बदली शक्ल हैं
झिलमिलाती रेत सा यकसां था मैं!!

भीड़ मैं खो कर ये मालूम हो सका
तीरगी को किस कदर तरसा था मैं!

यूँ तो खुद को जब्त करता ही रहा
तेरी आँखो से मगर.. बरसा था मैं!!

खत पुराना जला दिया होता


चंद पंक्तियाँ रखने की इजाज़त चाहता हूँ अजीब बेकसी हैं जो सवालात मैं अयाँ होती हैं

घर बसाए उजाड़ते क्यों हों
बात इतनी बिगाड़ते क्यों हो!?

वर्ना अबतक वो लौट भी आता
बेदिली से पुकारते क्यों हो!?

इनमे कबके गुलाब रक्खे हैं
इन किताबों को झाड़ते क्यों हों!?

खत पुराना जला दिया होता
उसको मिट्टी मैं गाडते क्यों हों!?

उसके गालों पे तिल नही हैं वो
उसको इतना भी ताड़ते क्यों हों!?

खाली पन्नो पे बेकसी लिख कर
इतनी शिद्दत से फाड़ते क्यों हों!?

उनपे परदा रहे तो अच्छा हैं
जख्म गहरे उघाड़ते क्यों हों!?

हे मनुज कुछ सोच तो तू.........


दोस्तो अपने चारों ओर नज़र करता हूँ तो पाता हूँ की कंकरीटी सभ्यता का विस्तार निगल लेने को आतुर हैं हमे दिन-ब- दिन, विकास की बहुत बड़ी कीमत हैं ये, ओर इसके लिए मैं खुद को ज़िम्मेदार मानता हूँ शायद आप भी मुझसे सहमत हों
एक गीत.......
हे मनुज कुछ सोच तो तू .....क्या धरा को दे रहा !
प्रकृति में विष घोल कर तू .....प्राण वायु ले रहा !!
नग्न से दिखते ये जंगल, माफ़ तो क्योंकर करेंगे !
वो जो उजड़े हैं जड़ों से,......... घौसले कैसे बसेंगे,!!
कर औरो को मझधार में, अपनी ही कश्ती खे रहा !
हे मनुज कुछ सोच तो तू, ...क्या धरा को दे रहा .!!
जंगलों को काट कर जो, .......बस्तियाँ तूने बसाई !
वैभव का हर समान था, घरमें मगर खुशियाँ नआई !!
तेरे ही तो पाप हैं पगले, ..........तू जिनको धो रहा !
हे मनुज कुछ सोच तो तू,...... क्या धरा को दे रहा !!
इन धधकती चीमनियों के,..... दंश से कैसे बचोगे !
बच भी गये गर मौत से पर, पीड़ीयों विकृत रहोगे !!
दोष किसको देगा जब, ......खुद ही तू काँटे बो रहा !
हे मनुज कुछ सोच तो तू, .....क्या धरा को दे रहा.!!
अब ना चेते तो धरा की, .....परतों में खोदे जाओगे !
डायनासोरों की तरह, ......क़िस्सों में पाए जाओगे !!
यम तेरे सर पर खड़ा, ..........तू हैं की ताने सो रहा !
हे मनुज कुछ सोच तो तू, ......क्या धरा को दे रहा !!
वक्त हैं अब भी संभल, मत तोड़ प्रकृति संतुलन को !
जो भी जैसा हैं वही, ........रहने दे इस पर्यावरण को !
वरना फिर भगवान भी, ........तुझको बचाने से रहा !!
हे मनुज कुछ सोच तो तू, ........क्या धरा को दे रहा !
प्रकृति मैं विष घोल कर तू .........प्राण वायु ले रहा !!
हरीश भट्ट

बबूल सा कुछ.....



दोस्तों इन पंक्तियाँ का तानाबाना सुदूर सीमावर्ती क्षेत्र मैं तेनात मेरे कुछ मित्रों से हुई बातचीत के आधार पर बुना गया हैं की एक आतंकवाद ग्रस्त शहर का जीवन किस प्रकार परिवर्तित होता होगा........


उसका शहर
अब आतंकवाद ग्रस्त
घोषित हो चुका हैं
मैं
उसकी आँखों मैं
कुछ दहशत सी पाने लगा हूँ
हर वक़्त
एक बिना सिर वाले राक्षश की तरह
कोई उसे
अंधेरे मैं टटोलता रहता हैं
वह अब
रोशनी मैं लंबे होते
अपने साए को देख कर
छुपने लगा हैं
उसके अंदर
बबूल सा कुछ उग गया हैं

उसकी माँ
अब देर तक
उसके घर से बाहर रहने पर
झुझलाने लगी हैं
उसके पिता अब उसे
देर से लौटने पर
ज़्यादा ज़ोर से डाटने लगे हैं
उसकी माँ की पूजा के साथ साथ
उसके पिता की बातों मैं
कड़वाहट भी बढ़ने लगी हैं
उसकी शाम की टीयूशन
बंद कर दी गई हैं
वह
अपने अंदर उग आए बाबूलो को
अब महसूस करने लगा हैं
उसका शहर
अब आतंकवाद ग्रस्त घोषित हो चुका हैं

उसका शहर
अब सांझ होते ही
कंबल ओड लेता हैं
डरावनेपन की
रात मैं जब किसी
मोटरसाइकिल की चीख सुनाई देती हैं
तो उसे अपने दरवाजे पर
खून से तर हथेलियों की दस्तक
महसूस होने लगती हैं
उसके अंदर अब
बबूल की चुभन बढ़ने लगी हैं

वो रोज आने लगे हैं
उससे मिलने के लिए
व्यवस्था बदलने का गुरुमंत्र लिए हुए
उसे सुनाते हैं किस्से
गोली, बंदूक, पैसा, बेफिक्री,
ओर अययाशी के
कुरेदते हैं उसमे
अपनी क़ौम के लिए हिस्सेदारी
ओर बेकौम के लिए नफ़रत को
वह भी उकताने लगा हैं
रोज रोज की दहशत,
माँ की झुझलाहट,
ओर पिता की डाट से
व्यवस्था को
बदल देने का
छूत रोग उसमे भी
पूरी तरह लग गया हैं
अंततः
वो उनमे से एक हैं
उसके अंदर का बबूल
अब फल देने लगा हैं

बुधना की लड़की .........


आजकल
उस झोपड़पट्टी के
हर अधकचरे चौराहे पे
बस एक बात बेशर्म हो रही हैं
की बुधना की लड़की
जवान हो रही हैं
इस बात का एहसास
बुधना से पहले
गली के उन आवारा लोंडों
को होने लगा था
जो उसकी ग़रीबी मैं से झाकते जिस्म को
अपनी आँखों से तराशते रहते थे
गली के नुक्कड़ पर
दारू की नई दुकान खुल रही हैं
बुधना की लड़की जवान हो रही हैं

बुधना के चेहरे पर
चड़ा हुआ ग़रीबी का जंग
आभाओ की बारिश मैं
गहराने लगा हैं
उसकी उखड़ती साँसे
मिल की चिमनी से निकलते
धूए सी लगने लगी हैं
बुधना की जागी आँखे
सोई किस्मत पे रो रही हैं
बुधना की लड़की जवान हो रही हैं

बुधना की घरवाली ने
उन छोटे छोटे जेवरों को
सहेज कर रखा हुआ हैं
जिन्हे कभी
बुधना ने अपना प्यार जताने के लिए
मिल की भट्टी मैं
ओवर टाइम का ईधन डाल कर
उसके लिए खरीदे थे
वो आजकल
उस पूराने संदूक मैं रखे
डब्बे मैं से उस
एक एक रुपये को
जिसे उसने अपना ओर बुधना का
पेट काट कर बचाया था
रोज गिन रही हैं
बुधना की लड़की जवान हो रही हैं

मेरे शहर मैं
ऐसी कई झोपड़पट्टियाँ
कई बुधना
ओर कई बुधना की लड़कियाँ हैं
जो जवान हो रही हैं
पर उनका भविष्य
सिर्फ़ गली के आवारा लोंडो
राशन की लाईनो
दारू की दुकानों तक ही
क्यों सीमित रह जाता हैं
आख़िर क्यों फ़र्क कर जाते हैं
हम खुद की लड़कियों
ओर बुधना की लड़की मैं
फिलहाल बुधना के चेहरे पे
चड़ा ग़रीबी का जंग
पथराने लगा हैं
बुधना की घरवाली के संदूक मैं
बीमारी ने सेध लगा दी हैं
मेरी नज़र
बुधना की झोपड़ी से सटे सरकारी बोर्ड पर पड़ती हैं
जिस पर लिखा हैं
खुशहाल बालिका देश का भविष्य हैं
पर सोचता हूं
देश का भविष्य
खुशहाल बालिका हैं
या बुधना की लड़की

प्रकाश पर्व पर ......


दोस्तो इस दीपोत्सव पर मैं एक शुभकामना एक संकल्प लेता हूं

ईश्वर से..........


नव प्रकाश नव अभिव्यंजन.....
नव पल्लव कुसुमित घर आँगन
हे दीप शिखा हे धवल दूत,
हूँ दीन करूँ मैं क्या अर्पण
निष्काम भाव से ओत प्रोत,
बस पुष्प पात ओर अभिनंदन

आप से.........

दो दीप जला कर उजियारे के
गाँव के पथ पर रख देना
घनघोर तिमिर हो कालरात्रि हो
तिल मात्र जगह भी मत देना
यह आँधियाला अज्ञान का हैं
इसे दिव्य ज्योति से ढक देना

खुद से.....

तू दिया सरीखा माटी का
निज प्रज्वलित कर मन मैं ज्वाला
तू राम भी हैं रावण भी तूही
कर रण नीनाद कर के तो दिखा
तम को मत हावी कर मन पर
सब राह तकें वो राह दिखा

ओ मेरे मनमीत बता...


दोस्तों एक ऐसा शख़्श जो मेरे आसपास ही हैं ओर शायद आपके भी अपनी जीवन की सांध्यवेला मैं क्या महसूस करता हैं यदि जीवन भर खरा न उतर पाया हो मापदंडो पर वही मेरी रचना का किरदार भी हैं

ओ मेरे मनमीत बता....
क्या जीवन मैं तूने खोया
अब आम कहाँ से काटेगा
जब खुद बबूल तूने बोया

ये जन्म तुझे दिया माँ ने
तू स्वयं इसे नही लाया
हर एक खिलोना दिया तुझे
तूने जब जब भी धमकाया
तेरे बचपन के हसाने को
वो पिता आँख भर भर रोया
ओ मेरे मनमीत बता क्या जीवन मैं तूने खोया

तू यौवन का दंभ लिए
गलियों मैं यूंही विचरता था
पर बिना गुरु के जीवन क्या
ये कभी संवर सकता था
परदेश गया जब नौकरी को
परिवार रात भर ना सोया
ओ मेरे मनमीत बता क्या जीवन मैं तूने खोया

शादी करके घर के बर्तन तक
पत्नी के घर से लाया
बंगला गाड़ी ओर खाट बिछौने
सब उधार ही मँगवाया
पिछले ही बरस जब बाप मरा
तब एक खेत हिस्से आया
ओ मेरे मनमीत बता क्या जीवन मैं तूने खोया

बचपन से ले कर यौवन तक
यौवन से लेकर पच्छपन तक
बस लिया हमेशा गैरों से
मुस्कान से लेकर क्रंदन तक
कैसा ये शोक कैसा कॅलेश
जब सबने किया पराया
ओ मेरे मनमीत बता क्या जीवन मैं तूने खोया

अब ६० बरस की देह तेरी
आँखो से भी कम दिखता हैं
घर के उस अँधियारे कोने मैं
निस्तेज दिए सा जलता हैं
अब दोष किसे दे किससे लड़े
ये दर्द तेरा ही हैं ज़ाया

ओ मेरे मनमीत नही कुछ
जीवन मैं तूने खोया
अब बबूल ही काटेगा
जब खुद बबूल तूने बोया

आत्महत्या


मेरे शहर मैं
आजकल
उग आए हैं
कंक्रीट के जंगल
ओर उन शाख दर शाख
घोसलो मैं बटा हुआ आदमी
सचमुच कठफोड़ुए सा
लगने लगा हैं
हरपल
ठक ठक
खोदता हुआ अपनी ही जड़ो को
ओर इन सब के बीच
रह गये
कुछ नग्न-प्राय वृक्ष
इंतजार मैं हैं
अपनी बारी के
बटने को इन घोसलो मैं
फिर विरोधाभास भी कैसा
की जीवनदाई
वृक्षो को तो काट रहे हैं लोग
पर महसूस नही कर पा रहे हैं
अपने अंदर उगते
कॅंक्रिटी सभ्यता के बबूलो को
सोचता हू
की पर्यावर्णिक आत्महत्या का
ये कौन सा तरीका हैं
ये कौन सा तरीका हैं.

हिन्दी दिवस.....


मैने उसे देखा हैं
ओर रोज देखता हूँ
मेरे शहर मैं
किंचित सी काया लिए
तार तार होती छाया लिए
नग्न बदन
घूमती रहती हैं
छिपती रहती हैं
उस टिटिहारी की तरह
जो हर समय
बहेलिए के निशाने पर हो
उसकी आँखो मैं
अश्रु सूख चुके हैं शायद
सपने टूट चुके हैं शायद
अपनी पलको पर
एक उम्र का बोझ लिए हूवे
उसे मैने देखा हैं ओर रोज देखता हूँ
जिंदगी की सड़को पर चलते हुए
आज उसे हज़ार साल गुजर गए हैं
लेकिन लगता हैं
वह तब से चल रही हैं
जब उस सड़क की जगह
एक छोटी सी पगडंडी हुआ करती थी
तब वह इतनी जर्जर ना थी
उसकी आँखो मैं सुनहले सपने थे
उसके सिर पर स्वाभिमान का ताज था
लेकिन आज
अपने शहर की सड़के नापते देख
सोचता हूँ
की इस जर्जित काया को
घृणित व वहशी नज़रों से देखने वाला व्यक्ति
क्या मेरे ही देश का हैं
लेकिन एक दिन
कुछ सरकारी नस्ल के लोगो ने
उस काया को कुछ एक बनावटी परिधान पहनाए
कुछ एक आभूषण लाद दिए उस पर
मैं भौचक्का सा देख रहा था
बदलती तस्वीर को
मालूम हुआ की
एक दिनी प्रदर्शनी मैं
उस की नुमाइश की जानी हैं
मेरे मन हुआ की दौड़ कर जाऊ
ओर उतार के रख दू उस बनावटीपन को
ओर जाहिर कर दू उस जर्जरता को
जिसे मैने देखा था
अपने शहर के चौराहे पर
पर अफ़सोस
मेरे पहुचने तक
नुमाइश ख़त्म हो गए थी
ओर वो हाथ मैं रखे कागज पर से कुछ खाती हुई
वापस आ रही थी मेरे शहर की ओर
उसके बदन पर रह गये
कुछ रंग जो शायद
उसके घाव को छुपाने के लिए
उस पर तपे गये थे
कुम्हला से गये थे
उसकी प्रतिमा पर
विदेशियत की कालीमा ओर गहरा सी गयी थी
तुम उसे नही जानते शायद
लेकिन मैने उसे देखा हैं
ओर रोज देखता हूं
मेरे शहर मैं
बिंदी बिंदी शून्य होती हिन्दी को
देखा मैने पहले ही कहा था
तुम उसे नही जानते
क्योंकि तुम सिर्फ़
नुमाइश मैं रखी
प्रदीप्त काया को जानते हो
जर्जरता को नही
क्योकि तुम
एक "प्रोफेशनल इंडियन" हो
सभ्य भारतीय नही
सभ्य भारतीय नही
क्या ये हो नही सकता की
हम उस देवी को
मस्तक से लगाए
ओर एक दिनी नही अपितु
असंख्य हिन्दी दिवस मनाए
असंख्य हिन्दी दिवस मनाए

२ अक्तूबर पर एक चिट्ठी


बापू के नाम

नही बापू..
तुम्हारा युग बीत चुका हैं अब
तुम अब सिर्फ़
श्रधांजलि समारोह आयोजित करने
ओर इन श्रधांजलि समारोहो की आड़ मैं
पैसा बटोरने
ओर खुद को राष्ट्रीयता से जुड़े रहने का
वहम पालने भर के लिए रह गये हो
तुम्हे दुख हुवा ना बापू....
मुझे भी हुवा, हाँ बापू...
जिनके लिए तुमने
अंग्रेज़ो से असहयोग किया
वे आज तुमसे ही असहयोग कर रहे हैं
तुम्हारा शुरू किया सविनय अविग्या आंदोलन
तुम्हारे ही खिलाफ अविग्यित हो रहा हैं
बापू तुम्हारे चरखे की जगह
अब बंदूक ने ले ली हैं
तुम्हारी घड़ी मैं अब समय
अच्छा नही रह गया हैं बापू
तुम्हारे चश्मे को वक्त की कालिख ने
धुँधला कर दिया हैं
नही बापू, तुम नही देख पाओगे इस धुध्ले चश्मे से
होते हुए अपनी अहिंसा का बलात्कार
बापू, तुम्हारे वो तीन बंदर
अकर्मण्यता का लबादा ओडे
अब कुछ भी नही देखते
कुछ भी नही सुनते
ओर तुम्हारे सपनो को धराशाई होते देख
कुछ भी नही बोलते हैं
बापू, तुमने तो अकेले भूख हड़ताल की थी
कई बार की थी
पर आज हर भारत वासी हड़ताल पर हैं
क्योंकि वह अनाज नही
सभ्यताए खाने का आदि हो गया हैं
तुम्हारा हर बच्चा बेरोज़गार हैं बापू
क्योंकि बंदूक चलाना
अब चरखा चलाने से आसान हैं
देख लो बापू, क्या छोड़ गये थे तुम
ऑर क्या हो गये हैं हम
तुम्हारा विश्वास ही ,अब हमे उबार पाएगा
हमे उबार लो बापू
हाँ बापू, तुम जल्दी आना बहुत जल्दी
क्योंकि गाँधी पर गोडसे का ग्रहण
बहुत गहरा हो गया हैं
बहुत गहरा

तुम्हारा हरीश

Monday, December 13, 2010

मेरी बेटी ....

आज बेटियों का  दिन हैं

मेरे कुरते पे.......... चाँदी सी जरी हैं
मेरी ज़न्नत की वो..... नन्ही परी हैं!

अचानक सा निकलता कद हैं उसका
वो अपनी माँ से बस कुछ ही बड़ी हैं!

बहुत जिद्दी हैं..... गुस्सा भी बहुत हैं
वो बचपन से ही.... नाजौं मैं पली हैं!

मैं खेलूंगी मुझे वो........ चाँद ला दो
वो परसों से.... इसी जिद पे अड़ी हैं!

मेरा ही नक्श हैं आदत भी मुझसी हैं
सीरत मैं पर वो दो कदम आगे खड़ी हैं

मेरा हर गोशा रोशन हैं उसके आने से
वो दिवाली के..... दीपो सी....लड़ी हैं

वो इक दिन... छोड़ कर जाएगी मुझको
मुझे लगता हैं दरवाजे पे इक डोली खड़ी हैं


मैं प्रणय गीत कैसे रच दूं


जब हृदय शूल सा, बीन्ध रहा !
ओर शोक सोच पर, तारी हो !!
जब चहु ओर.. चीत्कार मचे!
ओर द्वेष प्रेम पर ..भारी हो!!
तुम कहाँ प्रेमरस .की हाला !
नयनो में खींच कर लाई हो !!
इस शुष्क धरातल को करने !
लथपथ... वर्षा सी आई हो !!
तुम. प्रश्न नेह का करती हो !
मैं प्रेम कहो.. कैसे लिख दूं !!

हे प्राण प्रिये. तुम्ही कह दो !
मैं प्रणय गीत. कैसे रच दूं !!

अंतस तक, वसुधा हैं प्यासी !
क्षुब्ध जलज का, गात प्रिये !!
शुष्क हैं सावन की रिमझिम !
ओ' मौन मिलन की आस प्रिये !!
तुम दग्ध निमंत्रण यौवन का !
मैं तृप्त तुम्हे..... कैसे कर दूं !!

हे प्राण प्रिये ..तुम्ही कह दो !
मैं प्रणय गीत... कैसे रच दूं !!

मैं हिम प्रस्तर सा धीर अचल !
हठ तृष्ण क्रोध से आच्छादित !!
अभिमान मेनका का तुम हो !
मैं विश्वामित्र सा मर्यादित  !!
तुम देवसुता मृगतृष्णा तुम !
मैं मानव मन,, कैसे तज दूं !!

हे प्राण प्रिये ..तुम्ही कह दो !
मैं प्रणय गीत... कैसे रच दूं !!

बेसुध अवाक सा.... बेठा हूं !
नयनो मैं नीर का कोर लिए !!
निर्वस्न... सांझ की बेला में !
अतृप्त उनींदा.... भोर लिए !!
तुम स्वयंवरा सी दुल्हन हो !
मैं माँग कहो... कैसे भर दूं !!

हे प्राण प्रिये.. तुम्ही कह दो !
मैं प्रणय गीत.. कैसे रच दूं !!

मंदिर के वो दिए

मंदिर के वो दिए

अब किवाडो मैं ये बातें, आम होती हैं
कातिल हैं दस्तकें, जो सरेशाम होती हैं!

उस घर का हादसों से, रिश्ता हैं पुराना
क्या जाने साजिशे कहाँ, अंजाम होती हैं!

मंदिर के वो दिए तो, हमी ने बुझाए हैं
मस्जिद की हवाए, यूहीं बदनाम होती हैं!

हुकूमत के पेचोखम, उन्हें समझाए भी कैसे
सियासत हैं ना ये बाबर हैं, ना राम होती हैं!

भीड़ मैं बलवाइयों के, सर नही होते
ये तोहमते भी, शरीफो पे इल्ज़ाम होती हैं!

इश्क़ की रुसवाइयां, मैं घर मैं ले आया
तूने ही कहा था, जा तेरे नाम होती हैं!

समाधान ...............


घर की एक दीवार पर तुम राम लगा दो
ओर दूसरी दीवार पर रहमान लगा दो
सजदे जो हों रहमान को तो राम को भी हों
फूलो का क्या कसूर हैं दोनो पे चड़ा दो

फिर धूप ओर लोबान से महकेगा पूरा घर
जब आरती अज़ान से गूंजेगा पूरा दर
जब ईद ओर दीवाली दोनो हों एक रोज
हैं तब ही समाधान चाहोगे तुम अगर

गीता क़ुरान रखे हो जब एक जगह पर
हो प्रार्थना मैं शीश या सजदे मैं झुके सर
दोनो को मानने मैं बुराई कहा से हैं
मन्नत हो या दुआ हो दोनो मैं हैं असर

था मेरा क्या कसूर मैं हिंदू के घर हुआ
या उसका कोई दोष वो मुसलमा बना
मैं राम बन सका ना वो बाबर के रहनुमा
फिर क्यों ये तमाशा ये मसलहा बना

मेरे देश का भविष्य


२० साल पहले अपने कॉलेज के मंच से पड़ी ये पंक्तियाँ आज भी सामयिक ही लगती हैं इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूँ

भूखे पेट वर्तमान खाली हाथ हैं भविष्य
ओर बुझते चिरागों मैं ना तेल हैं ना बाती हैं-२
ओर स्वतंत्रता की नाव जाने चली किस गाव
बड़ी तेज इन हवाओ की रवानी कही जाती हैं

सीमाओ की आग मंदिर मस्जिद का विवाद
आतंकवाद की तो जेसे ससुराल हुई जाती हैं-२
मेरे देश का भविष्य ज़रा देखो एक दृश्य
जैसे किसी देवदासी की जवानी ढली जाती हैं

कैसी ईद क्या दीवाली कैसी होली की ठिठोली
मत पूछो इसे किस की नज़र लगी जाती हैं-२
क्या बसंत मधुमस कैसी सरसो क्या पलाश
बस इलेक्सन की ही रुत अब सुहानी कही जाती है

मेरा देश भारतवर्ष कैसे होगा वही हर्ष
जब वेदों की ऋचाए घर घर कही जाती हैं-२
अब द्वेष हैं कॅलेश सब भाइयों मैं शेष
बस रक्त ओर नफ़रत कीही गंगा बही जाती हैं

कवि........


रोज आप सब की पंक्तियाँ पड़ कर मुझे ये ख़याल आया की इन पंक्तियों के लिए कितना कुछ भोगा होगा सबने इसी अभिव्यक्ति के समर्थन मैं..........


कल्पना की डोर थामे
स्वयं से
दूर भागता हैं
क्षितिज के छोर तक
किरनो का ताप
झेलता हैं
व्यग्र मन
मुक्ति की चाह मैं
समाज का पाप पालता हैं
हाँ
एसे ही जीता हैं कवि,
एसे ही जीता हैं,
जिंदगी के कॅनवस पर
बदरंगो का बोझ लिए
इकलोते धड़ पर
रावण सा क्रोध लिए
पनियाली आँखो से
टिमटिमाते जुगनूओ की मरीचिका
मैं धकियाते,
शब्द, घड़ता हैं कवि
हाँ एसे ही जीता हैं कवि
बासी अख़बार की कतरनो
की तरह
अपनी ही कविता को ओड़े
बहराती कोमों की
नाजायज़ कोख लिए
गुमसुम आँधियाले मैं
चाय की छन्नी सा
रोज छनता हैं कवि
हाँ एसे ही जीता हैं कवि
एसे ही मरता हैं.