Friday, December 20, 2013

सर्दियाँ



सर्दियों की 
अलसाई सी सुबह 
खिड़कियों से परे 
मीलों तक 
पसरा हुआ सा मैं 
और उस पर 
क़तरा  क़तरा
बर्फ कि मानिंद 
बिछती हुई सी तुम
सर्द एहसास लिए कुहासा 
सराबोर करने को आतुर 
पर पता हैं मुझे 
निष्ठुर उगेगा जब 
रोक नहीं पाउँगा 
वाष्पित होने से 
तुम्हे   

अनमनी सी दोपहर 
लौट चुकी हो तुम 
अपने हिमाद्र में 
मेरा पसार 
सिकुड़ने लगा हैं अब 
धूप सी तुम 
छितरा गई हो 
दूर देवदार  के पत्तों तक
तुम्हारी तपिश 
अब भी दूर हैं 
मुझसे 

भुतहा साँझ 
सर्द धुंधलका गहराने लगा हैं 
दुबक गया हूँ जैसे 
अबाबील कि तरह 
किसी कोटर में 
कंपकपा  गई हैं ऑंखें 
तुम्हारी आमद को 
मुझे पता हैं 
अँधेरे तराश रही हो तुम 
सुझाई नहीं देती हो तुम  फिर भी  

रात्रि प्रहर 
भाँय भाँय करता अंधियाला 
मीलों तक फैला 
सियाह बादलों कि कोर से 
स्खलित हो रही हो तुम 
सुफ़ेद रुई के फाहों सी 
धुंधलकी खिड़कियों के पार 
विसर्जित होते 
देखना ही तुम्हे 
नियति  हो जैसे 
 तुमसे एकाकार 
कब हो पाउँगा मैं 

हाँ'
इन्तजार में हूँ 
अलसाई सुबह का 
फिर एक बार 
मिलोगी न मुझे 
निष्ठुर के उगने से 
पहले तक 
भावाष्पित होने से 
पहले तक 
क्षणांश ही सही 

Saturday, November 30, 2013

एक कप कॉफ़ी ...........

और एक दिन वो चली गयी
उस जहाँ में  जहां  से लोग कहते हैं की शरीर बदल कर ही कोई लौट पाता  हैं
२५ कि उम्.. भरा पूरा परिवार पति सेक्ट्रेट मैं ऊँचे पद पर।  दो बच्चे  तीन कमरे का छोटा सा फ़्लैट । घर गृहस्थी कि भागमभाग।  कुछ  पुराने रिश्ते नाते करीबी  तो बस एक आध ही।   दरमियाना कद चेहरे पर हमेशा से   चिपकी लम्बी सी मुस्कान कान के कोनो तक जाती हुई।  ताम्बई  होता रंग  और एक अदद बीमारी। ....  केंसर ....  यही था परिचय वैसे तो उसका
कुंतल …  यही नाम तो था उसका आप कहेंगे नाम में  क्या रक्खा हैं आखिर
पर  नाम में  ही शायद सब कुछ रक्खा था उसके लिए घनघोर  श्याम वर्ण कुंतल उसके चेहरे पर उदासी की गहराहट  को और बड़ा दिया करते थे.…… चेहरे का पीलापन सांझ तक आते आते और पनियाला हो जाता था। बच्चे समझ नहीं पाते  थे कि माँ से कैसे बात करें जिद करना तो दूर कि बात थी।
घंटों  शून्य मैं तकते हुए बिता देना शग़ल  हो गया था उसके लिए.……  बीती बातों  को क्या जरा भी याद करना मुश्किल तो नहीं ही होता होगा
बीती बातें ……मुझे भी तो धुंधली  सी ही याद हैं अब …

हमारी बस्ती  मैं मिडल स्कूल हुआ करता था तब …तब से जानता  हूँ उसे मेरे ही साथ तो पढ़ती थी.…।
छल्लेदार  कमीज और सितारों वाली चूनर पक्की सहेली थी उसकी    बचपन का साथ हो तो बचपना  जाता नहीं…… बड़े होने तक भी
कुछ  भी बेपरवाह कह देना आदत थी उसकी  चुप रहना तो दूर कि बात थी शायद। …  बेसाख्ता कह दिया कुछ भी बेझिझक चाहे सुनने वाला कुछ और मतलब निकल ले तब भी पूर्ण  निश्छलता के साथ
माथे पर बालों के लहरावदार गुच्छे गाहे बगाहे आ ही धमकते थे और सारा दिन उन्हें बरबस ही सहेजने में निकल जाता होगा उसका ऐसा मुझे लगता था
हमउम्र मंडली साथ ही रहती थी उसके चाहे नुक्कड़ वाली दुकान से  संतरे वाली  गोली  लेना हो या पास कि अमराई से खट्टी मिठ्ठी अम्बियाँ चुरानी हों
दिन भर धमाचौकड़ी मजाल हैं जो किसी को हाथ भी रखने दे तुनक कर करारा जवाब वो भी हाथ के हाथ
ये सब मैंने ओरों से सुना हैं मैंने।  मैंने तो जब भी देखा सकुचाई लजाई सी ही मिली मुह मैं जबान न हो जैसे लोगो कि सुनता था तो लगता था कि... मेरे ही साथ ऐसा नाटक क्यों
फिर लगता था यही स्थाई हैं बाक़ी तो केवल आवरण मात्र

मैंने कहा न बचपना नहीं जाता भले ही बचपन कोसो दूर निकल गया हो
फिर बात कुछ बदली बदली सी भी हुई सतरा  अठरा सालों  कि तब बातों  के मायने बदलने लगे होते हैं ...होठों कि मुस्कान कान के सिरे तक ललायमान  कर देती हो तो अर्थ के अनर्थ होने में देर नहीं हो पाती …  यौवन कि दस्तक सुनाई नहीं देती महसूस कि जाती हैं साथ साथ होने में ही नहीं अकेले भी 

नया सूट पहनने पर "कैसा हैं "पूछना बनता ही था उसका
स्कूल मैं भी अपना टिफिन मुझसे शेयर किये बिना खाना हजम नहीं होता था उसका लड़ाई ओरों से होगी मुह मुझसे फुला लेना शग़ल  हो गया था आखिर मनुहार को कोई तो होना चाहिए
कभी मुझे लगता था कि उसके इस व्यव्हार का मैं आदि नहीं हो पा  रहा हूँ.. और खुद को सयत रखने कि कवायद में उसे उलझा देता था

"कुंतल चलो कहीं बैठ कर एक कप कॉफ़ी  पीते हैं" एक नहीं कई बार कहा था मैंने
पर संकोच था या उसे काफी का स्वाद पसंद नहीं था कभी न जान पाया मैं
पर याद नहीं करना चाहता अब मैं याद करने को जी भी नहीं करता क्यों कर करू  शिराओं मैं रक्त तीव्र होने लगता हैं परिकल्पनाएं  साकार रूप मैं होने पर भी अनदेखा सा रहा मैं जैसे
निरपेक्ष भाव का सुख और तटस्थ रहने का आलोक  कचोटता हैं अब मुझे

क्या रिश्ता था उसका मेरे साथ न उसने कभी जानने कि कोशिश कि न मैंने कभी कुरेदने कि
पर था तब भी जब बांकी संगी साथी कहीं छूटने लगे थे सतरंगी सपनो कि  दुनिया होती होगी पर हमें कभी नहीं पता हो पाया  या शायद मैं अकेला ही अनभिज्ञ था

ऐसा भी न था कि मुझे दीन  दुनिया कि खबर न हो या कि उसे ही जब्त कि आदत रही हो …
एक दफा का तो कुछ कुछ याद भी हैं मुझे धुंधला सा  ...... कुछ कहने कि कोशिश कि थी उसने कभी। …  शायद ज्योत्स्ना कि शादी  वाले दिन जब ज्योत्स्ना ने भर्राते हुए कहा था
""कुंतल मेरा तो जो होना था हुआ अब तुम्हारी बारी हैं मन कि मन में मत रखना"

 मेरे सामने कि तो  बात हैं मुझे बड़ी बड़ी मृग के छोनो  सी आँखों से सपाट हो देखा था उसने  जैसे ज्योत्स्ना ने नहीं कुंतल ने पूछा हो  मुझसे और मैं उससे कह बैठा कि ""मैंने क्या किया हैं मुझे क्यों आँखे दिखा रही हो""" हालाँकि तब भी जबकि मुझे पता था कि ज्योत्स्ना किसी और ही साहिल कि किश्ती  पर सवार  थी पर कभी कह नहीं पायी
आज ये सब याद करते हुए सवालों कि गुत्थी सुलझा नहीं पा  रहा हूँ मैं
 विवश कभी नहीं रहा था मैं.…फिर क्या था वो.…  क्या कोई पूर्वाग्रह
पर अब तो उत्तर देने वाला भी कोई नहीं और न उत्तर सुनने को ही कोई बचा हैं

कितनी खुश थी अपनी शादी वाले दिन कुंतल मुझे तो ऐसा ही लगा था  पूछा था उसने बारात आने से कुछ क्षण पहले ""नाराज हो""
""नहीं तुम्हे ऐसा क्यों लगा"" यही  कह पाया था मैंने  केवल
""फिर तुमने मुझे बधाई क्यों नहीं दी कल  से कुछ न बात कि न सामने ही आये तुम""
""अब क्या  कुछ कहोगे नहीं  मुझसे""   स्थिर रह गया था तब भी मैं
उसकी आँखे वही मृग के छोने जैसी फ़ैल कर और बड़ी लग रही थी तब शहनाई और बैंड  कि आवाज कहीं लुप्त सी हो गई हो जैसे नेपथ्य मैं
बांकी के सवाल उसकी पलकों कि कोर पर ही तैर गए जब मैंने कहा कि..... ""तुम ख़ुश  तो हो न"'

कई बार लगा बल्कि बार बार ...कि कैसा बचकाना सवाल था
फिर कभी जिंदगी में किसी और से ऐसा सवाल शायद ही पूछा हो मैंने
फिर सोचा उसकी विदाई पर बांकी दोस्तों कि आँखे भी तो नम थी ही

अब ये तो मुझे याद  नहीं कि अपनी शादी पर  मैंने उसे नहीं बुलाया था या वो खुद ही नहीं आई थी

हालाँकि उसके बाद भी कितनी ही बार उससे मुलाकात हुई फोन परभी बाजार में
पर एक लक्ष्मण रेखा सी खीच गई लगता था पर वह एक सवाल हमेशा मौजूद रहा  हमेशा। ....  जवाब न मैंने कभी ढूँढा न उसने कभी जाहिर होने दिया

अभी कुछ दिन पहले ही तो मिली थी डॉ गम्भीर के क्लिनिक में
""क्या हुआ"" पूछने पर बताया कि कुछ नहीं बस तबियत ख़राब हैं

""सुनो तुम हमेशा कहते थे चलो आज कही बैठ कर एक कप काफ़ी पीते हैं""
मैं जड़वत  उसके पीछे कॉफीशॉप तक चलता  गया .. मैंने सिर्फ कॉफ़ी   पी  उसने न जाने  क्या क्या !!

 यही पहला और आखरी कॉफ़ी  का प्याला था उसके साथ अपने बच्चो अपने पति के साथ कितनी खुश हैं वो शायद उसी रोज ही  बताया था उसने
लौटते हुए मैंने डा.  गम्भीर से मिला  था केंसर स्पेसिअलिस्ट हैं वो   उन्होंने ही  बताया …  लास्ट स्टेज हैं

और दो दिन बाद ही वो चली गई ......उस जहाँ में लौट कर आता नहीं जहाँ से
तब से कुछ साल कुछ महीने कुछ दिन और कुछ घंटे बीत  चुके हैं

कॉफ़ी  पीना मैंने हमेशा के लिए छोड़ दिया था तबसे.....

Saturday, September 14, 2013

बिंदी बिंदी शून्य होती....... हिन्दी


मैने उसे देखा हैं
और  रोज देखता हूँ

मेरे शहर मैं
किंचित सी काया लिए
तार तार होती छाया लिए
नग्न बदन
घूमती रहती हैं
छिपती रहती हैं
उस टिटिहरी की तरह
जो हर समय
बहेलिए के निशाने पर हो

उसकी आँखो मैं
अश्रु
सूख चुके हैं शायद
सपने
टूट चुके हैं शायद
अपनी पलको पर
एक उम्र का बोझ लिए हुए
उसे मैने देखा हैं
और  रोज देखता हूँ

मेरे शहर की  सड़को पर चलते हुए
आज उसे
हज़ार साल गुजर गए हैं
लेकिन लगता हैं
वह तब से चल रही हैं
जब
उस सड़क की जगह
एक छोटी सी
पगडंडी हुआ करती थी
तब वह
इतनी जर्जर ना थी
उसकी आँखो मैं
सुनहले सपने थे
उसके सिर पर
स्वाभिमान का ताज था
लेकिन आज
अपने शहर की सड़के नापते देख
सोचता हूँ
की इस जर्जित काया को
घृणित व वहशी नज़रों से देखने वाला व्यक्ति
क्या मेरे ही शहर   का हैं

लेकिन एक दिन
कुछ सरकारी नस्ल के लोगो ने
उस काया को
कुछ एक बनावटी परिधान पहनाए
कुछ एक आभूषण
लाद दिए उस पर
मैं भौचक्का सा
देख रहा था
बदलती तस्वीर को

मालूम हुआ की
एक दिनी प्रदर्शनी मैं
उस की नुमाइश की जानी हैं
मेरे मन हुआ
की दौड़ कर जाऊ
ओर उतार के रख दू
उस बनावटीपन को
ओर जाहिर कर दू
उस जर्जरता को
जिसे मैने देखा था
अपने शहर के चौराहे पर

पर अफ़सोस
मेरे पहुचने तक
नुमाइश ख़त्म हो गए थी
और  वो हाथ मैं रखे
अंग्रेजी में छपे प्रशंशा पत्र पर से
कुछ पढ़ती  हुई
वापस आ रही थी
मेरे शहर की ओर
उसके बदन पर रह गये
कुछ रंग जो शायद
उसके घाव को छुपाने के लिए
उस पर पोते  गये थे
कुम्हला से गये थे
उसकी प्रतिमा पर
विदेशियत की कालीमा
ओर गहरा सी गयी थी

तुम उसे नही जानते शायद
.............
लेकिन मैने उसे देखा हैं
और  रोज देखता हूं
मेरे शहर मैं
बिंदी बिंदी शून्य होती
..............
हिन्दी को

देखा मैने पहले ही कहा था
तुम उसे नही जानते
क्योंकि तुम सिर्फ़
नुमाइश मैं रखी
प्रदीप्त काया को जानते हो
जर्जरता को नही
क्योकि तुम
एक "प्रोफेशनल इंडियन" हो
सभ्य भारतीय नही
एक .......
सभ्य भारतीय नही

क्या ऐसा नहीं हो सकता
की हम उस देवी को
मस्तक से लगाए
ओर एक दिनी नही
अपितु
असंख्य .....
अन्गिनित .......
हिंदी  दिवस मनाए ??!!

Monday, September 9, 2013

धुधलका.......






 
पलकों का
उनींदापन
अब
थम जायेगा
शायद,

मिल ही जाएगा  
नब्ज दर नब्ज  की
हरारतों को
विराम भी !

छट ही जायेगा
वक़्त
बेवक्त की 
उम्मीदों  का धुधलका ,

छट  भी जायेगा
 सीने में अटका
वर्षों से पसरा
अनमना सा गुबार भी !

कम हो ही जाएगी
हथेलियों की 
रक्तिम तपिश ,
छू पाने की हसरत भी

विस्मृत नहीं कर पायेगी
अब 
तारों के टूटने की झलक !
देर तलक
टकटकी के लिए

डूब ही जायेगा
झूठी तसल्लियाँ
देने मैं माहिर
सूरज ,
हमेशा के लिए
देवदार  के 
पेड़ों के पीछे !

अब न भरमायेगा
क्षितिज का
वो सम्मोहन ,
मिलने न मिलने का
........
आज
मैंने तुम्हारा
आंखरी
ख़त  भी
जला जो दिया हैं
........
अब उस
दराज में
खाली लिफाफे सा
ठहरा हुआ हूँ
बिना
पता लिखा हुआ
मैं........
केवल मैं..!!

Tuesday, April 9, 2013

"बलात्कार"


आजकल
शब्दकोष मैं ढूंढता हूँ
एक शब्द
"बलात्कार"....
और सिहिर उठता हूँ
इसके विकृत अर्थांशों पर

दिन भर यह शब्द
कान से चिपका हो जैसे
हथोड़े सा
मष्तिष्क पटल पर
बजता हुआ सा
बार बार--
तस्कीद करता हुआ सा
की नपुंसकता
मानसिक भी हो सकती हैं
पर कैसी नीचता
स्वयं को उघेड़ लेने का 
कैसा अतिरेक
उन्मांद की ऐसी परिणिति
कुत्सित  ही नहीं
अक्षम्य भी हैं
शब्दकोष में  तो कभी
इतना घृणित
नहीं था कोई शब्द
मान मर्यादा
जाती वर्ग विशेष
उंच नीच
छुआ छूत
से सुसज्जित और परिभाषित
ये मेरा समाज
हैरान हूँ
की कैसे झटक देता हैं
ब्लात करते हुए ऐसी जघन्यता 
असहाय स्त्रीत्व
तब न उसे 
जातिगत दिखता  हैं
न किसी वर्ग विशेष से
आखिर
गर्व करने को 
क्या रक्खा हैं
ऐसे स्वछन्द पौरुष पर
धिक्कार के सिवा
मृत्यु
शायद कम हैं
उस तिरिस्कृत 
एहसास तक पहुचने के लिए
पर इससे अधिक पर 
मौन हैं 
न्याय का देवता भी  
उपेक्षित पर उद्वेलित 
सोचता हूँ  
इस दंड के लिए
कोई विधान 
किसी शब्दकोष मैं
नहीं ही
होगा शायद

हाँ ...
आँख के बदले आँख
और हाथ के बदले हाथ  के
रामबाण न्यायसूत्र
की कह दूं
तो
मानवाधिकार
के बलात्कार का
गैर जमानती आरोप
चस्पा होते देर न लगेगी


तेज़ाब



तुमने ....
हाँ तुमने
कुरूप किया हैं मुझे ....
तेज़ाब सा कुछ 
उढ़ेल दिया
कान्तियुक्त चेहरे पे मेरे
कई पठारीय परिदृश्य
उभर आये हैं अब
अनगिनत लकीरे
भयावहता की
अकल्पनीय टीस  और 
पीड़ा से  भरे हुए !!!

सुन नहीं पाती हूँ
माँ की चीख .....
कान के परदे तक 
पंहुचा होगा कुछ तरल
न जाने 
कौन से अस्पताल का पता
पूछ रहे हैं पड़ोसी
देख ही नहीं पा रही हूँ
अब कोई  भी बोर्ड
सांस लेने के रास्ते
या तो अवरुद्ध हैं 
या मिट चुके हैं

एसिड .....
ऐसा ही होता होगा शायद
कभी....
सुना भी न था
किसी ने..
बताया भी नहीं
की चेहरे को चीरती हुई
तरल की कुछ बूंदे
कितनी तीक्ष्ण होती जाती हैं
मेरा कसूर ...
कब बताओगे तुम
तुम ..!!
या तुम्हारा समाज ????

जिन्दा रहना ही क्या
काफी होता हैं...
रह के तो  देखो फिर
केवल कुछ
सुराखों के साथ
पथरीला सा चेहरा लिए

हाँ ....
तुमने ही तो उडेला हैं
ये तेज़ाब...
तुम्हारे मष्तिष्क की 
कड़वाहट ने सींचा हैं इसे
तुम्हारी विकृत सोच ने
खौलाया हैं इसे..
तुम गुनाहगार हो मेरे
याद रखना !!

किसी दिन
किसी सूनसान तिराहे पर
खड़ी  मिलूंगी मैं जरूर 
तुम्हारे इन्तजार मैं
बोतल में लिए हुए  
कुछ कतरे
तेज़ाब के
अगर जिन्दा रही तो ..........

फिर सोचती हूँ ..
ईश्वर  न करे
कहीं  
कल
तुम्हारे आंगन मैं
बेटी बन के पैदा हुई तो ..!!??
यही
छिद्रित सा
चेहरा लिए ...!!!???

Friday, March 29, 2013

मैं तो मुसाफिर हूँ ....





मैं तो मुसाफिर हूँ हमेशा लहरों में रहूँगा !
तुम सुमन सम साथ साहिल के चलोगी !!
मैं तो नीरव सा सघन.... वन वन रहूँगा !
तुम सुहासित उश्मिता के... संग चलोगी !!

इस सुलगती वसुधरा कि प्यास भी तुम !
इस धरा पर प्रणय का मधुमास भी तुम !!
तुम बरसती भाद्र कि..... हर आद्रता में  !
ज्येष्ठ कि मृदु धूप का आभास भी तुम !!
में तो चातक हूँ सघन.... घन घन रहूँगा !
तुम अहर्निश रश्मिता के.. संग चलोगी !!

तुम क्षितिज की, रक्तिमम लावण्यता में !
तुम शिशिर की, चंचलित हर व्यस्तता में !!
ओस की कोंपल पे झिलमिल   धूप जैसी !
श्वेत संदल सी... खनकती ज्योत्स्ना में  !!
मैं तो याचक हूँ नमित ...कण कण रहूँगा !
तुम सुभाषित अस्मिता  के..संग चलोगी !!

निशदिन शुभेच्छित हो नया संसार तुमको !
मुझसे निश्छल स्नेह का,..आभार तुमको !!
तुम न चाहो तो तुम्हें, याद आऊं मैं कैसे ?!
हैं स्मृतियों से मिटने का अधिकार तुमको !!
मैं तो त्यज्यित हूँ, भ्रमित क्षण क्षण रहूँगा !
तुम मधुरमित  शुश्मिता के, संग चलोगी !!

मैं तो मुसाफिर हूँ हमेशा लहरों मैं रहूँगा !
तुम सुमन सम साथ साहिल के चलोगी !!