Saturday, April 30, 2011

अब भी वो ख़त दराज में हो कहीं..


आहटें चुप मंजर उदास हैं शायद
कोई फिर ....आस पास हैं शायद

अपनी पलकों को गिराओ तो सही
राह तकती........तलाश हैं शायद

अब भी वो ख़त दराज में हो कहीं
यकीं नहीं हैं .....क़यास हैं शायद

उसको पैमाना-ए-जिंदगी मत दो
उसको सागर सी प्यास हैं शायद

अब वो किसी से वफ़ा नहीं करता
उसी बेवफा की ...आस हैं शायद


कितने रोये तड़पे थे उसके जानेपे
आदमी हैं की....... लाश हैं शायद

Friday, April 15, 2011

यहाँ हमदर्द कम हैं,


ये दुनिया किसको, रास आई बहुत हैं
यहाँ हमदर्द कम हैं, तमाशाई बहुत हैं

निगाहें अब भी, झुक जाती हैं अक्सर
वो बचपन से मुझसे, शरमाई बहुत हैं

न माना वो जरा सी बात पर लड़ बैठा
बात उसको किसी ने समझाई बहुत हैं

जला दिल किसका, फिर पूछो न यारों
जबां खुश्क पेशानी पे, गरमाई बहुत हैं

जिसकी दुआओं से, घर मेरा रोशन हैं
उस की मोहब्बत, मैंने ठुकराई बहुत हैं

तुझे हर शक्ल में... पहचान सकता हूँ
खुदा मेरे मुझे इतनी भी बीनाई बहुत हैं

सलीके से यहाँ पर..... कौन मिलता हैं
जहाँ भी भीड़ हैं देखो वो तन्हाई बहुत हैं

मैं अब खामोश हूँ तो ,तुम क्यों हैरां हो
मुझे चुप करके दुनिया, पछताई बहुत हैं

Thursday, April 14, 2011

तुम मुझे पहले भी ... मिली हो शायद


तुम मुझे पहले भी ... मिली हो शायद !!
काचनार की कलि सी खिला करती थी !
उदास शाम गजलों में मिला करती थी !!
नंगे पांव, रेत पे, बिखराती, आंचल को !
लरजती, सिमटती, सी चला करती थी !!
तुम मेरे साथ कुछ दूर..चली हो शायद !
तुम मुझे पहले भी ....मिली हो शायद !!

तुम कुहासों को ओढती थी अनमनी सी !
तुम्हारी जुल्फ लिपटी सी कुछ घनी सी !!
सुरमई सी नज़रों के.. कोर तक काजल !
मंदिर की सादा मूरत सी संवरी बनी सी !!
सौधीं मिट्टी के सांचे में... ढली हो शायद !
तुम मुझे पहले भी ..... मिली हो शायद !!

तुम भी क्या रंग चुराती थी शोख फूलों से !
तुम भी झुंझलाती थी .. हवा के झोंकों से !!
दूर परिंदों को...... हसरत से देखती होंगी !
तुम भी लहराई तो होगी तीज के झूलों से !!
मेरे शहर की बिसरी सी ..गली हो शायद !
तुम मुझे पहले भी ..... मिली हो शायद !!

चलो माना की ये मेरा वहम ही हो शायद !
फिर क्यों ये चाँद तुमको तकता रहता हैं !!
सजदे करती हैं क्यों ये ....शाम-ओ-सहर !
तेरा वजूद मेरी सांसों में..अटका रहता हैं !!
कुछ यादें मेरे अश्कों से, सिली हों शायद !
तुम मुझे पहले भी ...... मिली हो शायद !!

Friday, April 8, 2011

चलो ऐसा करें...


दोस्तों हलके फुल्के अंदाज मैं एक नज्म आपकी नजर ...

चलो ऐसा करें दिल की लगी को.....छोड़ देते हैं!
कोई रस्ता ना हो तो, मंजिलें ही....मोड़ लेते हैं!!

मुझे अबभी मोहब्बत हैं तुम्हारी शोख आँखों से!
सितारे क्या अभी तक भी उन्ही से..होड़ लेते हैं!!

तुम्हे ही हिचकिचाहट थी हमेशा दिल लगाने से!
हमारा क्या हैं हम तो यूं ही रिश्ता...जोड़ लेते हैं!!

ये माना तुमसे नामिलने की कस्में हैं ज़माने से!
गर तुम हाँ जो कह दो तो कसम भी तोड़ लेते हैं!!

वो रूठे हैं मगर उनको मानना फिर भी आसां हैं!
बहुत मुश्किल हैं उनको जो उदासी .ओड़ लेते हैं!!

इसे मेरा जुनूं कह दो या कहलो तुम दिवानापन!
इशारा तुम जो करती हो वहीँ को ....दौड़ लेते हैं!!

Thursday, April 7, 2011

कैक्टस होना

 
कथ्य का

आडम्बरहीन  होना,


कौन देखता हैं


आत्मसात करने को !


परिष्कृत हो जाना,


नीतिगत तो हैं,


पर व्यावहारिक नहीं!


इसलिए


उखाड़ ही देते हो तुम


पिछली दिवार पे


उग आया पीपल


कैक्टस होना ,


अनुवांशिक नहीं होता ,


पर उस पर खिला ,


बैगनी फूल,


गंध विहीन 


ही तो रहता हैं !!

आस का दिया


दूर  तक ,
जाते देखा करता हूँ ,
उस दिए को मैं ,
गंगा की लहरों  पर ,
अपनी तमाम ,
श्रद्धेयता  के साथ !
विसर्जित किया था जिसे मैंने, 
अठखेलियाँ  करता वो ,
हिचकोले खाता,
रुकता रुकाता ,
लड़ता  रहता हैं ,
तेज हवा और ,
पावन लहरों से भी  !

उसके साथ तैर जाती हैं ,
मेरी 
कुछ  हसरते,
कुछ  सपने ,
कुछ  उम्मीदे ,
कुछ  मन्नते भी ,
अठखेलियाँ करती ,
हिचकोले खाती ,
नियति से लडती !
और वो ,
ओझल हो जाता हैं ,
कुछ दूर बाद ,
आँखों से,

मेरा मन ,
मानता नहीं
मेरी श्रद्धा ,
टूटती नहीं 
की,
गंगा की पावन ,
और उदार,
पर तीक्ष्ण लहरों ने,,
लील ही लिया होगा उसे,
मेरी तमाम ,
हसरतों , संभावनाओ, उम्मीदों, 
और मन्नतों के साथ !!!
क्या पता  पार हुआ हो वो 
या नहीं,  क्या पता ....
श्रद्धा की भी 
कोई लक्ष्मण  रेखा होती  हैं क्या  ??
क्या पता ​!!??

Wednesday, April 6, 2011

माँ शक्ति स्वरूपा..


नव रात्र की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ समर्पित

माँ शक्ति स्वरूपा.. अष्ट भुजा
भैरव संग में... हनुमान ध्वजा
हों कष्ट निवारित जन जन के
नवरात्र फलित.. नव भोर सदा

शैल पुत्री तुम ..ब्रह्मचारिणी
गौरी तुम चन्द्रघंट कात्यायनी
स्कंदमात भी .तुम ही हो माँ
कूष्मांडा काली. सिद्धिदायनी
हैं दिव्य रूप... पावन मईय्या
जयकारा लगे ..जब जोर सदा
हों कष्ट निवारित जन जन के
नवरात्र फलित.नव भोर सदा

तुम शत्रु मर्दनी... जग पालक
मैं दीन.......सरीखा हूँ बालक
तम आच्छादित मन पर मेरे
दुष्कृत्यों का...... हूँ संचालक
अब यत्न करो ...हे दया निधे
ज्योतिर्मय हो ..हर छोर सदा
हों कष्ट निवारित जन जन के
नवरात्र फलित. नव भोर सदा

तुम कल्याणी जग जननी तुम
तुम रोद्र्रूप.. दुःख हरनी तुम
मैं क्रोध मोह का .....सागर हूँ
इस भवसागर की ..तरनी तुम
तुम थामे रहो....पतवार मेरी
ये विनती हैं.... कर जोर सदा
हों कष्ट निवारित जन जन के
नवरात्र फलित..नव भोर सदा

तुमने किस किस को उबारा हैं
कितनों को उस पार, उतारा हैं
माँ लाज मेरी भी ..रख लेना
माया का खेल .. जग सारा हैं
तुमसे ही नेह की....गांठ बधि
तुमसे जीवन की.... डोर सदा
हों कष्ट निवारित जन जन के
नवरात्र फलित. नव भोर सदा