Sunday, December 10, 2017

मुक्तक

शब्द मेरे सब,, तुम्हारे हो गए !
रूप की लावण्यता में. खो गए !!
अर्थ जब ना पा सके, संसर्ग में !
दर्द की आधिक्यता में, रो गए !!

मुक्तक- रावण राज


त्रेता का वैभव गया, कलियुग हैं ये आज !
घर घर रावण ही मिले, कहाँ राम का राज !!
जनकसुता भयभीत हैं, अवचेतन हनुमंत !
राम शिथिल हैं आज के,... रावण तीरंदाज !!

ताज

जब दूध  से धुला तो उसे ताज कहा था
दीवानगी का रोशन अंदाज कहा था
तामीर हो चूका जब वो हुस्न-इ-मुज़सम
उसे चाहने वालों ने मुमताज कहा था

मुक्तक



जाने क्या क्या मेरी, बातों के इशारे बैठे !
दिल मेरा सौ सौ दफा,, दर्द के मारे बैठे !!
जो रंजिशें हैं बिना बात की, सुलझा लेंगे !
आ के फुर्सत किसी दरिया के किनारे बैठें !!

चल कहीं बैठ के दिलकश से तराने लिख दे
इक मुझे ख़त कहीं मिलने के बहाने लिख दे
ये जो ख़ामोशी सी पसरी हैं समंदर की तरह
आ के इस पर तू मुहब्बत के फ़साने लिख दें

जन्म दिन

सुना हैं
आज
तुम्हारा जन्मदिन है

पर मैंने तो
 सुना था की
परियां
जन्म नहीं लेती
आसमान से उतरती हैं

ये भी की
लौट जाती हैं
अपने अपने
परिस्तान मैं
ख्वाब
पूरे हो जाते हैं जब
वो तो
परे हैं
जन्मने अजन्मने
के बंधन से
फिर भी
बधाई देता
हर पल छिन  हैं
सुना हैं की
आज
तुम्हारा
जन्मदिन हैं

तभी मैं कहूं
आज
कुछ जियादा हैं
रौशनी शायद
खुशबूएं हैं
हवाओं में
रागनी सी हैं

बहका हुआ हैं
हर इक गुलाब
इतराया हुआ सा
गुलमोहर पे आमादा
शायरी सी हैं

रक्खें हों किसी ने
आज दुनिया मैं
कदम
मुमकिन हैं
सुना हैं
की आज
तुम्हारा जन्मदिन हैं

यूं ही

कल मैने धर्म पत्नी जी से कहा इस मिसरे पर कुछ तरही गजल सुझा दें मिसरा था ....

"न किसी राहबर न रहगुजर से निकलेगा "
धर्मपत्नी ने मज़ाहिया अंदाज में जो कहा आपकी नजर

मेरा तो अब उस दिन ये दर्द सर से निकलेगा !
जब ये चाबियों का गुच्छा कमर से निकलेगा !! सास को

कभी जो काम बताओ तो पढ़ाई का रोना हैं !
खबरदार जो छुट्टी के दिन तू घर से निकलेगा !! बेटे को

हर लम्हा नजर टिकी रहती हैं लाइक कमेंटों पे !
ये फेसबुकिया भूत कब तेरे सर से निकलेगा !! बेटी को

न जाने कब बंद होगा छत पे टहलना इसका !
न जाने कब ये पड़ोसन के असर से निकलेगा !!पति को

इस शहर के सब दुकानदार मुझसे वाकिफ हैं !
हैं कोई मॉल जो अब मेरी नजर से निकलेगा !! खुद को

मित्रता दिवस

सुना हैं आज मित्रता दिवस हैं ,...
तो सभी मित्रों को,, मित्र के मित्रों को भी,
एकदम नए चकाचक और पुराने घिसे हुए मित्रों को भी,
कबसे नाराज़ और घोर रुष्ट मित्रों को भी,, 😊😊
लंगोटिये और पतलून वाले मित्रों को भी,,
पास पास और दूर दराज के मित्रों को भी,,
दिलकश और जांनिसार मित्रों को भी,,
दिल से जुड़े और जबरदस्ती वाले मित्रों को भी,,☺️☺️
स्नेहिल और घोर नफरत करने वाले मित्रों को भी,,
फूल बरसाने वाले और बात बात पर काट खाने वाले मित्रों को भी,,☺️☺️
फॉलो करने वाले और ब्लॉक करने वाले मित्रों को भी
बार बार रिकवेस्ट भेजने वाले और बात बात पर अनफ्रेंड करने की धमकी देने वाले मित्रों को भी 😊😊
देर रात की गुड नाईट वाले और ब्रह्म मुहूर्त की गुडमार्निंग वाले मित्रों को भी
उटपटांग सी सेल्फी खींचने वाले और 1.5 मेगापिक्सल के कैमरे से खिंची भुतहा पिक लगाने वाले मित्रों को भी ,
फ्रेंड रिकवेस्ट पेंडिंग रखने वाले और फ्रेंड लिस्ट में से छांट छांट कर महिला मित्रों को रिकवेस्ट भेजने वाले मित्रों को भी,,
हर सामाजिक आर्थिक और प्राकृतिक धार्मिक सरोकारों पर स्त्री विमर्श के नाम पर पुरुषों को पानी पी पी कर कोसने वाले मित्रों को भी ☺️
किसी किसी मेसेज का दो दो महीने बाद जवाब देने वाले मित्रों को भी 😢
मेरी रचनाओं को दो दो बार पूरा पढ़ कर भी बिना लाइक कमेंट किये निकल जाने वाले मित्रों को भी ☺️
उसकी पोस्ट पे कमेंट क्यों मेरी पोस्ट पे क्यों नही का उलाहना देने वाले मित्रों को भी 😊😊
हमेशा जन्मदिन सालगिरह याद रखने वाले और सबसे पहले बधाई देने वाले मित्रों को भी
मित्र सूची में न होने पर भी हमेशा स्नेहिल शुभकामनाएं देने वाले मित्रों के मित्रों को भी
गाहे बगाहे पोक करके खुश होने वाले मित्रों को भी
कुछ भी कह देने पर भी नाराज न होने वाले बुरा न मानने वाले मित्रों को भी
हमेशा स्नेह आशीर्वाद और मंगलकामना करने वाले मित्रों को भी
मित्रता दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं बधाई आपका बहुत शुक्रिया मित्र होने के लिए ये स्नेहबन्धन बनाये रखियेगा ताउम्र 😊

दीवारों से बचना

झुकी हों ग़र तो मीनारों से बचना !
दरारें हों तो ...दीवारों से बचना !!

कहीं का भी नहीं, छोड़ेंगे तुझको !
हमेशा इश्क के, मारों से बचना !!

सुनो ख्वाहिश भी जान लेती हैं !
सुबह के टूटते.. तारों से बचना !!
 

सियासत का, मिजाज़ बदला हैं !
शहर में गूंजते, नारों से बचना !!
 

तुम्हारी जान ले लेंगे किसी दिन !
मुहब्बत में अदाकारों से बचना !!

कृष्ण जन्म

भादो की वो अष्टमी थी,
.......मथुरा भी सहमी थी ।
..............जमना उफ़ान पे थी,
.................कोई आने वाला था ।।
अर्ध रात्रि गई बीत ,
.......प्रहरी थे भय भीत ।
..........कोई रोक नही पाया,
..............खुला जब ताला था ।।
बरखा धमक रही,
....बिजुरी चमक रही ।
.......देवकी के लाल का तो
.................देव रखवाला था ।।
सूप धर सर पर,
....वासुदेव चले घर ।
........शेष जी दुलार रहे,
.............ऐसा भोला भाला था।।

माखन दधि पला था,
...यशोदा का लाड़ला था ।
..........मन का था उजला वो,
..............तन का वो काला था ।।

ब्रज का दुलारा था वो,
...अखियों का तारा था वो ।
.............मोहिनी सी छवि पर,
.................देखने में ग्वाला था ।।

राधारानी का वो श्याम,
....मीरा का भी घनश्याम ।
............माखन चुराने वाला,
….............गोकुल का लाला था ।।

चित चोर था वो माना,
....कृष्ण कहो चाहे कान्हां।
............ज़ाया देवकी का पर
..................यशोदा ने पाला था ।।

हरीश भट्ट

देर तक बजती रही शहनाइयाँ

वो तुम्हारे हुस्न की, रानाइयाँ ।।
और ये जां सोखता, अंगड़ाइयाँ ।।

साथ में तुम चल सको, तो चलो ।
हैं खड़ी हर मोड़ पर, तन्हाईयाँ।।

इस कदर तन्हां रहा हूँ, रात में ।
दिन में मेरे साथ थी, परछाइयाँ ।।

मैँ किनारे पे खड़ा, तकता रहा ।
उनकी आँखों में रही, गहराइयाँ ।।

दोस्तों से दूर हो, जाओगे तुम ।
इतनी भी अच्छी नही, ऊँचाइयाँ ।।

ये तुम्हारे इश्क़ का, ईनाम था ।
हर कदम पर मिली, रुसवाईयाँ ।।

जब तुम्हारी याद दुल्हन सी सजी ।
देर तक बजती रही,, शहनाइयाँ ।।

हरीश भट्ट

तुम्हें एक गज़ल चाहता हूँ सुनाना

सुनो अब चलेगा,.. न कोई बहाना ।
कहानी न कोई, ..न कोई फ़साना ।।

बहुत दूर तक साथ..... देता नही हैं ।
बहुत बेवफा हैं, ये जालिम जमाना ।।

पुराना शज़र कट गया, साल पहले ।
चलो और ढूढे, .नया अब ठिकाना ।।

मिरी जान ले जाएगा, ये किसी दिन ।
नजर को झुका कर, तेरा मुस्कुराना ।।

कई दिन से गुम हैं, तुम्हारी हसीं भी ।
तुम्हें हो पता तो, ...मुझे भी बताना ।।

मुझे याद हैं आज भी, ..वो तुम्हारा ।
बहाने बना कर, मिरी छत पे आना ।।

ज़रा पास बैठो, ...ज़रा मुस्कुराओ ।
तुम्हें इक ग़ज़ल, चाहता हूँ सुनाना ।।

हरीश भट्ट

तरही गजल -की हसरत रोशनी की

की हसरत रौशनी की जेर-ए-लब, पर न रह जाये !
अँधेरे में किसी का भी कोई अब, घर न रह जाये !!

अगर हो हौंसला तुममे तो खंजर तान लो अब तुम !
की गर्दन पर किसी दुश्मन का कोई सर न रह जाये !!

अकेले ही सफ़र करना, ग़मों का कारवां हर दिन !
किसी भी मोड़ पर तन्हा मगर, रहबर न रह जाये !!

भले ही खुदपरस्ती में, कहीं आगे निकलना तुम !
मगर ये सोचना हमसे कोई, कमतर न रह जाये !!

चली आओ समां जाओ, मेरी सांसों में कुछ ऐसे !
की तुमसे दूर हो जाने का कोई, डर न रह जाये !!

भले हो चाँद पूनम का, अमावास रात हो काली !
दरिंदों के शहर में फिर कोई, दुख्तर न रह जाये !!

मेरी खुद्दरियों पर हँसने वालों... सोच लेना तुम !
तुम्हारी जिंदगी भी बेबसी,, बन कर न रह जाये !!

(दुख्तर-बेटी)

हरीश भट्ट

तरही गजल

अजीब बात हैं तुझमें, जो अलहदा ही लगे !
कसक के बात ये करना, तेरी अदा ही लगे !!

मिरे सवाल भी खामोश, हो चले हैं कहीं !
की हर जवाब पे तू और भी, जुदा ही लगे !!

यही दुआ हैं मुहब्बत में..... आरजू ये हैं !
गुदाज़ बाँहों में चेहरा खिला खिला ही लगे !!

ये कहके उसने भी दामन, छुड़ा लिया मुझसे !
तुम्हारा साथ मुझे अब तो बदमजा ही लगे !!

बढे दिनों से मिरे दिल में... झांकता हैं वो !
वो शख्श कौन हैं मुझको तो वो नया ही लगे !!

कई दिनों से नदारद हैं सुर्खियाँ दिल की !
चलो बहार में ढूंढें....... जरा पता ही लगे !!

अजीब शख्श हैं रोते हुए भी.... हसता हैं !
मैं चाहता हूँ ख़फ़ा हो तो वो, ख़फ़ा ही लगे !!

हरीश भट्ट

तरही गजल तेरे बिना ये जिंदगी

तेरे बिना ये जिंदगी भी इक सजा ही लगे !
मेरा वजूद भी मुझसे, तो कुुुछ जुदा ही लगे !!

बहुत गुरूर हैं मुझको, मगर ऐसा भी नहीं !
अगर झुकाऊँगा मैं सर, तो सर झुका ही लगे !!

ये ग़लतफ़हमी मेरे सर पे, ऐसी तारी हैं !
मैं एक कदम भी उठाऊं तो वो चला ही लगे !!

मेरा लहजा भी ज़रा तल्ख़, हुआ जाता हैं !
चलो की मुझको ज़माने की कुछ हवा ही लगे !!

वो हमेशा ही तक्कलुफ़ में, मुस्कुराया हैं !
मैं चाहता हूँ ख़फ़ा हो तो वो, ख़फ़ा ही लगे !!

ये किस मकाम पे ले आई जिंदगी मुझको !
न तो दुआ ही लगे हैं न, अब दवा ही लगे !!

न कुछ जुनून हैं दिल में, न आँख में पानी !
हर एक सख्श तेरे शहर का,, मरा ही लगे !!

हरीश भट्ट

तरही गजल

न वो जला ही लगे हैं, न वो बुझा ही लगे !
अजीब पेड़ हैं पतझड़, में भी हरा ही लगे !!

तेरे शहर से चला हूँ तो, बेवज़ह भी नहीं !
तेरे शहर की फजां में ज़हर भरा ही लगे !!

तेरी ख़ुशी के लिए रोज,, मांगता हूँ दुआ !
ये और बात हैं तुझको वो, बद्दुआ ही लगे !!

वो रात भर था मेरे साथ, इश्क में शामिल !
सुबह को ऐसे वो बदला की, दूसरा ही लगे !!

मैं उसको राम कहूं, और तुम कहो रहमान !
किसी नजर से भी देखो, खुदा खुदा ही लगे !!

मुझे चेहरों के बदलने से, सख्त नफरत हैं !
मैं चाहता हूँ ख़फ़ा हो तो वो, ख़फ़ा ही लगे !!

मेरा हर दर्द मेरे अशआर में, मिलेगा तुम्हें !
ये लाज़मी तो नहीं हर जख्म भी हरा ही लगे !

मैं इस अंजाम पर अब खुद को रोक लेता हूँ​ !​
न जाने कब तुझे किस बात का बुरा ही लगे ​!!

हरीश भट्ट ​

लघु कथा

लधु कथा
विषय -अनकहा सा कुछ
.
☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆
"माँ में ऑफिस को निकल रही हूँ बाय....
सरिता ने बैग में जरूरी फाइल्स रक्खी और कंधे से टांगते हुए रसोई में खड़ी माँ से कहती हुए ओफ्फिस के लिए निकल पड़ी
सरिता...अपनी नॉकरी के लिए बहुत स्ट्रिक्ट थी पिता के जाने के बाद उसकी ही नॉकरी से घर चल रहा था वरना माँ की बीमारी घरखर्च बहन की पढ़ाई सब कैसे होता इन सब में कब उसकी शादी की उम्र निकल गई उसे पता ही न चला
"रुक तो सरु नाश्ता तो करती जा ले लगा दिया हैं टेबल पर..माँ ने पीछे से आवाज लगते हुए कहा
नही माँ देर हो जाएगी बस एक घूंट दूध दे दो एक ब्रेड का पीस उठाते हुए कहा था सरिता ने
"बात तो सुन आज शाम पांडे जी का परिवार आ रहा हैं घर पर तुझे देखने मैँ सब तैयारी करके रखूंगी बस तू 6 बजे तक आ जाना माँ ने हुलसते हुए कहा"
"माँ कितनी बार तो कहा हैं ये देखने दिखाने का प्रोग्राम मत बनाया करो मेरे पीछे मुझे अभी शादी नही करनी हैं"
सरिता ने मुह बनाते हुए कहा
"देख सरु अभी अभी नही के चक्कर में कई अच्छे रिश्ते हाथ से निकल गए भादों से तुझे 28वां लग गया हैं अब और कितना रुकेगी तेरे पीछे तरु भी बैठी हैं अभी तक"
""माँ यार तुम अब शुरू मत हो जाना अभी दिसंबर तक तो नही दिसंबर में प्रोमोशन डिउ हैं और मुझे यकीन हैं हल्द्वानी ब्रांच ऑफिस शुरू होते ही मुझे ही ब्रांच मैनेजर बना कर भेजा जाएगा प्लीज उन्हें मना कर देना आज तो नही हो पायेगा आज प्रेजेंटेशन भी हैं ""
""सरु सुन तो देख मेरा कोई भरोसा नही कब ऊपर का बुलावा आया जाए अपने सामने तुम दोनों बहनों का संसार बसता देख लू बस ...मान ले बेटा"
मां वैसे भी मेरी शादी की इच्छा नही जब उम्र थी तब जिम्मेदारी का बोझ था अब मन ही नही करता सरिता ने माँ का कंधा पकड़ते हुए कहा छोड़ ये रोज रोज की बात"
"सरु ऐसा मतबोल ऐसा भी नही की तरु की कर दें ब्राह्मण परिवार की बड़ी लड़की बिनब्याही राह जाए तो कैसे छोटी की हो"
"रहने दो माँ ईसे किसी की फिक्र नही ईसे तो बस अपनी नॉकरी प्यारी हैं ये न खुद करेगी न किसी की होने देगी" अंदर से तरु झुंझलाते हुए बोली थी
झक्क सा पढ़ गया था सरिता का चेहरा.. बहन का उलाहना सीधे दिल पर लगा
"ठीक हैं तरु में तैयार हूं बस इतना बता दो मेरे जाने के बाद माँ की दवाई घर का किराया तेरे खर्चे कहाँ से आएंगे ... मैने भी तो तुझसे कहा था मेरे ऑफिस में स्टेनो की नॉकरी हैं कर ले पर तुझे तब एमबीए करना था आज तेरी नॉकरी होती तो कर लेती मैं शादी" और बहन में तेरी शादी में रुकावट बनू ऐसा तो सोच भी नही सकती मैं"
"माँ किस लड़की का सपना नही होता कि वो शादी कर के अपना संसार बसाए पर माँ आपने ही कहा था न बाबू जी के जाने के बाद कि सरु अब तू ही हैं बाबू की जगह
बोलो माँ मेरे लिए शादी जरूरी हैं या जीना
भारी होती आवाज और आंखों में तैरते पानी को छुपाती हुए सरिता बस स्टैंड की तरफ निकल चुकी थी
तरु माँ की भर आईं आंखें देख रही थी कितना कुछ तो कह दिया था फिर भी कुछ तो अनकहा रह गया था सरु कि बातों में
हरीश भट्ट

लघु कथा

लधु कथा
विषय -अनकहा सा कुछ.
☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆
रोहन ने मोबाइल को ऐसे देखा जैसे कोई दुश्मन हो... हद हैं सुबह से उसकी प्रोफ़ाइल पर लगातार नोटिफिकेशन आ रहे थे पर ...पर जिसका इन्तजार था उसका अभी तक भी नहीं परसो शाम से न तो शीतल ने उसे कोई मेस्सेज किया था न उसकी प्रोफ़ाइल पर ही आई थी
रोहन ने शीतल की प्रोफाइल चेक की ...नहीं अभी तक तो हैं प्रोफाइल में उनफ़्रेंड भी नहीं किया फिर उसका मैसेज क्यों नहीं...परसो से अब तक एक भी नही.... ऐसा तो कभी नही हुआ
तीन साल हो गए थे रोहन और शीतल को इस आभासी दुनिया में बिना इक दुसरे को जाने बिना देखें इक ऐसा अनकहा अनबूझा रिश्ता हो गया था दोनों के बीच की जब तक एक दुसरे को मेस्सेज न कर लें सांस नहीं आती थी... सुबह की गुड मोर्निंग हो... या रात की गुड नाईट दिन भर क्या खाया.. क्या पिया ...क्या पहना... कहाँ हो ...कैसी लग रही हूँ ...मिस कर रही हूँ कब मिलोगे ...इन्हीं सब में बीत जाता था
फिर ऐसा क्या हुआ की कल शाम से कोई तवज्जो ही नहीं
परसो शाम तो मेसेज किया था उसे ...रोहन ने मेसेजर ओन किया आखरी मेसेज शीतल का ही था....."ओके जब घर आ जाओ मेसेज कर देना बाय टेक केयर स्वीट ड्रीम्स लव यु डियर ""

रोहन परसो दोपहर से हॉस्पिटल में ही था डेंगू हुआ था उसे लगातार बिगड़ती हालत ने उसे भर्ती करवा ही दिया ...कमजोरी इतनी की टॉयलेट तक जाना मुश्किल शायद बैड पर ही करवाया था रीमा ने ..ओह रीमा से तो मिलवाना ही भूल गया ...रीमा उसकी पत्नी थी
पूरी रात रीमा उसके सरहाने बैठी रही रात अपने हाथ से खाना खिलाया दो बार तो कपड़े भी उसी ने बदले उल्टी के कारण ....रात पता नही कब तक तो सर पर ठंडी पट्टियां रखने में बीती याद नही उसे... हाँ परसो शाम जब रीमा दो मिनट के लिए दवाई लेने नीचे मेडिकल स्टोर पर गई तब मेसेज किया था उसने शीतल को की वह हॉस्पिटल में हैं प्लेटलेट्स 30000 आ चुके हैं कमजोरी बहुत हैं पता नही क्या होगा
साथ ही यह भी लिख दिया था की रीमा मेरे साथ ही हैं मेसेज देख के करना जरा
और फिर डेटा कनेक्शन आफ कर दिया था मेसेज डिलीट करके तब से कल का दिन तो उसे होश ही नही था और आज अभी तक तो कोई मेसेज नही शीतल का
तभी रीमा आ गई शायद चाय नाश्ता लाने गई थी
"उठ गए आप लीजिये चाय पी लीजिये"
"और सुनो आज की रिपोर्ट ठीक हैं प्लेटलेट्स बढ़ रहे हैं ठीक हो जाओगे आप मैने माँ भगवती से मन्नत मांगी थी जब आप ठीक हो जाओगे तो हम चलेंगे चुन्नी चढ़ाने"
मुस्कुरा दिया था रोहन
लाइये मोबाइल मुझे दीजिये में पढ़ के सुना देती हूँ आपके मेसेज अरे ...आप तो सारा दिन मोबाइल पे रहते थे किसी ने पूछा नही मेसेज में की कैसी तबियत हैं कहाँ गई आपकी वो गर्ल फ्रेंड्स जो रोज मेसेज करती थी सुबह शाम.... रीमा ने विजयी भाव से मुस्कुरा कर रोहन की तरफ देखा था
और रोहन को उसकी आँखों में बहुत कुछ दिखा था कहा अनकहा सा ....उसे शीतल का मैसेज याद आ गया ओके मेसेज कर देना जब घर आ जाओ टेक केयर लव यू .....
उसने रीमा का हाथ कस के पकड़ लिया और भर्राये गले से कहा ....नही रीमा मेरी सच्ची गर्लफ्रेंड तो तुम हो
सिर्फ तुम
रिश्तों की परिभाषा समझ गया था वह शायद
हरीश भट्ट

मिसरा -ए-तरह- "ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ"



दाग दामन में लगे हैं की मिटा भी न सकूँ !
और उसपे सितम ये की दिखा भी न सकूँ !!

ऐसे रूठा हैं वो मुझसे की, मना भी न सकूँ !
ढूँढने उसको चला हूँ, जिसे पा भी न सकूँ !!

जब्त ने इश्क में बहरहाल,, मुझे रोका हैं !
हाल-ए-दिल अपना मैं, सुना भी न सकूं !!

कुछ तो तूने भी दिल से, पुकारा नहीं होगा !
वर्ना ऐसा भी नहीं था की में आ भी न सकूं !!

मैंने पहलू में उसे सीने से, लगा रक्खा था !
वो भी सोया था ऐसे की, जगा भी न सकूँ !!

तेरे ही इश्क के इलज़ाम,, बहुत थे वरना !
वर्ना ऐसा भी नहीं सर को उठा भी न सकूँ !!

हरीश भट्ट

जब तुम होते हो साथ

सुनो
जब तुम
होते हो साथ
ये आकाश
क़दमों के नीचे लगता हैं
दूर तक पसरा हो जैसे
सुरमई नीलिमा लिए
उन्मुक्त सागर
आतुर हो जैसे
छूने को
तलवों को मेरे

संभावनाओं का विस्तार
अनंत को
पा ही लेता हैं
समय का बंधन
न किसी पल की
व्यस्तता
एकाकार हो जैसे
इस श्रृष्टि से
और उस के
प्रतिबंधों से
आजाद होने को मेरे
तुम्हारा यूं होना
ऐसे ही सुखद हैं
जैसे बारिश के बाद
की सुनहरी धूप
जैसे सुबह की
मखमली ओस
जैसे दूज की
चांदनी की चंचल फुहार
तुम्हारी खुशबू से
ओत प्रोत
ये कमसिन हवाएं
छूनेको आतुर
हो जैसे
रक्तिम गालों को मेरे
सुनो
रहोगे न ऐसे ही
साथ मेरे '
चाहे आकाश पैरों तले हो
या की विसंगतियों
सा सर पर
सपनीला सागर हो
या की तपती रेत सा
मरुस्थल
मुझे और
कुछ नहीं चाहिए
तुम्हारे पास होने का
एहसास ही बहुत हैं
साँस लेने के लिए
ताजिंदगी ...!!!!
हरीश भट्ट

यूं तो वो मेरी टीचर थी

यूं तो वो मेरी टीचर थी
काटन की ग्रे शेड की साड़ी
और फिरोजी रूमाल
उन्हें पसंद था शायद
मुझे भी
सुबह की अटेंडेंस
और उनकी मुस्कराहट में
'यस मेम' कहना
भूल जाता था कई बार
मैं उनका फेवरेट स्टूडेंट था
और पूरे स्कूल में मेरी
वो सबसे फेवरेट थी
यूं तो वो मेरी टीचर थी
.
कापी घर भूल आने पर भी
कभी कुछ कहती न थी
मेरे छुट्टी के झूठे बहानों पर
वो बस
चश्में के पीछे से देख कर
मुस्कुरा देती थी
वैसे कोई नया बहाना
नहीं होता था मेरे पास
पूछती वो मगर अक्सर थी
यूं तो वो मेरी टीचर थी
.
कई बार लगा की
मेरी टेस्ट कापी पर
कुछ नंबर
यूं ही मिल गए मुझे
वैरी गुड और एक्सीलेंट
सबसे जियादा
मिला करते थे मुझे
उनके पढ़ने का अंदाज
सबसे जुदा था
अपनी यूनिवर्सिटी की
वो टापर थी
यूं तो वो मेरी टीचर थी
.
मैंने कभी
उन्हें नाराज नहीं देखा
आँखें बदलने का
अंदाज नहीं देखा
मुश्किल सवालों का हल
कभी मुझसे नहीं पूछा होगा
हालाँकि
होमवर्क पूरा न करने पर
डांटती वो मुझे
जी भर थी
यूं तो वो मेरी टीचर थी
.
किताबों के अलावा भी
चेहरे पढना
सिखाया था उन्होंने
धैर्य स्नेह विश्वास का
दीपक भी
जलाया था उन्होंने
व्यावहारिकता क्या होती हैं
यूं ही तो बताया था उन्होंने
रिसेस तक
मुरझा जाते थे हम
तरोताजा वो मगर
दिन भर थीं
यूं तो वो मेरी टीचर थी

हरीश भट्ट

याद हैं तुम्हें ....

सुनो
याद हैं तुम्हें
उस चट्टान का
वो स्वप्निल सा छोर
न जाने कितने पल
साथ गुजरे थे हमने
याद हैं तुम्हें

तुम हमेशा
एक हाथ के फासले पे
बैठते थे
वो पहली बार
जब हम बैठे थे
उस दिन
सामने देखते हुए
क्या कुछ नहीं कहा था
तुमने न
मैंने तब, बस
कनखियों से देखा था
तुम्हें इतने करीब
तुमने तो
देखा भी नहीं
याद हैं
तुमने उकेर दिया था
मेरा नाम
उस किनारे पर
कितनी शिद्दत से
तुम्हारी बनाई पेंटिंग हो
या पहली कविता
यही तो सुनाई थी
तुमने मुझे
और में सोचती थी
की कब
ढाल लिया तुमने
कविता में
और स्वयं में
मुझे
सुनो
क्या कहते थे तुम
लवर्स पॉइंट न
हसीं आती हैं आज भी
जब तुम कहते थे
पाकीजा का वो डाइलोग
"ये पैर
जमीन पे मत रखना
मैले हो जायेंगे"
सच में
प्रेम था न तुम्हें
बेइंतेहा मुझसे
और उस जगह से भी
कितना तो शरमाते थे तुम
मुझसे भी जियादा
सब कुछ तो
कहते थे तुम
काश की कहा होता
तुमने
वह
जो मैं
हमेशा सुनना चाहती थी
हमेशा
पर...
आज में वहीँ हूँ
उसी जगह
उसी छोर पे
जहाँ बैठते थे
तुम और में
वो एक हाथ का फासला
अब
सदियों का हो चला हैं
अंतहीन सा
तुम कभी
लौटे होंगे शायद
कभी तो आये होंगे
और बैठे होंगे
इसी जगह पर
जहाँ बैठते थे कभी
हम अपने
सपनों के पंख फैलाये
आकाश छूने की
लालसा में
मेरा नाम
अब मिट सा गया हैं
तुम्हारी आस की तरह
वक्त की धुंध
गहरा गई हैं
उस पर
इन्तजार हैं मगर
उस छोर को
लौटने का तुम्हारा
तुम आओगे न
किसी दिन
बोलो ....!!!
हरीश भट्ट

अमृता को याद करते हुए

अमृता को याद करते हुए
इमरोज का ख़त जो कभी पोस्ट नहीं हुआ शायद कुछ ऐसा होगा .....

अमृता,
कल तुम्हारे जिस्म से
रात का एक लम्हा
टूट कर
गिर गया था शायद
सुबह ओस से भीगा
सहला गया मुझे
कतरा कतरा
जिस पर लिखा था
एक नाम
बेतहाशा ही
पूरी शिद्दत से
जो मेरा नहीं था
फिर भी हर शाम
ओड़ लेता हूँ में तुम्हें
गुलमोहर की तरह
.
मैं साहिर नहीं
न ही माहिर हूँ
शब्दों से खेलने में
बस खामोश
लफ्जों का हमसफ़र
सुलगते हुए जज्बातों को
एश ट्रे में मसल लेता हूँ
सिगरेट की तरह
अनदेखा कर देता हूँ
तुम्हारी उकताहट को
और अपनी कैफियत को
.
तुम्हारी यादों की सीलन
मेरे पूरे बदन पर हैं
पास होते हुए भी
तुम्हारे सांसों की धूप
पिघला नहीं पाती इसे
मेरे हिस्से में
तुम्हारे होंठों की
गर्माहट नहीं शायद
.
तुम मेरे साथ रहती हो
पर किसी और के साये में
आँखों की कोर
रेतीली सी हो गई हैं
सोख लेती हैं हर नमी
तुम्हारे इत्र की हैं
या तुम्हारे बदन की
खुशबू
महकाती बहुत हैं
सरे शाम ही
कैद रक्खा करो इन्हें
.
सुनो
कंपकपाते लम्हों को
एकतरफा कर दो
मेरे हिस्से की सिसकियाँ
मेरे सरहाने रख दो
किसी शिकश्ता साज़ की तरह
बजने दो
नेपथ्य में कहीं
मैं उतर जाना चाहता हूँ
तुम्हारे अक्स के शीशे में
अनछुए ही
अनकहे ही
.
बस इतना कह दो
इमरोज
ये जिस्म भले न हो
रूह पर मगर
तुम्हारा हक हैं
सिर्फ तुम्हारा
साहिर होना
बाकमाल होगा
पर इमरोज होना भी
बेकमाल नहीं
.
(हरीश भट्ट

विधाता छंद

विधाता छंद ...

कभी तो पास बैठो तुम,, कभी तो मुस्कुराओ तुम !
जिसे अपना समझ लू मैं, कभी वो गीत गाओ तुम !!
मुझे तुमसे मुहब्बत हैं, .....तुम्हें भी हैं यकीनन ही !
ज़रा कांधे प् सर रख दो, ..ज़रा नजरें मिलाओ तुम !!

हरीश भट्ट

द्वितीय प्रयास

किनारों को नहीं मिलना, लिखा था मिल न पाये हम !
कदम दो चार भी हमदम, सहज ही चल न पाये हम !!
तिमिर था दूर तक पसरा, ....उजाले साथ थे लेकिन !
हवाएं तेज थी इतनी, .....दिये सा जल न पाये हम !!
हरीश भट्ट

तरही मिसरा-- नज़र को झुका कर तेरा मुस्कुराना।

122 122 122 122
तरही मिसरा--
नज़र को झुका कर तेरा मुस्कुराना।

सुनो अब चलेगा,.. न कोई बहाना ।
कहानी न कोई, ..न कोई फ़साना ।।

बहुत दूर तक साथ..... देता नही हैं ।
बहुत बेवफा हैं, ये जालिम जमाना ।।

पुराना शज़र कट गया, साल पहले ।
चलो और ढूढे, .नया अब ठिकाना ।।

तुम्ही जब चले आए महफ़िल से उठकर ।
तभी में भी निकला खिरामा खिरामा ।।

मिरी जान ले जाएगा, ये किसी दिन ।
नजर को झुका कर, तेरा मुस्कुराना ।।

कई दिन से गुम हैं, तुम्हारी हसीं भी ।
तुम्हें हो पता तो, ...मुझे भी बताना ।।

मुझे याद हैं आज भी, ..वो तुम्हारा ।
बहाने बना कर, मिरी छत पे आना ।।

ज़रा पास बैठो, ...ज़रा मुस्कुराओ ।
तुम्हें इक ग़ज़ल, चाहता हूँ सुनाना ।।

हरीश भट्ट

लघु - कथा

रूम न. 8 का पेशेंट...
अचानक आंख खुली थी शायद या नींद ही नही आई थी बस चेतना लौटी थी पता नही
कमरे में नाइट बल्ब का पीलापन था तो पता चला रात हैं शायद ....साइड में लगी मशीन लगातार बीप कर रही थी इसीसे पता चल रहा था की दिल धड़क रहा हैं यानी आदमी जिंदा हैं... हल्की सी ठंडक हो चली हैं ...बाहर अंदर पूरी तरह सन्नाटा... पिछले कुछ दिनों से नाम तो जैसे गुम सा गया हैं रह गया हैं तो बस "रूम न. 8 का पेशेंट"... दवाइयों का कैसेलापन साँसों में भभक रहा हैं
जिस्म महसूस नही हो रहा...एक हाथ सूज गया हैं लगातार चल रहे आई वी की निडल से
बैठने का मन था पर उठने की हिम्मत नही थी पहली बार महसूस हो रहा था कि अपना शरीर इतना भारी भी होता हैं कि हाथ भी न उठा सकें...
मौत का एक दिन मुअय्यन हैं
नींद क्यों रात भर नही आती
ग़ालिब की ये चिंता बेवजह नही रही होगी
उठने की कोशिश में बेड चरमराया तो पास लेटे बेटे की आंख खुल गई कच्ची नींद में होगा या फिर खटका होगा तभी उठ गया
पापा क्या हुआ आप लेटे रहिए ...बेटा कितने बजे हैं बांकी लोग कहाँ हैं जरा सा ये बेड का सरहाना उठा दे थोड़ी देर बैठूंगा मैंने कोशिश करके कहा
बेटे ने बेड को जैक लगा कर उठा दिया फिर मोबाइल में टाइम देख के बताया 12:30 बजे हैं और सब लोग घर गए हैं आज छोटी दीवाली हैं न पूजा का सामान वगैरा खरीदना था
दीवाली ...इतनी जल्दी ..अभी कल तो करवा चौथ थी
याद करने की कोशिश में सोचा मैने ...
तू नही गया पटाखे लेने...यूँहीं ही पूछ लिया मैंने
नही ...मन नही हैं रोशनी के लिए लड़ियाँ लगा दी थी सुबह ..आंख भर देखा था मैंने उसे मन नही के जवाब पर
पर दुनियादारी तो निभानी ही हैं साल भर की दीवाली जो हैं हॉस्पिटल का क्या हैं वो तो आना जाना सा हो गया हैं
मेरा मोबाइल कहाँ हैं ..दे तो जरा
यही हैं पापा मेरे पास पर आप आराम करो मम्मी ने कहा हैं में काल अटेंड कर लूंगा ....आपके ऑफिस के सभी काल में ही अटेंड कर लेता हूँ
दिखा तो जरा ...मम्मी को मत बताना..वैसे भी नीद नही आ रही कोई इम्पोर्टेन्ट मेल या मेसेज तो नही था बेटे से मोबाइल लेते हुए कहा मैंने
काल लॉग और मैसेज देखे पिछले कई दिन के मैसेज नोटिफिकेशन मेल्स भरा बैठा था मोबाइल जैसे
धनतेरस दीवाली के शुभकामना संदेश ऐसे ही तो भेजता रह हूँ मैँ भी बिना जाने की पढ़ा गया या नही अच्छा सा लगा कि कुछ लोग के होने न होने से फ़र्क़ पड़ता हैं शायद
पापा कल दीवाली हैं सुबह डाक्टर ने कहा हैं घर जाना चाहो तो जा सकते हैं चलोगे क्या
घर ...पीली रोशनी में भी उसकी आँखों में चमक थी उसी से पता चला कि कई दिन हो गए शायद घर से अलग
पापा ...आप सो जाओ न
तू सो जा बेटा मुझे नींद आएगी तो सो जाऊंगा
जब तक आंख खुली हैं जीने का भरम हैं वरना तो क्या पता आंख खुले ही नही
ठंडक गहराती रात के साथ बढ़ गई हैं चेतना पूरी तरह से लौट चुकी हैं तभी याद आ रही हैं सब बातें
हां कल घर चले जायेंगे दीवाली जो हैं फिर न जाने कब आये न आये
बेटे को नींद आ गई थी शायद इत्मीनान हो चला था उसे इसलिए नींद भी गहरा गई थी उसकी
...हरीश ...

Monday, July 10, 2017

माहिया

शुभ संध्या दोस्तों
...माहिया छंद ...

उस पार खड़ी थी वो,-2
......सोणी लगती थी
कम-उम्र बड़ी थी वो ।।

दरिया ये बहता हैं ,-2
.......दूर किनारे हैं
बस इतना कहता हैं ।।

मिलने की जल्दी हैं, -2
.....कब तक आओगे
अब जान निकलती हैं ।।

कहती शहनाई हैं,-2
....प्रीत न करना तू
ये पीर पराई हैं ।।

इश्के दी रुत आई,-2
.....नाल परांदे दे
गुत तेरी लहराई ।।

अम्बियों के गुच्छे हैं,-2
.....तोड़ न देना तू
अभी उम्र में कच्चे हैं ।।

तुझ बिन सब रीत गया,-2
....कब तक याद करें
जीवन तो बीत गया ।।

दुनिया थी बाहों में,-2
.....यार गवां बैठे
हम इश्क़ की राहों में ।।

....हरीश....

Thursday, July 6, 2017

नदी सी हो तुम न

नदी सी हो ना तुम

तुम
झरने सी थी न तुम
बेलाग -बेखौफ़- निर्झर
निष्कपट, निष्कलंक भी
छन्न से गिरा करती थी
तलैइयों में
शायद बचपन था तुम्हारा
और बचपना भी !

तुम्हारा उफ़ान बेजोर हैं अब
तोड़ देती हो कभी कभी
स्वयं के तटबंधों को
यौवन का विस्तार उश्रंखलित हैं
चिर यौवना नदी सी
लगने लगी हो
अब तुम !

विस्तार बड़ रहा हैं तुम्हारा
समवेत हैं अब
सब कुछ तुममे
विचलित नहीं होती हो
अब तुम बाह्य प्रतिबंधों से
गाम्भीर्य अनवरत हैं तुममे
निरंतरताओं में
कैसी स्थिरता हैं अब ये
दरियाह होने की
विडम्बना भी !

कल ,
विस्मृत हो जाओगी तुम
निराकार भी
तिरोहित होने को हो अब
खिलखिलाती चंचलता
मदमस्त उश्रंखलता
भरपूर यौवन
और सम्पूर्ण गाम्भीर्य के साथ
अनंत सागर के
आगोश में !!
नियति..यही होगी तुम्हारी !!
....हरीश....

यादें तुम्हीं ने कहा था

""यादें""....तुम्हीं ने कहा था न ...
यूं ही तो कहीं
मिल जाती हैं
भूली बिसरी सी यादें,
किसी तन्हां दराज
या किसी
पुराने ब्रीफकेस
की जेबों में,
कोई नॉवल
या कालेज की
किताबों में,
...कुछ पत्तियां
सूखे गुलाब की,
....कुछ पीत
अतीत के पन्ने,
..धुंधलाये से कुछ
ग्रीटिंग कार्डस,
...अधलिखा सा
गुलाबी लेटरहेड,
पहले पहले गिफ्ट का
"लव यूं" वाला रैपर,
..उखड़ी उखड़ी सी
ब्लैकनवाईट तस्वीरें,
..कालेज कैंटीन
की आंखरी बेंच पे
उकेरा हुआ
...कोई नाम,
चमक खोता
जर्किन जड़ा टाई पिन,
...टूटा हुआ
मैंचिंग कफ बटन,
प्रेस से जली
..चैक वाली
हाफ शर्ट,
नाम के अक्षर वाला
..की रिंग,
..खाली परफ्यूम की
दिलकश शीशी,
सलवटों मैं गुम
..फिरोजी सा रुमाल,
यूं ही तो कहीं
मिल जाती हैं
...यादें....!
तुम बताओ तो
..तुम्हें याद हैं..
तुम्हीं ने कहा था
""यादों की कोई..
........शक्ल नहीं होती !!

अधूरा चाँद

अधूरा "चाँद" हैं 
...उस पार 
और "हसरत" बड़ी हैं  
सुलगता आसमां  
....उस पर  
"सितारों" की  लड़ी हैं
वो मेरी "हमनफस" हैं 
....हमकदम   
मेरी "कमसिन" परी हैं    
बहुत मासूम  हैं 
...लेकिन 
मेरे रेशम के कुरते पे 
वो चांदी  सी  जरी हैं 

जरा सा ये 
.....कहा मैंने... 
की "सुरमई शाम" रोशन  हैं 
...जो दिल में  हैं 
वो मुझसे आज "कह दो"... 
सुनो उसकी 
....वो कहती हैं 
अगर मुझसे 
....."मोहब्बत" हैं 
मुझे वो चाँद "ला दो"... 

बताओ अब मेरे यारो 
....की क्या कह दूं 
यही मुश्किल बड़ी हैं 
....और इक "वो" हैं  
बहुत "जिद्दी" 
.....की तब से ही   
इसी जिद पे 
......अड़ी  हैं 
की गुस्से में खड़ी  हैं 

वट सावित्री व्रत

वट सावित्री 

सुनो  
ये जो सितारों जड़े  
आसमान को 
झिलमिल साडी बना 
ममत्व का 
प्रदीप्त दुप्पट्टा खींच  
कुमकुम की  
सिन्दूरी  आभा 
सजाई   हैं तुमने 
उन्नत ललाट पर 
सदा सुहागन सा ये 
मांग टीका   
अधरों तक बलखाती 
दूज का चाद सी 
तुम्हारी ये नथ
कर्ण फलकों को छूते 
कुंडल 
देव सुता सी तुम  
अवर्णनीय सी 
लगती हो  
मैं 
ये तो नहीं जनता 
की वजह  
निर्जल उपवास 
हैं या तुम्हारा अडिग 
 विश्वास 
ये भी नहीं की 
एक जन्म का हैं ये 
या जन्म जन्मान्तर का साथ 
पर वो चौथ  का चाँद 
आज फीका जरूर हैं 
इस पूनम के चाँद के आगे 
तुम्हारा विश्वास बहुत बड़ा हैं 
किसी भी उपवास 
या नियमबद्धता से 
कहने को तो 
उपवास 
मैंने भी तो रक्खा हैं 

माँ भी कभी बूढ़ी होती हैं

उम्र की देहरी पर 
दस्तक देती 
अनमनी साँझ की 
आंखमिचोली 
अधपके घुंघराले बाल 
बिंदी टीकोली 
क्या खूब 
फब्ती हैं तुम पर !   

आँखों मैं सजाये  
कुछ मखमली ख्वाब 
अस्मिता का बंधन 
हर्ष जनित अश्रु 
मुस्कान हसीं क्रंदन
मेरे ही इन्तजार में न !

देख लेना 
लौटा रहा हूँ खुद को  
पहुच ही जाऊंगा 
तुम्हारे हाथों की
लकीरों के
मिटने से पहले

एक बात कहूं   
चिरयौवना ही तो हो तुम 
सदैव ही 
हो भी क्यों न  
मां भी कभी 
बूढी होती हैं भला !! 
,,...हरीश भट्ट ,,,..

मुक्तक

दो पंक्तियाँ इस बदल पर ...

कभी नजरें नहीं बदली, कभी मंजर नहीं बदले !
रकीबों के उन हाथों में, कभी खंजर नहीं बदले !! 
जमाना तो बदलता ही रहा था, पहली फुर्सत में !
 तुम्हारे आसूंओ से भी ...मेरे बंज़र  नहीं बदले !!
 ...हरीश ..


मुफलिसी बेचारगी, जब से नुमाया हो गई 
मुख़्तसर  सी उम्र थी, वो भी जाया हो गई 
रोज ही बढ़ती गई चेहरे पे उनकी शोखिया
और मेरे हिस्से की उजली धूप साया हो गई