Saturday, January 29, 2011

न जाने कौन गुनाहों की सजा


बुजुर्गो में कई दिन से जो रोटी बाँट रहा हैं
न जाने कौन गुनाहों की सजा काट  रहा हैं

मुहअँधेरे ही चली आती हैं आवाजे पड़ोस से
वो बेक़सूर हैं उसको क्यों इतना डांट रहा हैं

तू आसमा हैं... सरपरस्त हैं... वफादारी का
वो दिलफरेब हैं फिरभी ये रिश्ता गांठ रहा हैं

वो जिसने उम्र गुजारी.... हर एक जनाजे में
कल से बिछड़े हुए बेटे की मिटटी छाँट  रहा हैं

बुझा दिया हैं जिन्हें...... जिस्त  के थपेड़ों ने
सुना हैं उनका भी बरसों ही बड़ा  ठाट रहा हैं 

ख्वाब सा बोने लगा हूँ


ख्वाब सा बोने लगा हूँ
बज्म में सोने लगा हूँ

दोस्तों की बेरुखी को
अश्कों से धोने लगा हूँ

दरमियाँ आये वो जबसे
में तो बस कोने लगा हूँ

अब तो पीछे से पुकारों
गुम शुदा होने लगा हूँ

तुमभी हस दो बेकसी पे
में तो अब रोने लगा हूँ

जिंदगी भर की कमाई
इश्क में.. खोने लगा हूँ





Wednesday, January 26, 2011

तुम्हे सोचता हूँ .....तो तुम


तुम्हे सोचता हूँ .....तो तुम
इक पहेली सी ....लगती हो
अंजान अजनबी  सी.. कभी
कभी सहेली सी ..लगती हो
इतराती हो ..कभी इठलाती
निश्छल.... बचपन की तरह
कभी मासूम सी दुल्हन कोई
नई नवेली सी.... लगती हो
तुम्हे सोचता हूँ.....

कभी किताब सा ..पढता हूँ
बंद आँखों से पूरी रात तुम्हे
कभी ये जिद की में ले जाऊं
बहला के अपने... साथ तुम्हे
कभी सवाल में.... मिलती हो
कभी किसी.... जवाब में तुम
न जाने कौन सी... कहनी थी
अनकही सी.. कोई बात तुम्हे
तुम भीड़ में तो  हो दोस्तों के
फिर भी अकेली सी लगती हो
तुम्हे सोचता हूँ....... तो तुम
इक पहेली सी ......लगती हो...

एक उलझन हैं तेरी जुल्फ सी
सुलझ जाये तो ....अच्छा हैं
इक फांस चुभी हैं.... सीने में
निकल  जाये तो... अच्छा हैं
कमनसीबी मेरा सबब ही  हैं
तेरा मुसलसल ... कसूर नहीं
कुछ अरमान  बर्फ के मानिंद
पिघल जाए तो .....अच्छा हैं
दूर तक बिखरा हूँ मिटटी सा
तुम सुर्ख हवेली सी लगती हो
तुम्हे सोचता हूँ...... तो तुम
इक पहेली सी .....लगती हो....



तुम सा कोई तो ..क्या होगा
खुश हूँ  मेरी..... पनाह में हो
मेरी हर रस्मो रिवायत में हो
मेरे हर हसीं  .....गुनाह में हो
ताजिंदगी यूहीं..... मेरी रहना
यूं भी लम्बा सफ़र नहीं अबतो
खुशियाँ कम ही रही मेरे हरसूं
उम्र जब कमतरी की राह  में हों
फिर भी मुहर्रम के शोग्वारों  में
तुम दिवाली सी ..... लगती हो
तुम्हे सोचता हूँ .........तो तुम
इक पहेली सी .......लगती हो
 

चलो तुम मेरा  यकीं कर लो
तो  में तुम्हे.. आस्मा कर लूं
चलो तुम समां जाओ मुझमे
तो में तुम्हे ....आइना कर लूं
अब नहीं वक़्त ये अदावत का
यूं ही झगड़े किया नहीं करते
चलो हाथ .....थाम कर मेरा
तो  तुम्हे ...हमसफ़र कर लूं
यूंभी कर्कश हैं साज़ जीवन का
तुम .....सुरीली सी लगती हो
तुम्हे सोचता हूँ ......तो तुम
इक पहेली .....सी लगती हो

Sunday, January 23, 2011

गणतंत्र दिवस पर .....



आज मेरे देश में ये..... हो रहा हैं क्लेश कैसा
बह रहा हैं खून ऐसे ........जैसे बहता पानी हैं
ओर डूबते हुओ को हम बचाए तो बचाए कैसे
आपने ही भाइयों की..... सारी कारिस्तानी हैं


दस दस करके............... साठ वर्ष बीत चुके 
यही इस गणतंत्र के..... विकास की कहानी हैं
भ्रष्टाचार बलात्कार ओर.... गोली की बौछार
यहाँ वोट सबका राजा हैं ओ नोट सबकी रानी हैं

लाल रंग खून का जो ....तेरा भी हैं मेरा भी हैं
काहे की फिर दुश्मनी ओर काहे बदगुमानी हैं
मरने वाले हिन्दू हैं न ......सिख न मुसल्मा हैं
ख़त्म  हो रही जो मेरे ........देश की जवानी हैं

मन में हैं राम ओर......... मन में रहीम यारो 
मंदिर ओर मस्जिद का... सवाल तो बेमानी हैं
कुर्सी जिनकी गीता हैं ओ कुर्सी हैं कुरान जिनका
ऐसे नेताओ की बांदी .......अपनी राजधानी हैं

बेच दोगे देश को तुम ....देश के ओ ठेकेदारों 
इज्जत बची थी बस .....वो भी बिक जानी हैं
बहनोंके आँचल बिके माँका आशीर्वाद बिका
ए मेरे भगवान........ अब तेरी बारी आनी हैं

पूछो उन पड़ोसियों से आग जो लगा रहे हैं
छुप के वार करना क्या वीरों की निशानी हैं
सामने मुकाबला वो.. करके आज देख ले ये
दम हैं कितना खून में ओर कितनी रवानी हैं


सोचो पहले देश हैं ओर फिर हैं परिवार अपना
न्याय ओर सत्य की ......डगर एक बनानी हैं
कम हैं प्रताप यहाँ ............. ज्यादा जयचंद 
इस देश से गद्दारों की ये जात भी मिटानी हैं


जल रहा हैं विश्व सारा युद्ध की विभीषिका से 
रोती हुई मानवता की ....लाज भी बचानी हैं
ओर भटके न रहबर....... कट जाये भले सर
प्रेम की एक शम्म...... हर दिल में जलानी हैं


शत शत प्रणाम उन्हें ..... देश पे कुर्बान हैं जो
उन की ही राह हमें...... मुक्ति मिल जानी हैं
ये न सोचो बाद ....किस हाल होगा देश मेरा
मुड़ के देखो यहाँ......... हर शीश बलिदानी हैं


आज की ये बात नहीं ..आज का रिवाज नहीं
बरसों से मेरे............. इस देश की कहानी हैं
देश हित में जो मरा...... सिख न मुसल्मा था
वीर था शहीद था... ...वो खून हिन्दुस्तानी हैं


देखो उन शहीदों की चिताओ  के निशा न मिटे
जान भले जाये.......... ये तो एक दिन जानी हैं   
ओ माँ के आसुओं के लिए बहनों के सिन्दूर हित
आज हमें देश हित............  कसम ये खानी हैं


की. मुझे ..इश्क हैं ..अपने वतन से यारों.... मैंने जनूने इश्क में ....ये फैसला किया
मिट जाऊ अगर देश पे तो माँ से कह देना तेरे बेटे ने तेरे दूध का ये हक अदा किया








Friday, January 14, 2011

स्त्री होने का सुख

दोस्तों आप सभी के मध्य सीमा जी की एक रचना रख रहा हूँ "स्त्री होने का सुख" सीमा जी जो  मेरी मित्र होने के साथ साथ मेरी धर्मपत्नी भी हैं 




स्त्री होने का सुख 

अपनत्व से स्रिजत्व की
परिणिता से मातृत्व की  
परिभाषाए स्वीकारते, स्वीकारते
देखती थी जब,
तो गर्व होता था
स्वयं के होने को
स्त्री का,

किंतु आज
जब मैं खोजती हूँ
हर स्त्री मैं
नैसेर्गिक सुंदरता
करुणा-शील-धेर्य का स्पंदन,
तो पाती हूँ
एक कृत्रिमता
निर्जीव सी तस्वीर नज़र आती हैं
अर्धनग्न ओर कुत्सित भी,
सोचती हूँ
समानता का अधिकार
पुरुष से मेरा संबल हैं
या मेरा विकार,
मैं तो श्रेष्ठा थी
दिग दिगान्तर से,
पूज्‍यनीय भी
पुरुष द्वारा ओर
समाज द्वारा भी,
ओर समानता का 
ये अधिकार भी कैसा
बस मैं सीट ओर टिकट  
प्राप्त करलेने भर जेसा,
शारीरिक हो केवल
बौद्धिक ना हो जैसे,

समानता तो तब हैं की
मैं बस स्टाप से अकेले
घर तक आ पाऊ
बिना किसी की
चुभती आँखो का सामना किए ,
जब मैं चुन सकु अपना सत्व
सामाजिकता की परिधि मैं,
चुनाव ही तो हैं
हे राम !!
सीता होने का दर्शन
तो तुमने मुझे दिया था
पर उर्मिला होने का धेर्य तो
मैने खुद ही चुना था,

ओर मेरे लिए तो
ये भी बहुत हैं
की वो कहें किसी दिन

प्रिय
आज तुम उनिग्ध सी हो
.
उठों मत
.
रहने दो !!!
.
लो ...
आज
चाय
मैने बनाई हैं ...........!!!!


Thursday, January 13, 2011

मैं पहाड़ लौट रहा था


उस दिन
मैं पहाड़ लौट रहा था
उस बस में बेठे बेठे
मुझे वो पहाड़ी रास्ता
कई साल पीछे ले जाता रहा
बहुत पीछे
सीढ़ीदार  खेतों
ओर अमरुद के बगीचों के बीच
ताल तलैय्यों
ओर बेरी के झुरमुट के बीच
सफ़र में
बिजली के खम्भों की तरह
एक एक पल उस उम्र का
मेरे सामने से गुजरता जा रहा था
उस दिन
में पहाड़ लौट रहा था
अधखिले प्याल के फूल की खुशबू
ओर लोक त्यौहारों की महक
मुझे महसूस होने लगी थी
मेहनतकश  लोगो के बदन से उठती
पसीने की गंध
बस की तरफ कौतुहल से तकती
किशोरवय लड़कियों की
निर्दोष हसी
अपरिचित होते हुए भी
अपनत्व से भरी उनकी बाते
सोच कर
कितना भाता हैं
की कही
में भी तो
उन्ही से जुड़ा हूँ
मेरे साथ बैठा मेरा दोस्त
शायद सो रहा था
उस दिन
में पहाड़ लौट रहा था
लेकिन
में हमेशा के लिए तो नहीं जा रहा था
या में जाना नहीं चाहता था
हमेशा के लिए
उन पहाड़ों ने
जो संस्कार ओर विरासत
सहेज कर रक्खी हैं
मेरे लिए
क्या उसे में ले पाउँगा
क्या इन पहाड़ों से
पलायन करके भी
में उस संस्कृति
उस  देव भूमि
का उत्तराधिकारी होने का
झूठा दंभ
पाले रक्ख सकूंगा
क्या कभी
स्वयं को
निर्दोष साबित कर पाऊंगा
क्या कभी
में सही मायने में
कभी वापस न जाने को
पहाड़
लौट पाउँगा
क्या कभी.....

Wednesday, January 12, 2011

ऑरकुट पर अंतिम दिन


ऑरकुट पर अंतिम दिन ...........कैसा दिन था वो मेरा ऑरकुट पे सोचता हूँ तो शर्मिंदगी सी होती हैं,
सोशल नेटवर्किंग की दुनिया पोशीदा दुनिया हैं एक ऐसा संसार हैं यहाँ जिसका ओर छोर नहीं चहरों के पीछे चेहरे हैं यहाँ सचाई कही दम तोड़ देती हैं इन छुपे हुए चहरों के पीछे
मेरी दुनिया नहीं थी ऑरकुट शायद कभी अपना न सका उस दुनिया को बहुतेरे पल समां गए उस मैं कुछ मित्र हुए कुछ मित्र जैसे लगे ओर कुछ से  अजनबी ही रहा कल्पना करना असंभव सा लगता हैं की लोग एक आवरण मैं जीते हैं यहाँ..... छद्मावरण  पहचानना मुश्किल ...बातों से लगेगा की शायद इस जहाँ मैं तुमसे बढ़ कर कोई हो ही नहीं सकता उसके लिए यहाँ लोग टुकड़ों मैं जीते हैं ....किश्तों मैं....सुबह कुछ ओर दोपहर कुछ ओर ..ओर रात होते होते ..समां ही बदल जाता हैं
यहाँ एक तश्नगी  सी हैं लबों पे हर एक के शायद उनका कसूर नहीं हमारी जीवन शैली ही इस प्रकार की होती जा रही हैं की दिन भर की भाग दौड़ मानसिक तनाव रिश्तों मैं बिखराव का असर इस दुनिया पर भी पड़ ही जाता हैं
पर ईमानदारी का आभाव ही देखा मैंने तो जैसे किसी ओट मैं छुप के कोई छोटा बच्चा डरा देता हैं अपने ही साथी को ...ईमानदारी...छु भी नहीं गयी हैं जैसे .........लोग न सूरत  मैं इमानदार  लगे न सीरत मैं ....धोखा तो जैसे मूल मैं हैं इसके
आप कहेंगे धोखा कैसा ........ये तो किस्मत की बात हैं आप सागर के किनारे खड़े हैं ज्वार आया न आया.........  आप न भीग पाए तो धोखा कैसा .....हहहहहहहाहा
पर अच्छे लोग भी हैं सीधे सपाट  न दुराव न छुपाव ऐसे की आश्चर्य हो  साहब ....की कौन देश से आए हो भाई......ऐसे क्यों हो आज की दुनिया मैं भी पर ऐसे ही लोगो की वजह से ये नेटवर्क चल भी रहा हैं विश्वास बढ़ता तो हैं पर घटाने वाले ज्यादा हैं यहाँ
कुछ पंक्तियाँ  याद आती  हैं इस माहोल पर

अब किसी को भी नजर आती नहीं कोई दिवार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार

इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं
आदमी या तो जमानत पर रिहा हैं या फरार

आप बच कर चल सके ऐसी कोई सूरत नहीं
रह गुज़र घेरे हुए........ मुर्दे खड़े हैं बेशुमार

दस्तको का अब किवाड़ों पर असर होगा जरूर
हर हथेली खून से तर.... ओर ज्यादा बेकरार

हालते इन्सान पर बरहम न हो अहल-ए-वतन
वो कहीं से जिंदगी भी...... माँग लायेंगे उधार 

हम बहुत कुछ सोचते हैं .......पर कहते नहीं
बोलना भी हैं मना सच बोलना तो दरकिनार

रौनक-ए-जन्नत मुझे  जरा भी   रास आई नहीं
मैं जहन्नुम मैं ही बहुत खुश था मेरे परवरदिगार

Tuesday, January 11, 2011

ध्रुव की तरह तुम नूर का झुरमुट रहो..


अग्रज तुम्हारी कामना,, और भाव सब परिलक्ष हों !
तुम कर सको वह कार्य जिस पर सभीआसक्त हों !!

यह  भावना सदभावना निष्काम यह  शुभकामना !
जब भी उठे पग साध्य को पथ सामने ही रिक्त हों !!

नव रूप में  नव भोर में, नव कल्पना अभिव्यक्त हो !
जिस राह पर तुम पग धरों वो राह सब उन्मुक्त हों !!

आ कर ना आये भ्रांतियां... ना कर्म में ना वचन  में !
हो गर्व  तुम पर विश्व  को व्यवहार  वो उत्कृष्ट  हों !!

हो राम जैसा धैर्य तुममे........ कृष्ण सी नितीग्यता !
कर्म से तुम वीर और .....मुक्त मणि सम शुद्ध हो !!

दिन आज का हैं साक्षी ..सारे द्वेष से हम मुक्त  हों !
हम चल  सकें  उस  राह पर जो राह तुमसे युक्त हों !!

ध्रुव की तरह तुम... नूर का झुरमुट रहो हर काल में !
इस कामना इस अर्चना में ......दोनों कर संयुक्त हों !!

Saturday, January 8, 2011

रामदेव स्वामी कहें..........


दोस्तों योग ऋषि स्वामी रामदेव जी महाराज का का अनुयायी होने के नाते कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ बेहद हल्के फुल्के अंदाज मैं, अन्यथा ना ले, मकसद केवल योग ओर आयुर्वेद के प्रति जन जागरण हैं

रोग रोग सब हीं कहें,योग ना बान्चे कोय
जो जन बान्चे योग को,तो रोग कहा से होय!

रामदेव स्वामी कहें,सब कलीयुग का झोल
नियम आसान जाप हवन कर दीने सब गोल!

ईश्वर या संसार मैं , प्राणी ये कुल चार
दो तो स्वर्ग सिधार गये,दो एडमिट बीमार!

कोल्डड्रिंक का आचमन,जंक फ़ूड का भोग
सर्वनाश का मूल यह, समझे ना ये लोग!

अतिकी भली न चासनी अतिकी भली नचाय
पच्चीस की आयु मैं ही जीवन बीता जाय!

शल्य चिकित्सा कर गये,डाक्टर दीनानाथ
दो थे परअब एक हैं किडनी,आँख ओ हाथ!

दारू पी पी जुग भया,मॅन का मिला न चैन
डेढ़ पसलियां पीठ से ,चिपकी रही दिन रैन!

हास्पिटल मैं भी गया,करवाने उपचार
दो रोग पहले से थे, हो गये हैं अब चार

आसान प्राणायाम से, स्वस्थ रहे शरीर
ना डा. की फीस कोई,ना इंजेक्शन पीर!

पद्मासन मैं बेठ कर, दोनो हाथ पसार
प्राण वायु को साध ले, यही योग का सार!

आज़ादी का वो बोर्ड........


दोस्तों  शहीदी दिवस की  तारीख़े कितने बरस तक याद रह पाती हैं सबको हम भूलते जाते हैं, शहीदों की उन निशानियों को साल दर साल, मैं इसे आज़ादी का बोर्ड कहता हूं जिस पर टांगते हैं हम इन शहीदों की निशानियों को पर उन बोर्डों का क्या हाल हैं यही मेरी व्यथा हैं............

ओर उन वीरों ने
अपने लहू की तहरीरों से
आज़ादी का वो बोर्ड तय्यार किया
जिस पर
चाहिए था तुम्हे गर्व करना
चाहिए था तुम्हे उसके खंबों को
बचाना दास्तां की दीमक से
रोक लेना उन कुल्हाड़ों को
जो उस बोर्ड के
अंतरसथल को बेधित करते हों
पर तुमने, तुमने क्या किया
तुमने अपने तथाकथित संवेधानिक
अधिकारों का दुष्प्रयोग करते हुए
चिपका दिए इस बोर्ड पर
बलात्कार से भ्रष्टाचार तक के इश्तिहार
अपनी कुत्सित हो चुकी मानसिकता के
अश्लील पोस्टर
ओर साम्राज्यवाद की अस्थियों से दूषित
दोहरी मानसिकता के लाल निशान
माना की तुम स्वतंत्र हो चुके थे
पर सिर्फ़ बाह्य तौर पर ना
तुम अपनी अंतरात्मा पर छाए हुई
धधकते ओपनिवेशिकता के
कोयले से निकले
गुलामी के धुए की परत को
इस स्वतंत्र परचम से
सॉफ तो न कर पाए थे
तुम सिर्फ़ शोषित हो चुकी
मानसिकता पर आज़ादी का
संवेधानिक लबादा ओढ़े
ढोल पीटते रहे अपने अधिकारों का
ओर थोपते रहे खुद पर
ओर आने वाली नस्लों पर
की तुम स्वतंत्र हो, तुम गणतंत्र हो
ओर अनसुना करते रहे उन चीत्कारों को
जो तुमसे कहती रही की
कोई हक़ नही हैं तुम्हे
इस तिरंगे के नीचे खड़े होने का
तुम पूर्ण स्वतंत्र नही हो
सिर्फ़ स्वतंत्रता का
संवेधानिक नारा मात्र हो
तुम पूर्ण मनुष्य भी नही हो
सिर्फ़ भस्मीत हो चुकी मनुष्यता की
धारणा की अस्थि मात्र हो
क्योंकि तुम्हे
उन बोर्डों के नीचे से रिस्ता हुआ लहू
अब दिखाई नही देता
तुम्हे अपनी अंतरात्मा पर छाई
गुलामी की धुए की परत महसूस नही होती
तुम्हे सिर्फ़ दिखाई देते हैं
संविधान के अनुच्छेदों मैं वर्णित
तुम्हारे अधिकार
ओर सुनाई देती हैं केवल
२१ तोपो की गढ़गढ़ाहट
ओर उन सब के बीच
नापाक होते शहीदों के निशा
मुझे अपनी
अकर्मण्यता का अहसास दिलाते हैं
मुझे इन आज़ादी के शहीदों के बोर्डों का
कोई भविष्य दिखाई भी नही देता
क्योकि
स्वयं संविधान के मिस्त्री
ओर मेरे शहर के रहनुमा
ढूँढ रहे हैं कोई बोर्ड
अपना चुनाव चिन्ह चिपकाने के लिए

Sunday, January 2, 2011

नव वर्ष मंगल मय हो..!!!!???

आखिर क्यों 
इतने खुश हो..!!??
किस बात की शुभकामनाए दोस्त..???
क्या बीता वर्ष..
कभी नया न था..??
तब भी तो खुश हुए थे तुम..!!
तब भी तो शुभकामनाए दी थी तुमने..!!
फिर.......
फिर क्या दे गया  ये बीता वर्ष तुम्हे..?
क्या तुम पोछ सके..
अपने आस्तीन से
बेगुनाहों का लहू...?  
क्या मिटा सके.. 
मानवता पर लगे दागों को..??
क्या दिला सके हर बेरोजगार को रोजी.. 
और हर भूखे को रोटी ..??
तो फिर क्यों  ये शब्दजाल फिर से..?
क्या तुम भूल गए उस 
धर्मान्धता की आंधी को..
पीढ़ियों तक जिसका विष 
तुम्हारे खून मैं रहेगा..
क्या तुम भूल गए उस प्राकृतिक उत्पात को 
जिसकी हलचल 
आज भी उन वीरानों मैं 
चीत्कार करते चीड के पेड़ों  
के रक्तिम आंसुओं मैं हैं..?
हाँ......!!
शायद... भूल गए तुम..
इसलिए न...
कि उन आंसूओ  मैं
तुम्हारे  आंसू न थे 
उस बहते खून मैं तुम्हारा खून न था.!
इसलिए शायद ...तुम हर दौर को
पी लेते हो चुपचाप
पवित्र गंगा जल समझ कर
और हर बार जब
ये नया वर्ष बांहें फैलाये आता हैं
तो तुम उसे
गले लगाने की चेष्टा करते हो
तुम भूल जाते हो 
तुम्हारे आस्तीन पे लगा हुआ रक्त 
तुम्हारी पीठ से लगा हुआ
दोस्ती के फूलों मैं लिपटा चाकू
और सफ़ेद कफ़न की चाहरदीवारी मैं बंद
तुम्हारे अख़बार की कतरनों मैं
छपे सामूहिक नरसंहार को..!!!
आखिर क्यों.....????
क्योंकि तुमने बुरा देखना,बुरा सुनना 
बंद कर दिया हैं.!
या तुम डर जाते हो यथार्थता से
सिर्फ पाना चाहते हो
अल्लाउद्दीन का चिराग
जिससे तुम अपना हर पल
मंगलमय कर सको
नहीं दोस्त नहीं...!!
तुम जिन सिसकते जख्मों के 
रक्तपिपासू कीटाणुओं को
भूल जाना चाहते हों
वो तो हर युग हर दौर
मैं मिलेंगे
उन से अलग रह कर
तटस्थता का छूत रोग मत फैलाओ
नोच लो इन जख्मों से
इन विषाक्त कीटाणुओं  को
सिर्फ नववर्ष के मंगलमय होने की
कामना  करने से ही
हर वर्ष मंगलमय होता 
तो बीते वर्षों मैं 
मंगल पर कभी शनि नहीं चढ़ता 
लो... चलो ..मैं भी कहता हूं
नव वर्ष मंगल मय हो..!!!!???

Saturday, January 1, 2011

सोनचिरैय्या.......

बचपन की दहलीज पर
दस्तक देता यौवन
जब भी 
तुम्हारे आँगन मैं 
तुम्हे देखता हूँ
यही बात
याद आती हैं जहन  मैं
और साथ मैं 
सुनाई देती हैं
तुम्हारे आंगन   के नीम 
के वृक्ष पर बैठी 
सोनचिरैय्या   की आवाज
आशा की डोर से बधि  
मेरी जिज्ञासा
हमेशा खिची रहती हैं
तुम्हारी बंद खिड़की की तरफ
रात मैं जब 
तुम्हारे आँगन मैं
हर तरफ
चांदनी छिटकी रहती हैं
और हवा के बहाव मैं
नीम के गिरते पत्ते
तुम्हारी बंद खिड़की पर
दस्तक देतें हैं
तुम शायद 
गहरी नींद  की 
आगोश मैं होती हों
यौवन की दस्तक
तुम्हारी नींद  को 
बेध नहीं पाती
तुम्हारे सपनों की
अलग दुनिया
होगी शायद
तुम्हारे सपनों मैं
नीम का पेड़ नहीं होगा
तुम्हारे सपने
और तुम्हारा आँगन
और बंद खिडकियों का 
ये फलसफा 
कुछ अनबूझा सा हैं
मेरे आस पास की हवा 
कुछ जज्बाती सी हैं
मैं तुम्हारे जहन की 
उदासी और  बोझिलता 
तोडना चाहता हूँ
तुम एक बार 
अपने आगन मैं 
आ तो जाओ 
बचपन की दहलीज 
लाँघ चुकी हो तुम
इन नीम के पत्तों को 
दिवार मत समझों 
सतरंगी सपनों की 
अलग दुनिया नहीं होती
चांदनी और  यौवन की दस्तक
सुनाई नहीं देती
महसूस की जाती हैं
अपने आगन के 
नीम के पत्तों पर छिटकी
चांदनी की थिरकन 
कभी तो 
बाहर  निकल कर देखो तुम
तुम
मेरे सपनो की 
सोनचिरैय्या  हों