""कविता""...... कविता उस पहाड़ी झरने के पानी की तरह से हैं निष्कपट,निश्छल,पारदर्शी, जिसमे से झाँक कर कवि की भावनात्मकताए देखी जा सकती हैं कविता,गीत या ग़ज़ल एक मनः स्थिति हैं भाव का रूपांतरण हैं एक अलग ही दृश्यांतरण हैं कभी कभी तो इस संसार से परे एक संसार रच लेता हैं कवि रचना तो स्वयंभू हैं स्वरचित.. ये तो ईश्वरीय प्रबलता हैं जो उसके मस्तिस्क की गहराइयों मैं जन्म लेती हैं हृदय के तारों को झंकृत करती हुई मुख के सप्त सुरों पर अवरोहण करती हुई कलम के माध्यम से उभर आती हैं वरकों पर
Thursday, January 13, 2011
मैं पहाड़ लौट रहा था
उस दिन
मैं पहाड़ लौट रहा था
उस बस में बेठे बेठे
मुझे वो पहाड़ी रास्ता
कई साल पीछे ले जाता रहा
बहुत पीछे
सीढ़ीदार खेतों
ओर अमरुद के बगीचों के बीच
ताल तलैय्यों
ओर बेरी के झुरमुट के बीच
सफ़र में
बिजली के खम्भों की तरह
एक एक पल उस उम्र का
मेरे सामने से गुजरता जा रहा था
उस दिन
में पहाड़ लौट रहा था
अधखिले प्याल के फूल की खुशबू
ओर लोक त्यौहारों की महक
मुझे महसूस होने लगी थी
मेहनतकश लोगो के बदन से उठती
पसीने की गंध
बस की तरफ कौतुहल से तकती
किशोरवय लड़कियों की
निर्दोष हसी
अपरिचित होते हुए भी
अपनत्व से भरी उनकी बाते
सोच कर
कितना भाता हैं
की कही
में भी तो
उन्ही से जुड़ा हूँ
मेरे साथ बैठा मेरा दोस्त
शायद सो रहा था
उस दिन
में पहाड़ लौट रहा था
लेकिन
में हमेशा के लिए तो नहीं जा रहा था
या में जाना नहीं चाहता था
हमेशा के लिए
उन पहाड़ों ने
जो संस्कार ओर विरासत
सहेज कर रक्खी हैं
मेरे लिए
क्या उसे में ले पाउँगा
क्या इन पहाड़ों से
पलायन करके भी
में उस संस्कृति
उस देव भूमि
का उत्तराधिकारी होने का
झूठा दंभ
पाले रक्ख सकूंगा
क्या कभी
स्वयं को
निर्दोष साबित कर पाऊंगा
क्या कभी
में सही मायने में
कभी वापस न जाने को
पहाड़
लौट पाउँगा
क्या कभी.....
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अपने पास बुलाता पहाड़.
ReplyDeletebahut khoob !
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