Monday, June 27, 2016

पिता की सकून

हर पिता की सुकून-ए -ज़ां होती हैँ बेटियां !
दुश्वारियां आ जाये तो माँ होती हैँ बेटियां !

अब वो रोशन

अब वो रोशन, किसी अौर ही आस्मां होगा !
वो चाँद जो सुबह तक, मेरे फ़लक पर था !!
......हरीश ....

.चाँद



उसकी आँखों में पढ़ लेता  हूँ
मैं फ़ज़र  की नमाज़

उसके माथे का
बोसा हैं इफ्तारी मेरी

उसकी मुस्कान में हैं
ईद की सेवइयों की मिठास

कि मेरे छोटे से घर में
इक चाँद  सी बेटी हैं मेरी !!

कुछ पंक्तियाँ ...बस यूं ही

कभी लगता हैं..
तुम सारा ज़माना ढूंढते हो...
यूं ही कुछ गुनगुनाने को, 
सुहाना सा
तराना ढूंढते हो...
ज़रा सी बात हो पाए..
किसी ख़त में ...या फिर छत में
......................बहाना ढूढ़ते हो..😄
चले आते हो छुप छुप के,
मेरी नज़्मों के हर्फों तक..
सुनो न तुम... 😯
...............बताओ तो ...
अभी तक भी ....
क्या तुम मुझमें ...
वो अपना सा... फ़साना ढूंढते हो ??!!

याद तो होगा तुम्हें भी !!

सुनो
तुमसे कह रहा  हूँ  !!
न जाने क्यों
लौट आती हैं
बार बार ज़हन में,
किसी चलचित्र की तरह
तैरने लगती हैं आँखों में,
बचपन की अठखेलियाँ,
छुटपन के दोस्त/सहेलियाँ  ,
अल्हड़ सा यौवन ,
अनसुलझी पहेलियाँ !
याद तो होगा तुम्हें भी !!
वो जोर जोर से पढाई,
खेल खेल मैं लड़ाई ,
शाम तक पकड़म- पकड़ाई ,
गुस्सेल सी छुटकी,
नटखट सा भाई ,
होली का हरियल अबीर
सपाट सा गंगा का तीर,
मुफलिसी में
पर्वत सी पीर
मंदिर का केसरी चीर.
और मां के हाथों के
गुलगुले, पूए, और खीर ,
याद तो होगा तुम्हें भी
न जाने क्यों !
कुछ भी तो बिसरा नहीं हैं ,
छूट गया हैं बस,
आपाधापी की कोशिश में
काम काजी तपिश में,
बच्चों की परवरिश में ,
जीने मरने की हविश में,
और जीवनसाथी से
निभा पाने की कशिश में !
न जाने क्यो,
लौट जाना चाहता  हूँ,
उन दिनों में
बार बार
चलो तुम भी
ढूंढेंगे फिर से
बचपन,
उन्ही अमराइयों में
नीम की निम्बोलियों में
बेर के झुरमुट में
रास्तों की सरपट में 
याद तो होगा तुम्हे !
याद तो होगा तुम्हें भी !!

"मोहब्बत"

उँगलियाँ रख कर 
"मोहब्बत" हर्फ़ पर, 
उसने मासूमी से पूछा 
"क्या हैं ये" !!
 
रुक गए उड़ते परिंदे 

बाम पर,
जिस्म से फिर, इत्र सा झरता रहा !
रात भी --ना
होश में फिर आ सकी ,,
सुब्ह तक वो, तर्जुमा करता रहा !!

बारिशें

बारिशें
यूं ही तो
पसंद नहीं हैं मुझे
टिपटिपाती हुई
दनदनाती हुई सी भी
निर्झर ,झरती हुई सी
कभी रुक रुक के
कभी मूसलाधार
ये बारिशें !
अनायास ही
आ के लिपट जाती हैं
छन्न से
चेहरे पे मेरे
कपकपाती हुई सी ये बूंदे
अपरिचित सी, बिन बुलाई सी
अल्हड़, बे रोक टोक भी
बड़ी बेशर्म हैं
ये बारिशें !
सोचता हूँ
की यूं भी
तो होता होगा
इक सकून , अपनापन भी
यूं ही किसी पे बरस जाने में
खुद मैं समाहीत कर लेने में
अपनत्व भी
स्नेह की पराकाष्ठ भी
बिना शिष्टाचार और दिखावे के,
सुख, जो केवल दैहिक न हो
आत्मिक भी
कितनी निश्छल हैं
ये बारिशें !
फिलहाल
ये लगातार होती बारिश
और उसमें भीगते हुए मैं
और मेरा आस पास
मिटटी की सौधी खुशबू के साथ
भीगते हुए फूल पत्तों के साथ
अंतस तक सराबोर कर
ये भिगो रही हैं मुझे
या खुद
भीग जाना चाहता हूँ मैं
तय नहीं हो पा रहा !!
प्रियतमा सी हैं
ये बारिशें !
जाने कब बरस जातीं हैं
जाने कब रुके
न आये वादा कर के भी
मनमानी हैं उसकी
रिमझिम सी कभी
कभी बूँद भी नहीं
निष्ठुर सी हैं
ये बारिशें !
लो..!!
फिर शुरू हो गई हैं
झिलमिल-झिलमिल सी
ये बारिशें !!

यूं न कह पाओगे तुम !

सुनो..
यूं न कह पाओगे तुम !
.....हर बार ही
चाहतों को
मुट्ठी में दबाये
रेत की तरह
.....फिसलने मत दो !
किसी दिन
मोह के आँचर पर
समृतियों की तूलिका से
एहसासों की शियाही से
.....उकेर लेना सस्नेह ही
कामनाएं,/आकांक्षाएं /इच्छाएं
और उस पर
......लरज़ते होंठों से
बिखेर देना चाहतों का इत्र !
लिख देना एक ख़त
कंपकपाते हाथों से
.......और भेज देना
हवाओं के रुख पर
बिना पता लिखे
......बैरंग ही !
ये तितरियाँ
.......सहचर हैं मेरी
पहुचा ही देंगी
.....मुझ तक !!
.....हरीश....

चाहत



ज़िस्त के मंज़र, बदलना चाहता हूँ !
थक गया हूँ, घर बदलना चाहता हूँ !!
हादसों से कब तलक, छिपता फिरूं !
लाज़मी हैं,,, सर बदलना चाहता हूँ !!
मुस्कुराने का ही,, कुछ सामान कर !
जिंदगी तुझसे, बस इनता चाहता हूँ !!
.......हरीश.......

पीपल


मगरूर आँधियों में जब्त का, संबल खड़ा हैं !
मोड़ पर मेरे गली के , वृद्ध सा पीपल खड़ा हैं !!
रोज उसकी पत्तियों में, साँस लेता हैं शहर !
ऐसा लगता हैं की वो पीपल नहीं, संदल खड़ा हैं !!
इतना ऊँचा हैं की, पूरे अस्मा तक ज़ज़्ब हैं !
इतना फैला भी के, मां का वो आँचल जड़ा हैं !!
रो रहा हैं सर पटकता हैं, मेरी नादानियों पर !
कट रहे पेड़ों पर कातर हैं, वो कुछ बोझिल खड़ा हैं !!
एक पीपल मेरे ह्रदय में भी, उगा हैं आजकल !
यूं गुलमोहर कम ही हैं मुझमें, तीक्ष्ण सा जंगल बड़ा हैं !!
.............हरीश.........

..""घूंघट""

...वो रात
नई "नवेली", सकुचाई सी
मधुमय "चाँद"
...उतावला सा
खिड़कियों के पार कहीं ..!
..चूड़ियों की
भरपूर "छनक" में ,,
स्वप्नीली आँखों की लरज में
..सांसों के आवर्तन में ,,
"रात रानी" सी
"महकती" रही
...वो रात..!!
..""घूंघट""
..न जाने कब
"सरक" गया था
..."होले" से..!!!
...हरीश.....

कुछ दोस्तों के जाने की जद्दो जहद में.....

.
ये जो दर्द सीने में भर गया, यूंही आ के दिल में पसर गया !!
इसे जाने किसकी हैं जुस्तजू, यहीं आ के जो ये ठहर गया !!
कभी तुझसे बाबस्ता था मैं.... तेरी आदतों में शुमार था !
मुझे देखे बिन गुजरा न जो, वही वक्त आखिर गुजर गया !!
मैं तो तुझसे आशना था मगर, तुझे और ही की तलाश थी !
था नवाज़िशों का भरम तुझे, न वो रब्त था न असर गया !!
कभी तो मिलो किसी ग़ज़ल में, किसी नज्म में क़त'आत में !
हुए तुम शहर से यूं गुमशुदा, जैसे नगमा लब से बिखर गया !!
ना मैं हिज्र में ना विसाल में, ना किसी के बेज़ा ख्याल में !
कभी रुख़सती पे ये सोचना, यहीं था अभी जो किधर गया !!
........हरीश.......

.....रिश्ते .....


मेरा कमरा
कुछ अस्त व्यस्त हैं ,
मेरी ही तरह त्रस्त हैं
दस्तक मत देना तुम 
दरवाजे पर
व्यर्थ हैं,
खुल पाने में
असमर्थ हैं !
दरवाजा ओर मैँ भी !
बदरंग हो चुकी दीवारों पर
मौन का कुहासा,
अधखुली खिडकियों पर
पर्दों सी लटकी हताशा
कुर्सियों पर,
औधे मुह गिरे हुए कपड़े
मुह बाये पड़ा तौलिया
दुनिया भर के लफड़े !
टेबल पर
हाथ से छूटी घड़ी
परेशानी, एक छोटी एक बड़ी
चार्जर में जकड़ा मोबाईल
इंच इंच, कम होती स्माइल
चाबियों का, अनमना सा गुच्छा
अश्कों के मोती
इक झूठा, इक सुच्चा
धूल से अटा लेपटॉप
कागजों से
भरा पूरा पर्स
जाने कितनी, पीढ़ियों का कर्स !
छितराया हुआ सा, बिस्तर
रात भर का जगा, तकिया
भीगा हुआ अस्तर
दो बेजोड़ी जूते
मोज़ो से अटे हुए
साँस रोके हुआ एक अदद पंखा
बिना जिल्त डायरी के
श्याह पड़ते कोरे सफ़्हे
भूख सिर्फ भूख ..बाज दफे !
सब कुछ तो हैं
मुझ मैं शरीक, मुझ सा ही
पर सोचता हूँ
की ऐसे ही रहने दूं सब
बेतरतीब, अनसुलझा सा
असंस्कारित, उलझा हुआ
वरना
पहचानेगा कौन फिर मुझे
ये कमरा
पराया सा नहीं हो जायेगा ??
रिश्ते भी आजकल
ऐसे ही अस्त व्यस्त
और उलझे हैं !!
कुछ सवाल हल
कुछ अनसुलझे हैं
रिसने लगी हैं अब
तेज भभक
कमरा तो फिर भी बदल लूं
पर रिश्ते !!
ठीक से न बो पाए
तो, कैसे ढोए जाते होंगे !?!?
----हरीश----

में रोज खत

मैं रोज़, 'ख़त' लिखा करता हूँ, तेरी 'उम्मीदों' को !
ग़र हो सके.... तो ज़रा... अपना 'पता' दे देना !!
तल्खियाँ अफ़्सुर्दगी, झगड़े उतार देता हूँ !
मैँ घर में आते ही.....कपड़े उतार देता हूँ !!
ज़िसको लेना हो ले जाये, आँख भर कर !
मैं सूद खोर हूँ, ....गम भी उधार देता हूँ !!

ज़िद ..


ज़िन्दगी तू भी तो कमज़र्फ थी, जिद में गुजर गई !
कुछ मैं तुझमें गुजर गया, कुछ तू मुझमें गुजर गई !!

कई पीढियां गुजर गई

कई पीड़ियाँ गुजर गई पर सबकी सब अभिशिप्त हो गई ! 
दुशाशन कि वंशावलियाँ, फिर चीरहरण में लिप्त हो गई !!

इस देश का ये दुर्भाग्य कहूं या, अकर्मण्यता अपनों कि !
हर विकास की कीमत पर बस, संवेदनाएं रिक्त हो गई !! 
तल्खियाँ अफ़्सुर्दगी, झगड़े उतार देता हूँ !
मैँ घर में आते ही.....कपड़े उतार देता हूँ !!
ज़िसको लेना हो ले जाये, आँख भर कर !
मैं सूद खोर हूँ, ....गम भी उधार देता हूँ !!

तू यूँही मुझे छोड़ के

तू, यूं ही मुझे छोड़ के, तो जा नहीं सकती !
ज़िंदगी, तुझसे सवालात का, रिश्ता हैं मेरा !!

ताम्बई सी मुस्कान

ताम्बई सी मुस्कान पे, मासूमी की अदा ! 
खवाबों की चम्पई सी ज़रदोज़ी लगता हैं !!
जाने क्या था ऐसा, उसकी कंजई आँखों में !
मुझको शहर का चांद, फिरोजी लगता हैं !!
उसकी "नज़रें" खुद ही,, ना लग जाएं मुझे !
ये सोच के "माँ", मेरा चेहरा बिगाड़ देती थी !!
धूप हो बारिश हो, या आज़माइश खुदा की !
छुपा के सीने में, "आँचल" की आड़ देती थी !!
वो ये कह के, रस्म-ए-मोहब्बत निभा गई अपनी !!
चल छोड़, कि तुझको तो मनाना भी नहीं आता !!!

Sunday, June 12, 2016

"कोई फूल बन के खिलो कभी,कभी तितलियों सी उड़ो ज़रा "



दोस्तों बेखयाली का एक गीत आपकी नज़र हैं ...अगर पसंद आये तो जताइयेगा जरूर........
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कोई शाम यूं भी तो हो जरा, मेरा हाथ थामे चलो जरा !
जो मैं हसूं तो,, हसों जरा,, जो मैं रुकूं तो,,रुको जरा !!


मैं पहर.. पहर,,, रहा देखता !
तू नज़र में थी किसी और की !!
मेरी हसरते,,, तेरे नाम थी !
तेरी शोखियाँ किसी और की !!
जैसे सबसे मिलते हो शौक से मेरे साथ भी तो खुलो जरा !
कोई शाम यूं भी तो हो जरा,,, मेरा हाथ थामे चलो जरा !!

मैं भंवर.. भंवर,, रहा डूबता !
तू लहर लहर में समायी थी !!
मुझे साहिलों की तलाश थी !
तूने मौजों से ही निभाई थी !!
तेरा रास्ता हैं अलग मगर,किसी मोड़ पर तो मुड़ो जरा !
कोई शाम यूं भी तो हो जरा, मेरा हाथ थामे चलो जरा !!

तुम दूर हो के भी,,, पास हो !
कभी तो मिलोगी ये आस हो !!
तुम्हें पाया मैंने,, यकीन मैं !
मेरी उम्र भर की,, तलाश हो !!
यूं ही तुमसे कहना हैं कुछ मुझे मेरे पास आ के सुनो जरा !
कोई शाम यूं भी तो हो जरा,,, मेरा हाथ थामे चलो जरा !!

तू ग़जल में हैं, तू ही गीत में !
मेरी हार में,,, मेरी जीत में !!
कभी वेदना, किसी नज़्म की !
कभी पहली पहली सी प्रीत में !!
कोई फूल बन के खिलो कभी कभी तितलियों सी उड़ों जरा !
कोई शाम यूं भी तो हो जरा,,,,, मेरा हाथ थामे चलो जरा !!
जो मैं हसूं तो,,, हसों ज़रा ,,,, जो मैं रुकूं,,, तो रुको जरा !!
.............हरीश............