Friday, December 20, 2013

सर्दियाँ



सर्दियों की 
अलसाई सी सुबह 
खिड़कियों से परे 
मीलों तक 
पसरा हुआ सा मैं 
और उस पर 
क़तरा  क़तरा
बर्फ कि मानिंद 
बिछती हुई सी तुम
सर्द एहसास लिए कुहासा 
सराबोर करने को आतुर 
पर पता हैं मुझे 
निष्ठुर उगेगा जब 
रोक नहीं पाउँगा 
वाष्पित होने से 
तुम्हे   

अनमनी सी दोपहर 
लौट चुकी हो तुम 
अपने हिमाद्र में 
मेरा पसार 
सिकुड़ने लगा हैं अब 
धूप सी तुम 
छितरा गई हो 
दूर देवदार  के पत्तों तक
तुम्हारी तपिश 
अब भी दूर हैं 
मुझसे 

भुतहा साँझ 
सर्द धुंधलका गहराने लगा हैं 
दुबक गया हूँ जैसे 
अबाबील कि तरह 
किसी कोटर में 
कंपकपा  गई हैं ऑंखें 
तुम्हारी आमद को 
मुझे पता हैं 
अँधेरे तराश रही हो तुम 
सुझाई नहीं देती हो तुम  फिर भी  

रात्रि प्रहर 
भाँय भाँय करता अंधियाला 
मीलों तक फैला 
सियाह बादलों कि कोर से 
स्खलित हो रही हो तुम 
सुफ़ेद रुई के फाहों सी 
धुंधलकी खिड़कियों के पार 
विसर्जित होते 
देखना ही तुम्हे 
नियति  हो जैसे 
 तुमसे एकाकार 
कब हो पाउँगा मैं 

हाँ'
इन्तजार में हूँ 
अलसाई सुबह का 
फिर एक बार 
मिलोगी न मुझे 
निष्ठुर के उगने से 
पहले तक 
भावाष्पित होने से 
पहले तक 
क्षणांश ही सही