Friday, December 17, 2010

उर्मिला का विछोह ...



""यदि भ्राता राम माँ सीता संग वन जाएगे तो मैं भी जाऊँगा"
कह तो दिया था श्री लक्ष्मण ने पर कुछ तो कहना बांकी था प्राणप्रिया उर्मिला को भी एक सीधा साधा सा वाक्य की "तुम धरो धीर मैं वन जाता हूँ" तब उस क्षण क्या जवाब दिया होगा उर्मिला ने!!!!! क्या कहा होगा विरह ओर कर्तव्य के पशोपेश मैं !!!!! वही मेरी रचना का काल्पनिक पक्ष हैं शायद वर्तमान परिपेक्ष मैं भी जब एक युवक अपने घर से मात्र्भुमि की रक्षा हेतु अथवा परिवारिक दायित्वओ की पूर्ति हेतू अनिश्चित पथ पर निकलता होगा तो यही जवाब मिलता होगा उसे भी जो उर्मिला ने वन जाते समय अपने आराध्य श्री लक्ष्मण को दिया होगा 

हे आर्य पुत्र,,, दशरथ नंदन !
हे राम अनुज, सौ सौ वंदन !!
तुम आज विदा को, आए हो !
हूं दीन करूँ मैं, क्या अर्पण !!

जिस क्षण तुमने संकल्प लिया !
तुम प्रिय भ्राता संग जाओगे !!
मैं गर्व से आह्लादित तब से !
इतिहास नया, रच...आओगे !!

पर क्यों उनिग्ध हो तुम इतने !
मुख पर विषाद की,.. रेखाए ?!
क्यों धनुः शिथिल हैं काँधे पर !
क्यों सूर्य भाल पर,..चिंताए ? !!

सौमित्र, ...तुम्हारे नयनों में !
हैं प्रश्न नेह का,..... तैर रहा !!
क्यों कंपित हैं ये स्पर्श आज !
अवसाद से तुमको, बैर रहा !!

हैं आज सखे,.... ..चिंता मेरी !
कर्तव्यविमूढ़, से..दिखते हो !!
मुझ किंचित सी छाया के लिए !
तुम व्यर्थ ही चिंता करते हो !!

हैं ज्ञात मुझे तुम ना भी कहों !
प्राणो मैं तुम्हारे,.... बसती हूँ !!
पलछिन को भी मैं, दूर कहीं !!
ना बिना तुम्हारे रह सकती हूँ !!

जब ऋतु बसंत पर यौवन हैं !
ओर नेह जलद, घिर आए हों !!
ले मौन निवेदन,.. अधरों पर !
जाने को तुम,, अब आये हों !?

ये भ्रमर,, जो गुंजन करते हैं !
क्यों काम सुधा रस, बरसाते !!
अतृप्त कमलदल बगिया में !
उनके खिलने तक रुक जाते ?!

पर आज प्रणय का प्रश्न नही !
ये प्रश्न तो रघुकुल आन का हैं !!
केवल पल छिन की बात कहाँ !
जीवन पर्यंत स्वाभिमान का हैं !!

ये हो न सकेगा,, वीर.. कभी !
मैं चक्षु स्वयं से, गिर.. जाऊं !!
मैं आर्या वर्त की,.... नारी हूँ !
कर्तव्य के पथ से, डिग जाऊं !!

यदि आज जो मैने रोक लिया !
इतिहास भी, दोषी.. कह देगा !!
मैं पीर पराई थी,.... कह कर !
आक्षेप जनक पर,.. धर देगा !!

ठहरो दो पल यदि देर ना हो !
जाओगे श्रेष्ठ, तिलक कर दूँ !!
तूरीण बाँध दूँ...... कांधे पर !
अंतिम स्पर्श संचित कर लूँ !!

पर रहे भान प्रियवर ....मेरे !
मैं बाट, कभी ना.. निहारूँगी !!
यदि रामधर्म संग, सिया रहे !
लक्ष्मण सा, व्रत मैं..धारूँगी !!

4 comments:

  1. सुन्दर अभिवयक्ति हरीश जी
    उर्मिला के कशमकश और व्यथा को बहुत सजीवता से पिरोया हैं आपने
    बधाई

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  2. very nice sir. khusi hui koi to hai jisne urmila ko bhi pahchana uske bare mein bhi socha

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  3. उर्मिला कि व्यथा, जो कभी भी कवियों कि लेखनी समझ नहीं पाई , उसे आपने बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति दी है....काबिले तारीफ.

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  4. kripya , blog ke seting men jakar word verification ko " no" kar de to comment dene men aasani hogi. best wishes for blogging.

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