Tuesday, December 14, 2010

आत्महत्या


मेरे शहर मैं
आजकल
उग आए हैं
कंक्रीट के जंगल
ओर उन शाख दर शाख
घोसलो मैं बटा हुआ आदमी
सचमुच कठफोड़ुए सा
लगने लगा हैं
हरपल
ठक ठक
खोदता हुआ अपनी ही जड़ो को
ओर इन सब के बीच
रह गये
कुछ नग्न-प्राय वृक्ष
इंतजार मैं हैं
अपनी बारी के
बटने को इन घोसलो मैं
फिर विरोधाभास भी कैसा
की जीवनदाई
वृक्षो को तो काट रहे हैं लोग
पर महसूस नही कर पा रहे हैं
अपने अंदर उगते
कॅंक्रिटी सभ्यता के बबूलो को
सोचता हू
की पर्यावर्णिक आत्महत्या का
ये कौन सा तरीका हैं
ये कौन सा तरीका हैं.

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