Monday, December 13, 2010

मैं प्रणय गीत कैसे रच दूं


जब हृदय शूल सा, बीन्ध रहा !
ओर शोक सोच पर, तारी हो !!
जब चहु ओर.. चीत्कार मचे!
ओर द्वेष प्रेम पर ..भारी हो!!
तुम कहाँ प्रेमरस .की हाला !
नयनो में खींच कर लाई हो !!
इस शुष्क धरातल को करने !
लथपथ... वर्षा सी आई हो !!
तुम. प्रश्न नेह का करती हो !
मैं प्रेम कहो.. कैसे लिख दूं !!

हे प्राण प्रिये. तुम्ही कह दो !
मैं प्रणय गीत. कैसे रच दूं !!

अंतस तक, वसुधा हैं प्यासी !
क्षुब्ध जलज का, गात प्रिये !!
शुष्क हैं सावन की रिमझिम !
ओ' मौन मिलन की आस प्रिये !!
तुम दग्ध निमंत्रण यौवन का !
मैं तृप्त तुम्हे..... कैसे कर दूं !!

हे प्राण प्रिये ..तुम्ही कह दो !
मैं प्रणय गीत... कैसे रच दूं !!

मैं हिम प्रस्तर सा धीर अचल !
हठ तृष्ण क्रोध से आच्छादित !!
अभिमान मेनका का तुम हो !
मैं विश्वामित्र सा मर्यादित  !!
तुम देवसुता मृगतृष्णा तुम !
मैं मानव मन,, कैसे तज दूं !!

हे प्राण प्रिये ..तुम्ही कह दो !
मैं प्रणय गीत... कैसे रच दूं !!

बेसुध अवाक सा.... बेठा हूं !
नयनो मैं नीर का कोर लिए !!
निर्वस्न... सांझ की बेला में !
अतृप्त उनींदा.... भोर लिए !!
तुम स्वयंवरा सी दुल्हन हो !
मैं माँग कहो... कैसे भर दूं !!

हे प्राण प्रिये.. तुम्ही कह दो !
मैं प्रणय गीत.. कैसे रच दूं !!

2 comments:

  1. हरीश जी
    बहुत खूब
    बहुत उत्कृष्ट रचना हैं
    उनिग्ध मनोभावों का बहुत खूबसूरती से वर्णन किया आपने
    कालजयी रचना हैं
    बधाई

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