Thursday, September 1, 2016

शौक-ए-आशनाई

मुझे तो तुमसे चलो,, शौक-ए-आशनाई हैं !
तुम्हें भी बाज़ न आने की, बुरी आदत क्यों !?
तेरी गली से गुजरता हूँ ....एहतियातन मैं !
वक्त बेवक्त तेरी भी तो, छत पे आमद क्यों !?
तुम्हारे नाम लिखे थे, जो ख़त मोहब्बत में !
वो मांगते हैं मुझसे आज, अपनी कीमत क्यों !?
चराग़ बुझने लगे .........महफ़िलें तमाम हुई !
वक्त-ऐ-रुखसत, तेरे चहरे पे अब ये वहशत क्यों !?
तुम्हें तो मेरी मोहब्बत पे,... एतबार ना था !
किसी को चाहूँ अगर मैं, तो फिर शिकायत क्यों !?
............हरीश.........

कोई..कोई...दिन तो बस.. थकाऊ...और उबाऊ सा ही होता हैं बस !!😞😞


ज़िस्त के मंज़र,, बदलना चाहता हूँ !
थक गया हूँ,, घर बदलना चाहता हूँ !!
तल्खियों से कब तलक, छिपता फिरूं !
लाज़मी हैं..... सर बदलना चाहता हूँ !!
इक तेरी महफ़िल, न रास आई मुझे !
ग़र इज़ाज़त हो तो, चलना चाहता हूँ !!
बस तेरी यादों को, सुलगा कर कहीं !
बर्फ़ की मानिंद, पिघलना चाहता हूँ !!
मुस्कुरा देने का.....कुछ सामान कर !
जिंदगी, तुझसे, बस इतना चाहता हूँ !!
..........हरीश.........

एक तेरी ही दीद को

इक तेरी ही,, दीद को तरसा हूँ मैं !
जब भी तेरे,, शहर से गुजरा हूँ मैं !!
यूं तो चारों सिम्त हैं.... यादें तेरी !
लोग कहते हैं,, बहुत तन्हां हूँ मैं !!
किसने रक्खा हैं, मोहब्बत नाम ये !
क़त्ल करने का, हुनर कहता हूँ मैं !!
.......हरीश.....

एक कविता...चेहरों वाली किताब पर...हलके फुल्के अंदाज की ...

 
...सुनो,
'लोनली' सा हो गया हैं
..कई दिनों से मेरा 'इनबॉक्स'
तुम्हारे मैसेज की 'ग्रीन लाइट'
....'ब्लिन्क' नहीं होती अब
..यूं भी तुम
'टर्नऑफ' मोड पर रहते हो
...हमेशा "अनअवैलेबल'
मगर जानता हूँ
..ओंनलाइन होते हो जब
पता चल ही जाता हैं
...साइडबार में
तुम्हारे 'लाइक्स' और 'शेयर्स'
....'स्क्रोल' होते हैं जब..!
तुमने,, मेरे लिए भले ही
'नोटीफिकेशंस' 'ऑफ़' कर रक्खा हैं
..पर आभास हो जाता हैं ..जब
चेंज कर लेते हो तुम 'डीपी'
...या कोई नयी 'पोस्ट'
लो फिर चेंज कर ली हैं
...तुमने 'डीपी" अपनी
अब तुम्ही कहो की कैसे बताऊ
...की ये 'रोज़' वाली 'पिक'
मत लगाया करो 'रोज़' 'रोज़' !
...मुझे पता हैं
अब तुम मेरे 'लाइक्स' का
...'वेट' नहीं करते
मेरे 'कमेंट्स'
...'डिलीट' करने लगे हो तुम
ग्रुप फोटोज पे तुम्हारा
"फीलिंग क्रेजी विद लवली फ्रेंड्स "
..वाला कमेंट्स ..
सिर्फ मुझे 'टीज़' करने के लिए हैं न
...ओह 'डियर'..
'इग्नोरेंस' की भी, कोई तो हद होगी !
..पर मन
आज भी होता हैं दुखी
तुम्हारे 'स्टेटस अपडेट्स' पर
...जब 'फीलिंग सेड' होते हो
बदल लेता हूँ तब
...मैं अपना 'स्टेटस' भी
'फीलिंग' 'वैरी सेड' जैसा
..सच कहूं
बिलकुल 'सेम' सी 'फीलिंग' आती हैं तब !
सोचता हूँ
...'डिएक्टिवेट' कर लूं खुद को
ये चेहरों वाली किताब के पन्ने
...'ब्लर' से लगने लगे हैं,
कभी कभी
"'शायद आप इन्हें जानते हैं'"
....ये वाला मैसेज..
तुम्हारी 'वाल' पर भी तो आता होगा
...मेरी 'डीपी' आज भी वही हैं
..'स्टेटस' भी वही, इंतज़ार में
काश की एक बार तो मुझे,,
'सर्च' करते तुम
...निष्ठुर हो पर तुम,
देख के अनदेखा करना
...शगल हो गया हैं तुम्हारा !
oh god..ये attitude तुम्हारा..उफ्फ्फ़..
..लेकिन
यूं उम्मीद का दामन
अब भी नहीं छूटा हैं
...यकीन भी हैं
की लौटोगे किसी दिन
..तुम फिर से मेरी किसी पोस्ट पर
और फिर से जगमगाएगा
....मेरा 'इनबॉक्स'
मेरी 'वाल' पर लगेंगे फिर से
...तुम्हारी दोस्ती के 'पोस्टर'
रंग बिरंगे 'स्क्रेप्स' 'सेंड' करने की आदत
..हैं न अब भी तुममें..??!
..सुनो तो,,
एक बात पूछूं.. बुरा मत मानना...
...अभी तक
'ब्लाक' नहीं किया हैं न तुमने मुझे
क्यों भला !!??
मत बताओ..पता हैं वैसे मुझे !!
.....हरीश....

मुझे छू ज़रा

मुझे छू ज़रा मेरा ज़िक्र कर, मुझे रोक कर के तू देख ले !
कहीं लौट के भी न आ सकूं, मुझे आँख भर के तू देख ले !!
बेज़ा ख़याल...
...हरीश...

मेरे कुछ अज़ीज़ दोस्तों के लिए......


वो आते हैं तो महफ़िल में, सियासत गर्म रखते हैं !
बस इतना हैं निगाहों की.... ज़रा सी शर्म रखते हैं !!
अज़ब अंदाज़ हैं उनका.....सलीके से अदावत का !
शिकायत भी वो करते हैं, तो लहज़ा नर्म रखते हैं !!
.........हरीश..........

नदी सी हो ना तुम


तुम
झरने सी थी न तुम
बेलाग -बेखौफ़- निर्झर
निष्कपट, निष्कलंक भी
छन्न से गिरा करती थी
तलैइयों में
शायद बचपन था तुम्हारा
और बचपना भी !
तुम्हारा उफ़ान बेजोर हैं अब
तोड़ देती हो कभी कभी
स्वयं के तटबंधों को
यौवन का विस्तार उश्रंखलित हैं
चिर यौवना नदी सी
लगने लगी हो
अब तुम !
विस्तार बड़ रहा हैं तुम्हारा
समवेत हैं अब
सब कुछ तुममे
विचलित नहीं होती हो
अब तुम बाह्य प्रतिबंधों से
गाम्भीर्य अनवरत हैं तुममे
निरंतरताओं में
कैसी स्थिरता हैं अब ये
दरियाह होने की
विडम्बना भी !
कल ,
विस्मृत हो जाओगी तुम
निराकार भी
तिरोहित होने को हो अब
खिलखिलाती चंचलता
मदमस्त उश्रंखलता
भरपूर यौवन
और सम्पूर्ण गाम्भीर्य के साथ
अनंत सागर के
आगोश में !!
नियति..यही होगी तुम्हारी !!
....हरीश....

Thursday, July 21, 2016

कभी जब रूठ जाओ तुम,



कभी जब रूठ जाओ तुम, तो मुझको याद कर लेना !
कभी जब टूट जाओ तुम, तो मुझको याद कर लेना !!
मैं अब तक भी वहीँ बैठा हूँ, सरगम की कतारों पर !!
कभी जब गुनगुनाओ तुम, तो मुझको याद कर लेना !!

बहुत सोचा तुम्हें कह दूं, ...तुम कितनी खूबसूरत हो !
मैं पत्थर सा किनारों का, की तुम मंदिर की मूरत हो !!
कभी रिश्तों की उलझन को नहीं सुलझा सका गर मैं !
भुला ना देना तुम मुझको,, की तुम मेरी जरूरत हो !!

मैं तुम बिन दो कदम हमदम न चल पाऊंगा जीवन में !
दखल हर साँस में हरदम......बसी हो मेरी धडकन में !!
तुम्हें कितना हैं चाहा हमनफ़स,.. बतला नहीं सकता !
हमेशा तुम रही शामिल.........ख़ुशी में और क्रंदन में !!

तुम्हें मैं क्या करूं अर्पण,..... मेरी झोली तो खाली हैं !
की तारे गिन रहा हूँ मैं ........सुबह भी होने वाली हैं !!
दिये रोशन इन आँखों में.....तब्बसुम लब पे ठहरा हैं !
तुम्हारा जन्मदिन होगा...........मगर मेरी दिवाली हैं !!

बस एक किरदार

एक बस किरदार ही, दुनिया में यां रह जायेगा !
नाम मत पूछो मेरा,, ये नाम तो गुम जायेगा !!
मेरी बातें,, मेरे नगमें,, मेरी नज़्मों,, में कहीं !
जो भी देखे, आपका चेहरा नज़र आ जायेगा !!
...हरीश ...

आज बस कश्मीर लिखेंगे ...

जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा चलाये जा रहे छद्मयुद्ध की बर्बरता से उपजी कुछ पंक्तियाँ आपकी नजर अगर वतन से प्यार हैं दोस्तों तो एक बार जरूर कश्मीर लिखियेगा .....

ना ग़ज़ल,, ना नज़्म...कोई हीर लिखेंगे !
ना अश्क़ मैं डूबी कोई, तहरीर लिखेंगे !!
शायरों रहने दो, हुस्नों इश्क के चर्चे ज़रा !
आज बस कश्मीर बस कश्मीर लिखेंगे !!
फिर वही गुस्ताख़ रहबर,, फिर वही अय्यारियां !
फिर वही जयचंद हैं और फिर वही मक्कारियां !!
लाज़मी हैं घर मैं बैठे क़ातिलों का सर कुचलना !
इस दफ़ा सर पे कफ़न की हो चुकी तय्यारियां !!
सीने पर अब के उन्हीं के, 'चीर' लिखेंगे !
आज बस कश्मीर बस कश्मीर लिखेंगे !!

बाज आ इन हरकतों से सब्र को मत आजमा तू 
खुद लिखेगा खून से फिर दफन अपनी दास्तां तू
फिर कोई बिस्मिल न हो जाये कहीं यूं सरफरोश
सैकड़ों टुकड़ों में बट जाए कहीं न सर से पां तू

अब से हर सैनिक को अपने वीर लिखेंगे
आज बस कश्मीर बस कश्मीर लिखेंगे 

देखते हैं कितने सीने,.... देश के छलनी करोगे !
देखना उससे जियादा,, तुम हमें सदके मैं दोगे !!
डरते नहीं हैं छातियों पर,,, गोलियों की मार से !
एक तुम मारोगे लेकिन माँ कसम सौ सौ मरोगे !!
गिन लो हर इक सर पे अब शमशीर लिखेंगे !
आज बस कश्मीर..... बस कश्मीर लिखेंगे !!
.......हरीश,,,,,
बहुत थका सा हैं कन्धा, सुकून मिल जाता !
मैं अपने सर को ज़रा सा उतार लेता अगर !!
.......हरीश....

Monday, June 27, 2016

पिता की सकून

हर पिता की सुकून-ए -ज़ां होती हैँ बेटियां !
दुश्वारियां आ जाये तो माँ होती हैँ बेटियां !

अब वो रोशन

अब वो रोशन, किसी अौर ही आस्मां होगा !
वो चाँद जो सुबह तक, मेरे फ़लक पर था !!
......हरीश ....

.चाँद



उसकी आँखों में पढ़ लेता  हूँ
मैं फ़ज़र  की नमाज़

उसके माथे का
बोसा हैं इफ्तारी मेरी

उसकी मुस्कान में हैं
ईद की सेवइयों की मिठास

कि मेरे छोटे से घर में
इक चाँद  सी बेटी हैं मेरी !!

कुछ पंक्तियाँ ...बस यूं ही

कभी लगता हैं..
तुम सारा ज़माना ढूंढते हो...
यूं ही कुछ गुनगुनाने को, 
सुहाना सा
तराना ढूंढते हो...
ज़रा सी बात हो पाए..
किसी ख़त में ...या फिर छत में
......................बहाना ढूढ़ते हो..😄
चले आते हो छुप छुप के,
मेरी नज़्मों के हर्फों तक..
सुनो न तुम... 😯
...............बताओ तो ...
अभी तक भी ....
क्या तुम मुझमें ...
वो अपना सा... फ़साना ढूंढते हो ??!!

याद तो होगा तुम्हें भी !!

सुनो
तुमसे कह रहा  हूँ  !!
न जाने क्यों
लौट आती हैं
बार बार ज़हन में,
किसी चलचित्र की तरह
तैरने लगती हैं आँखों में,
बचपन की अठखेलियाँ,
छुटपन के दोस्त/सहेलियाँ  ,
अल्हड़ सा यौवन ,
अनसुलझी पहेलियाँ !
याद तो होगा तुम्हें भी !!
वो जोर जोर से पढाई,
खेल खेल मैं लड़ाई ,
शाम तक पकड़म- पकड़ाई ,
गुस्सेल सी छुटकी,
नटखट सा भाई ,
होली का हरियल अबीर
सपाट सा गंगा का तीर,
मुफलिसी में
पर्वत सी पीर
मंदिर का केसरी चीर.
और मां के हाथों के
गुलगुले, पूए, और खीर ,
याद तो होगा तुम्हें भी
न जाने क्यों !
कुछ भी तो बिसरा नहीं हैं ,
छूट गया हैं बस,
आपाधापी की कोशिश में
काम काजी तपिश में,
बच्चों की परवरिश में ,
जीने मरने की हविश में,
और जीवनसाथी से
निभा पाने की कशिश में !
न जाने क्यो,
लौट जाना चाहता  हूँ,
उन दिनों में
बार बार
चलो तुम भी
ढूंढेंगे फिर से
बचपन,
उन्ही अमराइयों में
नीम की निम्बोलियों में
बेर के झुरमुट में
रास्तों की सरपट में 
याद तो होगा तुम्हे !
याद तो होगा तुम्हें भी !!

"मोहब्बत"

उँगलियाँ रख कर 
"मोहब्बत" हर्फ़ पर, 
उसने मासूमी से पूछा 
"क्या हैं ये" !!
 
रुक गए उड़ते परिंदे 

बाम पर,
जिस्म से फिर, इत्र सा झरता रहा !
रात भी --ना
होश में फिर आ सकी ,,
सुब्ह तक वो, तर्जुमा करता रहा !!

बारिशें

बारिशें
यूं ही तो
पसंद नहीं हैं मुझे
टिपटिपाती हुई
दनदनाती हुई सी भी
निर्झर ,झरती हुई सी
कभी रुक रुक के
कभी मूसलाधार
ये बारिशें !
अनायास ही
आ के लिपट जाती हैं
छन्न से
चेहरे पे मेरे
कपकपाती हुई सी ये बूंदे
अपरिचित सी, बिन बुलाई सी
अल्हड़, बे रोक टोक भी
बड़ी बेशर्म हैं
ये बारिशें !
सोचता हूँ
की यूं भी
तो होता होगा
इक सकून , अपनापन भी
यूं ही किसी पे बरस जाने में
खुद मैं समाहीत कर लेने में
अपनत्व भी
स्नेह की पराकाष्ठ भी
बिना शिष्टाचार और दिखावे के,
सुख, जो केवल दैहिक न हो
आत्मिक भी
कितनी निश्छल हैं
ये बारिशें !
फिलहाल
ये लगातार होती बारिश
और उसमें भीगते हुए मैं
और मेरा आस पास
मिटटी की सौधी खुशबू के साथ
भीगते हुए फूल पत्तों के साथ
अंतस तक सराबोर कर
ये भिगो रही हैं मुझे
या खुद
भीग जाना चाहता हूँ मैं
तय नहीं हो पा रहा !!
प्रियतमा सी हैं
ये बारिशें !
जाने कब बरस जातीं हैं
जाने कब रुके
न आये वादा कर के भी
मनमानी हैं उसकी
रिमझिम सी कभी
कभी बूँद भी नहीं
निष्ठुर सी हैं
ये बारिशें !
लो..!!
फिर शुरू हो गई हैं
झिलमिल-झिलमिल सी
ये बारिशें !!

यूं न कह पाओगे तुम !

सुनो..
यूं न कह पाओगे तुम !
.....हर बार ही
चाहतों को
मुट्ठी में दबाये
रेत की तरह
.....फिसलने मत दो !
किसी दिन
मोह के आँचर पर
समृतियों की तूलिका से
एहसासों की शियाही से
.....उकेर लेना सस्नेह ही
कामनाएं,/आकांक्षाएं /इच्छाएं
और उस पर
......लरज़ते होंठों से
बिखेर देना चाहतों का इत्र !
लिख देना एक ख़त
कंपकपाते हाथों से
.......और भेज देना
हवाओं के रुख पर
बिना पता लिखे
......बैरंग ही !
ये तितरियाँ
.......सहचर हैं मेरी
पहुचा ही देंगी
.....मुझ तक !!
.....हरीश....

चाहत



ज़िस्त के मंज़र, बदलना चाहता हूँ !
थक गया हूँ, घर बदलना चाहता हूँ !!
हादसों से कब तलक, छिपता फिरूं !
लाज़मी हैं,,, सर बदलना चाहता हूँ !!
मुस्कुराने का ही,, कुछ सामान कर !
जिंदगी तुझसे, बस इनता चाहता हूँ !!
.......हरीश.......

पीपल


मगरूर आँधियों में जब्त का, संबल खड़ा हैं !
मोड़ पर मेरे गली के , वृद्ध सा पीपल खड़ा हैं !!
रोज उसकी पत्तियों में, साँस लेता हैं शहर !
ऐसा लगता हैं की वो पीपल नहीं, संदल खड़ा हैं !!
इतना ऊँचा हैं की, पूरे अस्मा तक ज़ज़्ब हैं !
इतना फैला भी के, मां का वो आँचल जड़ा हैं !!
रो रहा हैं सर पटकता हैं, मेरी नादानियों पर !
कट रहे पेड़ों पर कातर हैं, वो कुछ बोझिल खड़ा हैं !!
एक पीपल मेरे ह्रदय में भी, उगा हैं आजकल !
यूं गुलमोहर कम ही हैं मुझमें, तीक्ष्ण सा जंगल बड़ा हैं !!
.............हरीश.........

..""घूंघट""

...वो रात
नई "नवेली", सकुचाई सी
मधुमय "चाँद"
...उतावला सा
खिड़कियों के पार कहीं ..!
..चूड़ियों की
भरपूर "छनक" में ,,
स्वप्नीली आँखों की लरज में
..सांसों के आवर्तन में ,,
"रात रानी" सी
"महकती" रही
...वो रात..!!
..""घूंघट""
..न जाने कब
"सरक" गया था
..."होले" से..!!!
...हरीश.....

कुछ दोस्तों के जाने की जद्दो जहद में.....

.
ये जो दर्द सीने में भर गया, यूंही आ के दिल में पसर गया !!
इसे जाने किसकी हैं जुस्तजू, यहीं आ के जो ये ठहर गया !!
कभी तुझसे बाबस्ता था मैं.... तेरी आदतों में शुमार था !
मुझे देखे बिन गुजरा न जो, वही वक्त आखिर गुजर गया !!
मैं तो तुझसे आशना था मगर, तुझे और ही की तलाश थी !
था नवाज़िशों का भरम तुझे, न वो रब्त था न असर गया !!
कभी तो मिलो किसी ग़ज़ल में, किसी नज्म में क़त'आत में !
हुए तुम शहर से यूं गुमशुदा, जैसे नगमा लब से बिखर गया !!
ना मैं हिज्र में ना विसाल में, ना किसी के बेज़ा ख्याल में !
कभी रुख़सती पे ये सोचना, यहीं था अभी जो किधर गया !!
........हरीश.......

.....रिश्ते .....


मेरा कमरा
कुछ अस्त व्यस्त हैं ,
मेरी ही तरह त्रस्त हैं
दस्तक मत देना तुम 
दरवाजे पर
व्यर्थ हैं,
खुल पाने में
असमर्थ हैं !
दरवाजा ओर मैँ भी !
बदरंग हो चुकी दीवारों पर
मौन का कुहासा,
अधखुली खिडकियों पर
पर्दों सी लटकी हताशा
कुर्सियों पर,
औधे मुह गिरे हुए कपड़े
मुह बाये पड़ा तौलिया
दुनिया भर के लफड़े !
टेबल पर
हाथ से छूटी घड़ी
परेशानी, एक छोटी एक बड़ी
चार्जर में जकड़ा मोबाईल
इंच इंच, कम होती स्माइल
चाबियों का, अनमना सा गुच्छा
अश्कों के मोती
इक झूठा, इक सुच्चा
धूल से अटा लेपटॉप
कागजों से
भरा पूरा पर्स
जाने कितनी, पीढ़ियों का कर्स !
छितराया हुआ सा, बिस्तर
रात भर का जगा, तकिया
भीगा हुआ अस्तर
दो बेजोड़ी जूते
मोज़ो से अटे हुए
साँस रोके हुआ एक अदद पंखा
बिना जिल्त डायरी के
श्याह पड़ते कोरे सफ़्हे
भूख सिर्फ भूख ..बाज दफे !
सब कुछ तो हैं
मुझ मैं शरीक, मुझ सा ही
पर सोचता हूँ
की ऐसे ही रहने दूं सब
बेतरतीब, अनसुलझा सा
असंस्कारित, उलझा हुआ
वरना
पहचानेगा कौन फिर मुझे
ये कमरा
पराया सा नहीं हो जायेगा ??
रिश्ते भी आजकल
ऐसे ही अस्त व्यस्त
और उलझे हैं !!
कुछ सवाल हल
कुछ अनसुलझे हैं
रिसने लगी हैं अब
तेज भभक
कमरा तो फिर भी बदल लूं
पर रिश्ते !!
ठीक से न बो पाए
तो, कैसे ढोए जाते होंगे !?!?
----हरीश----

में रोज खत

मैं रोज़, 'ख़त' लिखा करता हूँ, तेरी 'उम्मीदों' को !
ग़र हो सके.... तो ज़रा... अपना 'पता' दे देना !!
तल्खियाँ अफ़्सुर्दगी, झगड़े उतार देता हूँ !
मैँ घर में आते ही.....कपड़े उतार देता हूँ !!
ज़िसको लेना हो ले जाये, आँख भर कर !
मैं सूद खोर हूँ, ....गम भी उधार देता हूँ !!

ज़िद ..


ज़िन्दगी तू भी तो कमज़र्फ थी, जिद में गुजर गई !
कुछ मैं तुझमें गुजर गया, कुछ तू मुझमें गुजर गई !!

कई पीढियां गुजर गई

कई पीड़ियाँ गुजर गई पर सबकी सब अभिशिप्त हो गई ! 
दुशाशन कि वंशावलियाँ, फिर चीरहरण में लिप्त हो गई !!

इस देश का ये दुर्भाग्य कहूं या, अकर्मण्यता अपनों कि !
हर विकास की कीमत पर बस, संवेदनाएं रिक्त हो गई !! 
तल्खियाँ अफ़्सुर्दगी, झगड़े उतार देता हूँ !
मैँ घर में आते ही.....कपड़े उतार देता हूँ !!
ज़िसको लेना हो ले जाये, आँख भर कर !
मैं सूद खोर हूँ, ....गम भी उधार देता हूँ !!

तू यूँही मुझे छोड़ के

तू, यूं ही मुझे छोड़ के, तो जा नहीं सकती !
ज़िंदगी, तुझसे सवालात का, रिश्ता हैं मेरा !!

ताम्बई सी मुस्कान

ताम्बई सी मुस्कान पे, मासूमी की अदा ! 
खवाबों की चम्पई सी ज़रदोज़ी लगता हैं !!
जाने क्या था ऐसा, उसकी कंजई आँखों में !
मुझको शहर का चांद, फिरोजी लगता हैं !!
उसकी "नज़रें" खुद ही,, ना लग जाएं मुझे !
ये सोच के "माँ", मेरा चेहरा बिगाड़ देती थी !!
धूप हो बारिश हो, या आज़माइश खुदा की !
छुपा के सीने में, "आँचल" की आड़ देती थी !!
वो ये कह के, रस्म-ए-मोहब्बत निभा गई अपनी !!
चल छोड़, कि तुझको तो मनाना भी नहीं आता !!!

Sunday, June 12, 2016

"कोई फूल बन के खिलो कभी,कभी तितलियों सी उड़ो ज़रा "



दोस्तों बेखयाली का एक गीत आपकी नज़र हैं ...अगर पसंद आये तो जताइयेगा जरूर........
................................................................

कोई शाम यूं भी तो हो जरा, मेरा हाथ थामे चलो जरा !
जो मैं हसूं तो,, हसों जरा,, जो मैं रुकूं तो,,रुको जरा !!


मैं पहर.. पहर,,, रहा देखता !
तू नज़र में थी किसी और की !!
मेरी हसरते,,, तेरे नाम थी !
तेरी शोखियाँ किसी और की !!
जैसे सबसे मिलते हो शौक से मेरे साथ भी तो खुलो जरा !
कोई शाम यूं भी तो हो जरा,,, मेरा हाथ थामे चलो जरा !!

मैं भंवर.. भंवर,, रहा डूबता !
तू लहर लहर में समायी थी !!
मुझे साहिलों की तलाश थी !
तूने मौजों से ही निभाई थी !!
तेरा रास्ता हैं अलग मगर,किसी मोड़ पर तो मुड़ो जरा !
कोई शाम यूं भी तो हो जरा, मेरा हाथ थामे चलो जरा !!

तुम दूर हो के भी,,, पास हो !
कभी तो मिलोगी ये आस हो !!
तुम्हें पाया मैंने,, यकीन मैं !
मेरी उम्र भर की,, तलाश हो !!
यूं ही तुमसे कहना हैं कुछ मुझे मेरे पास आ के सुनो जरा !
कोई शाम यूं भी तो हो जरा,,, मेरा हाथ थामे चलो जरा !!

तू ग़जल में हैं, तू ही गीत में !
मेरी हार में,,, मेरी जीत में !!
कभी वेदना, किसी नज़्म की !
कभी पहली पहली सी प्रीत में !!
कोई फूल बन के खिलो कभी कभी तितलियों सी उड़ों जरा !
कोई शाम यूं भी तो हो जरा,,,,, मेरा हाथ थामे चलो जरा !!
जो मैं हसूं तो,,, हसों ज़रा ,,,, जो मैं रुकूं,,, तो रुको जरा !!
.............हरीश............

Friday, April 22, 2016


वो पिछले मोड़ पे, बेसाख्ता रुका क्यों हैं !
कोई वजह ही नहीं हैं, तो फिर खफा क्यों हैं !!
तमाम उम्र गुजारी हैं,,,, खुदपरस्ती में  !
अगर वो टूटा नहीं हैं, तो फिर झुका क्यों हैं !!

फिर मिल के जुदाई कि, कोई रीत न रखना !
हम हार भले ही जाएँ मगर, जीत न रखना !!

तुम भूल तो जाओ चलो,,,, मर्जी हैं तुम्हारी !
मुझसे मगर ऐसी कोई,,, उम्मीद न रखना !!

हाँ !! तुमसे ही कह रहा हूँ …(अजीब-ओ-गरीब दोस्तों के लिए )


जब भी मिलते हो,,,,,,,, खफा मिलते हो !
तिलमिलाए हुये भी बाज़ दफ़ा मिलते हो !!


सीधे मुंह बात हो,,,,,, तो पूछना था मुझे !
यूं ही मिलना हैं तो,,,,,, क्यों मिलते हो ??
उम्र भर मैं ही, एहतीयात का पाबंद रहा हूँ !

तुमको तो दिल लगाने का, शऊर कहाँ था !!
तेरे कहने पे मुसलसल, जब्त किया हैं मैंने !
कब से उम्मीद का एक, दौर जिया हैं मैंने !!
अब तो आवाज़ दे, के गले लग जा मुझसे !
ज़िन्दगी तुझको बहुत, वक्त दिया हैं मैंने !!

तुम्हारे जन्मदिन पर

उफ़्फ़ 
फिर भूल गया 
इस बार भी 
तुम्हे 
विश करना 
तुम्हारे जन्मदिन पर 

चलो 
मान लेता हूँ 
याद तो था 
पर नहीं ही दे पाया 
बधाई 
पिछले साल की तरह 

पिछले 
साल दर साल 
यही तो मान लिए था 
हर बार 
की भूल गया था 

पर 
में चाहता हूँ 
याद रखना 
रखता भी हूँ 
फिर भी 
बधाई  सन्देश 
रह   जाता हैं 
मेरे ही पास 
साल दर साल 

वजह भी तो हैं 
और वाजिब भी 
आखिर मेरा जन्मदिन 
तुम्हारे जन्मदिन से  
पहले जो आता रहा  हैं 
साल दर  साल 

तो क्या !!  
भूल जाने का हुनर 
सिर्फ मुझे ही आता हैं ??
यूं तो दुनियां में कोई शख़्श,  मुकम्मल नहीं होता ! 
दर्द भी रुक रुक के होता हैं, मुसलसल नहीं होता !!

अज़नबी से इन चेहरों का, यक़ीन कर लिया हमने ! 
कुछ मसलहात ही ऐसे हैं, जिनका हल नहीं होता !!