Monday, July 10, 2017

माहिया

शुभ संध्या दोस्तों
...माहिया छंद ...

उस पार खड़ी थी वो,-2
......सोणी लगती थी
कम-उम्र बड़ी थी वो ।।

दरिया ये बहता हैं ,-2
.......दूर किनारे हैं
बस इतना कहता हैं ।।

मिलने की जल्दी हैं, -2
.....कब तक आओगे
अब जान निकलती हैं ।।

कहती शहनाई हैं,-2
....प्रीत न करना तू
ये पीर पराई हैं ।।

इश्के दी रुत आई,-2
.....नाल परांदे दे
गुत तेरी लहराई ।।

अम्बियों के गुच्छे हैं,-2
.....तोड़ न देना तू
अभी उम्र में कच्चे हैं ।।

तुझ बिन सब रीत गया,-2
....कब तक याद करें
जीवन तो बीत गया ।।

दुनिया थी बाहों में,-2
.....यार गवां बैठे
हम इश्क़ की राहों में ।।

....हरीश....

Thursday, July 6, 2017

नदी सी हो तुम न

नदी सी हो ना तुम

तुम
झरने सी थी न तुम
बेलाग -बेखौफ़- निर्झर
निष्कपट, निष्कलंक भी
छन्न से गिरा करती थी
तलैइयों में
शायद बचपन था तुम्हारा
और बचपना भी !

तुम्हारा उफ़ान बेजोर हैं अब
तोड़ देती हो कभी कभी
स्वयं के तटबंधों को
यौवन का विस्तार उश्रंखलित हैं
चिर यौवना नदी सी
लगने लगी हो
अब तुम !

विस्तार बड़ रहा हैं तुम्हारा
समवेत हैं अब
सब कुछ तुममे
विचलित नहीं होती हो
अब तुम बाह्य प्रतिबंधों से
गाम्भीर्य अनवरत हैं तुममे
निरंतरताओं में
कैसी स्थिरता हैं अब ये
दरियाह होने की
विडम्बना भी !

कल ,
विस्मृत हो जाओगी तुम
निराकार भी
तिरोहित होने को हो अब
खिलखिलाती चंचलता
मदमस्त उश्रंखलता
भरपूर यौवन
और सम्पूर्ण गाम्भीर्य के साथ
अनंत सागर के
आगोश में !!
नियति..यही होगी तुम्हारी !!
....हरीश....

यादें तुम्हीं ने कहा था

""यादें""....तुम्हीं ने कहा था न ...
यूं ही तो कहीं
मिल जाती हैं
भूली बिसरी सी यादें,
किसी तन्हां दराज
या किसी
पुराने ब्रीफकेस
की जेबों में,
कोई नॉवल
या कालेज की
किताबों में,
...कुछ पत्तियां
सूखे गुलाब की,
....कुछ पीत
अतीत के पन्ने,
..धुंधलाये से कुछ
ग्रीटिंग कार्डस,
...अधलिखा सा
गुलाबी लेटरहेड,
पहले पहले गिफ्ट का
"लव यूं" वाला रैपर,
..उखड़ी उखड़ी सी
ब्लैकनवाईट तस्वीरें,
..कालेज कैंटीन
की आंखरी बेंच पे
उकेरा हुआ
...कोई नाम,
चमक खोता
जर्किन जड़ा टाई पिन,
...टूटा हुआ
मैंचिंग कफ बटन,
प्रेस से जली
..चैक वाली
हाफ शर्ट,
नाम के अक्षर वाला
..की रिंग,
..खाली परफ्यूम की
दिलकश शीशी,
सलवटों मैं गुम
..फिरोजी सा रुमाल,
यूं ही तो कहीं
मिल जाती हैं
...यादें....!
तुम बताओ तो
..तुम्हें याद हैं..
तुम्हीं ने कहा था
""यादों की कोई..
........शक्ल नहीं होती !!

अधूरा चाँद

अधूरा "चाँद" हैं 
...उस पार 
और "हसरत" बड़ी हैं  
सुलगता आसमां  
....उस पर  
"सितारों" की  लड़ी हैं
वो मेरी "हमनफस" हैं 
....हमकदम   
मेरी "कमसिन" परी हैं    
बहुत मासूम  हैं 
...लेकिन 
मेरे रेशम के कुरते पे 
वो चांदी  सी  जरी हैं 

जरा सा ये 
.....कहा मैंने... 
की "सुरमई शाम" रोशन  हैं 
...जो दिल में  हैं 
वो मुझसे आज "कह दो"... 
सुनो उसकी 
....वो कहती हैं 
अगर मुझसे 
....."मोहब्बत" हैं 
मुझे वो चाँद "ला दो"... 

बताओ अब मेरे यारो 
....की क्या कह दूं 
यही मुश्किल बड़ी हैं 
....और इक "वो" हैं  
बहुत "जिद्दी" 
.....की तब से ही   
इसी जिद पे 
......अड़ी  हैं 
की गुस्से में खड़ी  हैं 

वट सावित्री व्रत

वट सावित्री 

सुनो  
ये जो सितारों जड़े  
आसमान को 
झिलमिल साडी बना 
ममत्व का 
प्रदीप्त दुप्पट्टा खींच  
कुमकुम की  
सिन्दूरी  आभा 
सजाई   हैं तुमने 
उन्नत ललाट पर 
सदा सुहागन सा ये 
मांग टीका   
अधरों तक बलखाती 
दूज का चाद सी 
तुम्हारी ये नथ
कर्ण फलकों को छूते 
कुंडल 
देव सुता सी तुम  
अवर्णनीय सी 
लगती हो  
मैं 
ये तो नहीं जनता 
की वजह  
निर्जल उपवास 
हैं या तुम्हारा अडिग 
 विश्वास 
ये भी नहीं की 
एक जन्म का हैं ये 
या जन्म जन्मान्तर का साथ 
पर वो चौथ  का चाँद 
आज फीका जरूर हैं 
इस पूनम के चाँद के आगे 
तुम्हारा विश्वास बहुत बड़ा हैं 
किसी भी उपवास 
या नियमबद्धता से 
कहने को तो 
उपवास 
मैंने भी तो रक्खा हैं 

माँ भी कभी बूढ़ी होती हैं

उम्र की देहरी पर 
दस्तक देती 
अनमनी साँझ की 
आंखमिचोली 
अधपके घुंघराले बाल 
बिंदी टीकोली 
क्या खूब 
फब्ती हैं तुम पर !   

आँखों मैं सजाये  
कुछ मखमली ख्वाब 
अस्मिता का बंधन 
हर्ष जनित अश्रु 
मुस्कान हसीं क्रंदन
मेरे ही इन्तजार में न !

देख लेना 
लौटा रहा हूँ खुद को  
पहुच ही जाऊंगा 
तुम्हारे हाथों की
लकीरों के
मिटने से पहले

एक बात कहूं   
चिरयौवना ही तो हो तुम 
सदैव ही 
हो भी क्यों न  
मां भी कभी 
बूढी होती हैं भला !! 
,,...हरीश भट्ट ,,,..

मुक्तक

दो पंक्तियाँ इस बदल पर ...

कभी नजरें नहीं बदली, कभी मंजर नहीं बदले !
रकीबों के उन हाथों में, कभी खंजर नहीं बदले !! 
जमाना तो बदलता ही रहा था, पहली फुर्सत में !
 तुम्हारे आसूंओ से भी ...मेरे बंज़र  नहीं बदले !!
 ...हरीश ..


मुफलिसी बेचारगी, जब से नुमाया हो गई 
मुख़्तसर  सी उम्र थी, वो भी जाया हो गई 
रोज ही बढ़ती गई चेहरे पे उनकी शोखिया
और मेरे हिस्से की उजली धूप साया हो गई  
 

गाँव उसका खो गया

"गाँव उसका खो गया " 

दर-ब-दर इतना चला वो, पाँव उसका सो गया !
हाँ शहर तो मिल गया पर गाँव उसका खो गया !!
एक बच्चा दुधमुहां सा, मां से लग कर रो गया !
दिन ब दिन खेला वो मिटटी, रास्ते सा हो गया !!

दौड़ता था गाँव की, गलियों मैं वो दिनमान भर !
थक के सो जाता था छत पे आसमां को तान कर !!
खेत खलिहानों मैं रच कर स्नेह सा वो बो गया !!
हाँ शहर तो मिल गया पर गाँव उसका खो गया !!

जब बढ़ा वो जिस्म में, घर से चला वो शहर को !
रोजी रोटी की ललक में... भोगने हर कहर को !!
स्वप्न मिटटी की ललक के आसुओं से धो गया !
हाँ शहर तो मिल गया पर गाँव उसका खो गया !!

याद आती हैं उसे अब,..... गाँव की अमराइयाँ !
तीज के वो मेले ठेले ,.......ताल की गहराइयाँ !!
दर्द की शिद्दत बड़ी तो,....मुह छिपा के रो गया !
हाँ शहर तो मिल गया पर गाँव उसका खो गया !!

सोचता हैं वो शहर के ..दम तोड़ते वातावरण में !
क्यों फंसा बैठा वो खुद को झूठ के छद्मावरण में !! 
क्यों न आया लौट कर वो गाँव से फिर जो गया !
हाँ शहर तो मिल गया पर गाँव उसका खो गया !!

कभी प्रेम लिखने को मत कहना

प्रिये
फिर कभी
प्रेम लिखने को
मत कहना

प्रेम में 
वीतराग होना
ठीक वैसा ही हैं
जैसे
अनमना बसंत
छू के लौट जाये
कोंपलों को
सहलाये बिना
देख लेना
मैं रुक नहीं पाऊंगा
तुम रोक नहीं पाओगी

प्रेम
कोई गणितीय सूत्र भी नहीं
सैधान्तिकता भी नहीं
परिमार्जन नहीं हुआ
तो अंतर का विच्छेद
स्तब्धकारी होगा
कचोट देगा बहुत कुछ
उसे
परिधिहीन रहने दो
अकथित ,अघोषित भी
क्योंकि
मैं प्रेम में
व्यक्त न हो पाउँगा
और तुम
परित्यक्त न कर पाओगी
प्रेम
पाणिग्रहण की
सप्तपदी भी नहीं
की जीवनपर्यंत
वचनों का आधिकारिक बोझ
सीने पे रक्खे रहें
अकर्मण्य सी स्थिति में भी
निभाने न निभाने के
अंतर्द्वंद में भी
इसीलिए कहा
की में जब्त न हो पाउँगा
तुम तृप्त  नहीं हो पाओगी 

यूं भी
प्रेम का सीमांकन
और परिमांकन
मेरे बस में नहीं
परिभाषित होना
कठिन ही होगा न

इसलिए ही कहता हूँ 
की मैं... प्रेम में
विरक्त नही हो पाउँगा
और तुम 
आसक्त नहीं हो पाओगी 

तुमसे कोई शिकवे गिले भी तो नही

क्या कहें तुमसे कोई... शिकवे गिले भी तो नहीं !
ये तो हैं की वक्ते-रुखसत, तुम मिले भी तो नहीं !!

हमसफ़र तुम हो मेरी, इतना यकीं तो था मगर !
दो कदम भी साथ लेकिन, तुम चले भी तो नहीं !!

इस शहर में दफन हैं..... यादों के कितने कारवां !
उसपे सितम तन्हाइयों के, दिन ढले भी तो नहीं !!

हाँ तिज़ारत कागजी फूलों की.... दौलत भर गई !
गुलमुहर बागों में लेकिन, फिर खिले भी तो नहीं !!

हाथ मेरा थाम लेंगे... ये तो न था अपना नसीब !
पर बंद दरवाजों की मानिंद, वो खुले भी तो नहीं !!

कब ज़माने में मिला हैं... दोस्तों सबका मिज़ाज़ !
ज़ख्मो पर मरहम लगायें, इतने भले भी तो नहीं !! 

बेवफा था तू ये माना... दिल को समझाया मगर ! 
ख़्वाब आँखों में किसी के.. फिर पले भी तो नहीं !!

नज़्म- तुझे चाहा था मैंने उम्र भर

नज़्म....

तुझे चाहा था मैंने...उम्र भर !
ये हौसला भी तो कम न था !!
क तेरे ...गम के सिवा मुझे !
मुझे और कोई भी गम न था !!

तूने साथ मेरा दिया नहीं
मेरे हमकदम तू रहा नहीं
था अकेला फ़सल-ए-बहार मैं
कोई फूल भी तो खिला नहीं
तुझे पाया फिर भी ख्याल में
ये भी राबता कोई कम न था
क तेरे ...गम के सिवा मुझे !
मुझे और कोई भी गम न था

मेरी शाम अब भी उदास हैं
इसे कैसी जाने ये प्यास हैं
हैं ये सूनी सूनी सी रहगुज़र
किसी कारवां की तलाश हैं
तेरे हाथ में.....
मेरा हाथ था
ये साथ भी कोई
कम न था
क तेरे ...​​ गम के सिवा मुझे !
मुझे और कोई भी गम न था !! 

मेरी हसरतों का सिला हैं ये  
मुझे फिर भी कोई गिला नहीं
तेरा इसमें कोई कसूर क्या
तुझे वक्त भी तो मिला नहीं
तेरा जिक्र तेरा ख्याल था
तुझे सोचना कोई कम न था
क तेरे ...गम के सिवा मुझे !
मुझे और कोई भी गम न था

सुना हैं रंग तुझे

एक नज्म 'फ़राज़" साहब की जमीन पर ....

सुना हैं रंग तुझे, खुद-ब-खुद सजाते हैं !
और बेसाख्ता ही, तुझपे बिखर जाते हैं !!

सुना हैं शाम, गुजरती हैं तेरी जुल्फों से !
सितारे डूब करजाने से मुकर जाते हैं !!

सुना हैं फागुनी गीतों पे, तुम मचलते हो !
पाँव रुकते ही नहीं, धुन पे बिफर जाते हैं !!

सुना हैं की गीले रंगों से, तुम लरजते हो !
हम भी सूखे ही रहे, छोडो की घर जाते हैं !!

सुना हैं गजलें भी तुम पर, आह भरतीं हैं !
तुझ तक आ कर नगमें भी, ठहर जाते हैं !!

सुना हैं गालों पे उसके गुलाल रुकता नहीं !
नज़ारे ठहर के चुपचाप .....गुजर जाते हैं !!

सुना हैं रंग तो उनके भी, धुल गए कब के !
वो जो कहते थे मोहब्बत में निखर जाते हैं !!

सुना हैं छज्जों पे अब वो निकलते ही नहीं !
पिछली होली की किसी बात से डर जाते हैं !!

कोई भी शख्श मेरा बाज दफा नही रहता

.एक मतला और चंद शेर ...

कोई भी शख्श मेरा, बाज़ दफा नहीं रहता !
वो चला जाता हैं अक्सर, रुका नहीं रहता !!


मुझको मगरूर जो कहते हैं गलत कहते हैं !
मैं बहुत देर तक, खुद से खफा नहीं रहता !!


उसकी तस्वीर को मैं, रोज़ ही पढ़ा करता हूँ !
यूं उसके चेहरे पे कुछ भी लिखा नहीं रहता !!

 
इसी जमीन पे ढूढों उसे, इश्क-ओ-शिद्दत से !
उस आसमान में अब कोई, खुदा नहीं रहता !!