एक कोशिश मेरी भी बेबहर सुधीजनों की नजर
बड़े जूनून से,, दीवार-ओ-दर से निकला था !
वो कतरा-ए-खूँ जो, मेरी नजर से निकला था !!
मेरी तलाश में हर शख्श, घर से निकला था !
कि इक शहर था वो पूरा, शहर से निकला था !!
ये क्या अजाब हैं, वहशत सफ़र की हैं शायद !
खबर नहीं हैं की सूरज, किधर से निकला था !!
ये माना तुझसे मुझे, ...प्यार बहुत हैं लेकिन !
वो कौन था जो सुबह, तेरे घर से निकला था !!
तमाम रात मेरी ......हिचकियों में गुजरी थी !
की वो गुबार मेरी, चश्म-ए-तर से निकला था !!
वो उसके होंठों पे, सहरा की प्यास थी शायद !
वो छोटा बच्चा जो, भूखा सहर से निकला था !!
मेरे ख्याल में तो, इसको जफ़ा नहीं कहते !
वो पत्ता टूट के खुद ही ..शजर से निकला था !!
हरीश भट्ट
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