नदी
सी हो ना तुम
तुम
झरने
सी थी न तुम
बेलाग
-बेखौफ़- निर्झर
निष्कपट, निष्कलंक भी
छन्न
से गिरा करती थी
तलैइयों
में
शायद
बचपन था तुम्हारा
और
बचपना भी !
तुम्हारा
उफ़ान बेजोर हैं अब
तोड़
देती हो कभी कभी
स्वयं
के तटबंधों को
यौवन
का विस्तार उश्रंखलित हैं
चिर
यौवना नदी सी
लगने
लगी हो
अब
तुम !
विस्तार
बड़ रहा हैं तुम्हारा
समवेत
हैं अब
सब
कुछ तुममे
विचलित
नहीं होती हो
अब
तुम बाह्य प्रतिबंधों से
गाम्भीर्य
अनवरत हैं तुममे
निरंतरताओं
में
कैसी
स्थिरता हैं अब ये
दरियाह
होने की
विडम्बना
भी
!
कल
,
विस्मृत
हो जाओगी तुम
निराकार
भी
तिरोहित
होने को हो अब
खिलखिलाती
चंचलता
मदमस्त
उश्रंखलता
भरपूर
यौवन
और
सम्पूर्ण गाम्भीर्य के साथ
अनंत
सागर के
आगोश
में !!
नियति..यही
होगी तुम्हारी !!
....हरीश....
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