Tuesday, September 25, 2012

स्वेटर


तुम,,
कैसे बुन लेती हो !!
कविता भी,,
स्वेटर कि तरह !!!
एकसार त्रुटिहीन..
गुनगुना सा...!!
शब्द ,,
एक दूसरे में गुथे हुए,,,
प्रीत के फंदों में सिमटे ,,,
अनगिनित रंगों ...
असीमित विस्तार ,,
में सजे हुए ..!!
ऊन का सा
मखमली एहसास..
कविता में भी ..!!??
कैसे पिरो लेती हो तुम..!!""
सृजन की यह आत्मीयता
स्संस्कार ही होगी तुममे
या कालांतर में विकसित
हुई हैं ये कला..!!
अपरिपक्व शब्दों से
मंथरित वाक्यांशों तक
यूंही तो गढ़ती थी तुम
ऊन के लच्छों को
व्यवस्थित गोलाइयों में 
बुनावट का ये क्रम
कैसी तल्लीनता का द्योतक हैं..!
सुध बुध विहीन हो जैसे..!!
कैसे पिरो लेती हो ..??
सुख -दुःख को
शब्दों की सिलाइयों में
सभी रंग तो हैं यहाँ
देखो तो ..
कभी मात्राओं  की तरह
फंदों का घट बढ़ जाना
कभी वैचारिक तारतम्य का
धागों की तरह टूट जाना
कभी किसी कोने में
अधबुना सा
अधलिखा सा छूट  जाना
कभी अखबार
या चाय की चुस्कियों के साथ
जब तुम पूछ लेती हो
शोख रंगों या पैटर्न
के बारे में
विन्यांश या साइज के बारे में
में उलझ सा जाता हूँ ..!!??
तुम नए स्वेटर की बात कर रही हो
या नई कविता की
लो..!!!!
कब पूरा कर लिया तुमने इसे..,,!!
पता ही नहीं चला  

गर्वित सी उश्मिता लिए
ओढ़ लेता हूँ मैं
स्वेटर हो 

या तुम्हारी पंक्तियाँ
ह्रदय से लगी हुई ..!!
और.. बढ़ जाती हैं
आँखों की चमक
जब मेरे नाम को उकेर लेती हो तुम
अक्षरों के धागों में
सोचता हूँ...
की तुम ...,,
"स्वेटर"

ज्यादा अच्छा बुनती हो...
या 

"कविता" ..?!?!

Friday, August 10, 2012

रक्षा सूत्र




उसने,
कितने ममत्व से 
मेरी कलाई पर
रक्षा के
दो रेशमी सूत्र बांधें !!
तिलक किया
मस्तक पर
कपकपाते हाथों से
आरती उतारी
स्वाभिमान से
कंधे को छू कर!
आजीवन रक्षा और मान का 
आशीशमय संकल्प
स्वतः ही
निकलता हैं मेरे स्वर से तब !

कैसी वचनबद्धता हैं
कैसा समर्पण,
गदगद हैं वो
संतुष्ट भी ,
आश्वशत  भी !!

 पर ??
फिर किसी चौराहे से
निकलते हुए,
होते देख
किसी महिला का अपमान,
निरुत्तर
क्योँ हो जाता हूँ मैं,
जड़  हो जैसे
क्यों याद नहीं रहता वो
रेशमी सूत्र का बंधन,
रोली तिलक और चन्दन,
ममत्व से अभिसिंचित
मुस्कान हसीं  क्रंदन
आशीष के वो पुष्प
और आरती का दिया
क्यों हो जाते हैं 
नेपथ्य में.! 

आखिर क्यों
कि वो मेरी सहोदरा न थी,
क्योंकि वो एक पृथक रूप हैं..
क्योंकि रक्तरंजित..
उस हाथ ने..
नहीं बाधा था,
वो बंधन,
या ये मेरा दृष्टि दोष हैं,,
क्यों नहीं देख पता..
उसमे..
में स्वयं का अभिमान,
नारीत्व का स्वाभिमान,

मेरी कलाई पर..
रेशमी सूत्र के वो धागे..
मेरा मुह चिढाते हैं..
उनकी चमक.
सह नहीं पाता  मैं, 
क्या अधिकार हैं मुझको..
धारण करने का फिर..
रेशमी सूत्र का  वो बंधन..

इससे तो ..
सूनी कलाई का अभिशाप..
सहना ही..
फलित होगा,
किसी दिन..
यदि हर सूत्र की..
लाज न बचा पाया तो  !!

Monday, July 23, 2012

रोटियां !

हर उम्र हर इक दौर को, ढोती हैं रोटियां !
ओ देश तेरे हाल को..., रोती हैं रोटियां !!

बचपन गया सूनी रही, अम्मा कि कढ़ाही  !
आई जो जवानी रही... रोटी कि लड़ाई !
रिश्तों ने भी बस खून कि हैं, प्यास बढाई!
हैं कौन वो जिसके नहीं, फूटी ये बिवाई !

कितने जतन से टीस भी, बोती हैं रोटियां!
हर उम्र हर इक दौर को, ढोती हैं रोटियां !!

कितनी ही सभ्यताएं , नस्लें भी खट गई !
रोटी कि भूख में कई...किश्तों में बट गई !
विस्तृत थी जो एश्वर्य में, सीमायें घट गई !
गंगा-ओ-रावी कि धरा, लाशों से पट गई !

मस्तक को अपने रक्त से, धोती हैं रोटियां !
हर उम्र हर इक दौर को, ढोती हैं रोटियां !!


उस माँ से पूछो जिसका, चूल्हा नहीं जला !
परदेश गया था वो जो, बेटा.. नहीं मिला !
रोटी कि कशमकश में, दिए सा जो जला !
जीवन कि रसोई ने उसे, चुपचाप ही छला !

बरसों  तवे पे खुदको ही, सेती हैं बेटियां !
हर उम्र हर इक दौर को, ढोती हैं रोटियां !!

Saturday, May 5, 2012

अंतस तक प्यासी हैं धरती

देहरादून के गडवाल विकास निगम का वह कांफ्रेंस हॉल तालियों की गडगडाहट से गूँज रहा था मंच पर राज्य के सांस्कृतिक विकास मंत्री श्री परमार जी ने अपना उद्बोधन देना शुरू किया ...."मुझे ख़ुशी हैं और गर्व भी,.. इस साल का संस्कृति रत्न पुरुस्कार श्री अनिरुद्ध डबराल जी को देते हुए ...आज  इनके काव्य संग्रह "अंतस " का विमोचन करते हुए मुझे अत्यंत हर्ष हो रहा हैं...इतनी कम उम्र में ऐसा प्रखर सृजन......... ""....और हाल एक बार फिर तालियों की गडगडाहट से भर गया....
अनिरुद्ध की आंखे स्टेज पर खड़े खड़े डबडबा आई थी ....आज उसका सपना जो साकार हो रहा था ...चिर प्रतीक्षित सपना ...उसकी पिता जी कि आँखों में चमक बड़ गई थी... बढ़ा आयोजन था...सब दोस्तों कि नजरें  आज अनिरुद्ध पर ही थी ...और जब अनिरुद्ध ने अपनी पुस्तक से कविता के  कुछ अंश पढने शुरू किये...
अंतस तक प्यासी हैं धरती
आओ अम्बर को बतलाये ....

तब वहीँ तो थी कादम्बिनी  हॉल के दूसरे दरवाजे कि ओट  में ....हजारों बार सुनी थी उसने यह कविता अनि के मुह से ...तब उसे लगता था जैसे धरती कि नहीं यह उसकी स्वयं कि बात हो...."अंतस तक प्यासी हैं धरती.....
कुछ दिन पहले  कि ही तो बात हैं .....
""अनिरुद्ध ""....बहुत दिन से तुमने कुछ नया नहीं लिखा...... पूछा था कादम्बनी ने...एक सकून भरी मुस्कराहट के साथ कहा था अनिरुद्ध ने...नहीं कादम्बनी कुछ नया लिखने का मन नहीं ...मेरे अन्दर से तब कुछ उत्सर्जित होता   हैं  ..जब में अकेला  होता हूँ ...दर्द और बेचैनी निकल ही आती हैं वर्कों पर ...लेकिन ...तुमसे मिलने के बाद सब कुछ पा लिया लगता हैं मेरी तलाश ख़त्म हुई...
"लेकिन अनिरुद्ध तुम्हारे सपने...तुम चाहते थे न कि तुम्हारा काव्यसंग्रह....."" ...
ओहो....कादम्बिनी ...तुम हो ना मेरा काव्य संग्रह...आओ कहीं काफी पीते हैं

पर अनिरुद्ध तुम्हारा सपना मेरा भी तो हैं ..में तुम्हे आगे बढ़ते देखना चाहती हूँ जरूरी तो नहीं केवल मिलन और विछोह के ही गीत लिखे जाये...खुशियों के पल भी तो हैं सामाजिकता ..संस्कृति...
प्लीज़ कादम्बनी ...सुबह सुबह ..क्यों मूड ख़राब कर रही हो ..तुम्हारी दोस्ती मुझसे हैं या मेरी रचनाओं से..कसक कर कहा अनिरुद्ध ने
 नहीं अनि ..तुमसे तो हैं पर ..तुम्हारी रचनाओं  में  मेरा जीवन बसता  हैं....  तुम्हारी रचनाओं कि नायिकाओं में मैं खुद को तलाशती हूँ ...रख के देखती हूँ खुद को ...
हहहहहः ....क्या कादम्बनी ...तुम भी न...अरे कल्पनाओं कि नायिका और तुममे बहुत फर्क हैं ..
.हँसते हुए कहा था अनिरुद्ध ने
वो तो अतीत हो जाती हैं ...पल में ओझल ..पर..पर तुम तो मेरा वर्तमान हो...तुम से तो मैंने जीना सीखा हैं ....अच्छा  ..सुनो...प्लाजा में नई फिल्म लगी हैं ...शाम को चलते हैं ...वहीँ रेस्तरां  में कुछ खा लेंगे..
नहीं अनि...आज मुझे कुछ काम हैं में चलती हूँ ...बाय ..

घर लौटते हुए कादम्बिनी  के चेहरे पे उदासी थी ...वह सोच रही थी ...कि कैसे अनिरुद्ध को बताये कि उसकी बातों में उसकी रचनाओं में एक अलग बात हैं ...वह अच्छा लिख सकता हैं ...इतना कि दुनिया उसे पढ़े ...और उसे सर आँखों पे बिठाये
कादम्बिनी अनिरुद्ध को बचपन से जानती थी दोनों  एक दूसरे कि चाहत थे पर कादम्बनी कि नज़रों में प्यार के मायने अलग थे वो जब अनिरुद्ध कि आँखों में आगे बढ़ने का सपना देखती थी..जब उसके चेहरे पर भविष्य कि ख़ुशी कि झलक महसूस करती थी तो उसे लगता था कि शायद यही चाहत हैं उस खुशी उस सपने को पूरा करने में ही उसके प्यार का हक अदा हो जाये शायद

शाम गहरा गई थी सोचते सोचते ...घर भी नजदीक ही था...
सुबह ही अनिरुद्ध का फोन आ गया ...."कादम्बिनी याद हैं ना तुम्हे आज तुम आपने घरवालों से मेरे बारे में बात करोगी ""
""क्या बकवास कर रहे हो अनिरुद्ध ..एक दो बार तुम्हारे साथ घूम क्या लीया  तुमने मुझसे रिश्ता जोड़ लिया ...तुमने सोच भी कैसे लिया कि में तुमसे शादी करूंगी ....आगे से कभी मुझे फ़ोन मत करना""
और...फोन काट दिया कादम्बनी ने ....उसकी आँखों में खारापन बड़ गया था ....हाँ यही तो सोचा था उसने कल शाम घर वापस आते हुए गहराते अंधियारे में.............
और अनिरुद्ध जड़ होगया था ..सुन कर...उसने कादम्बिनी को मिलने की कोशिश की तो पता चला वह आपने मामा के यहाँ चली गई हैं ..हल्द्वानी ..कोई कोर्स के लिए...
छः माह बीत गए शायद....
कांफ्रेंस हाल से निकलते हुए बुक स्टाल से कादम्बिनी ने  अनिरुद्ध की कविताओं का संकलन खरीदा ..प्रथम पेज पर ही "दो शब्द .."पढ़ कर उसकी आंखे फिर से नम हो गई वह दौड़ रही थी पूरे वेग से घर की और ....
लिखा था ....
""एक स्नेहिल मित्र के अंतस को समर्पित.... ""
कौन जान सकेगा की ..क्यों घुमड़ कर आये मेघ कभी कभी धरती को प्यासा छोड़ कर रुख बदल लेते हैं जबकि उनकी तृप्ति भी धरती को अंतस  तक भिगोने की ही हैं ...
कौन जान सकेगा...??

Saturday, April 21, 2012

बिंदी

क्षितिज की
लालिमा
कोरी सी
लगेगी,
सपाट
हो जायेंगे,
देवस्थलों के
उतुंग
शिखर!
बाढ़ सी
छितरा देंगे,
गंगा के
ये उर्वरा मैंदान,
अगर तुमने
माथे से
ये बिंदी
बदल ली
तो... !!!!!
में हर रिश्ते को  शिद्दत से सर-ए-तस्लीम  करता हूँ
वो मुझ पर फर्ज था उसका बेइरादतन  मुस्कुरा देना

मंदिर कि सीडियां चड़ते हुए


मंदिर कि सीडियां चड़ते  हुए
साथ साथ 
श्वास दर श्वास
देखता हूँ उसे

दोनों हाथों में
पूजा का थाल लिए
सर पर
उम्मीदों का पल्लू रक्खे
कजराई आँखों में
सम्पूर्ण विश्व का
वात्सल्य समेटे
कुसुमित   से होठों पर
प्रार्थना  के स्वर   लिए
कदम दर कदम
निर्भीक और प्रफुल्लित

लगता हैं कई कई बार
अलग अलग समयांतर पर
कई कई युगों  में
चड़ी होंगी से सीडियां हमने
यूंही साथ साथ
नयनों से करबद्धता  का
भाव प्रेषित करते हुए

सोचता हूँ
कुछ भी तो नहीं बदला
साल दर साल
आज भी वही प्रतिबद्धता
वही विश्वास
जब पहली बार
इन सीड़ियों पे
कदम रक्खा था

मैं जानता हूँ
हर बार
वह "माँ "से
कुछ नहीं मांगती
अपने लिए
प्रत्यक्षतः तो बिलकुल नहीं
उसकी थाली से अर्पित होते पुष्प
दीपक कि ज्योति
रससिक्त  नारियल
स्वयं ही प्रेषित कर देते है मंतव्य

फिर भी हर बार कि तरह
पूछ लेता हूँ में
क्या माँगा आज "माँ" से

और हर बार कि तरह
मुस्कुराते हुए
कहती हैं वो

"वही...
जो तुमने"

हैरान हूँ
उपलब्ध  संभाव्य विकल्पों मैं से
इतना सटीक चुनाव
कैसे कर लेती हैं वो
माँ से मांगते समय भी

Sunday, April 15, 2012

सुना हैं रंग तुझे



एक नज्म 'फ़राज़" साहब की जमीन पर ....

सुना हैं रंग तुझे, खुद-ब-खुद सजाते हैं !
और बेसाख्ता ही, तुझपे बिखर जाते हैं !!

सुना हैं शाम, गुजरती हैं तेरी जुल्फों से !
सितारे डूब कर,  जाने से मुकर जाते हैं !!

सुना हैं फागुनी गीतों पे, तुम मचलते हो !
पाँव रुकते ही नहीं, धुन पे बिफर जाते हैं !!

सुना हैं की गीले रंगों से, तुम लरजते हो !
हम भी सूखे ही रहे, छोडो की घर जाते हैं !!

सुना हैं गजलें भी तुम पर, आह भरतीं हैं !
तुझ तक आ कर नगमें भी, ठहर जाते हैं !!

सुना हैं गालों पे उसके गुलाल रुकता नहीं !
नज़ारे ठहर के चुपचाप .....गुजर जाते हैं !!

सुना हैं रंग तो उनके भी, धुल गए कब के !
वो जो कहते थे मोहब्बत में निखर जाते हैं !!

सुना हैं छज्जों पे अब वो निकलते ही नहीं !
पिछली होली की किसी बात से डर जाते हैं !!
...हरीश भट्ट......

Friday, March 23, 2012

संबंधों कि परिभाषाएं


संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !
मित्र तुम्हारी कामनाएं... फर्जी सी लगती हैं अब तो !!
बेमन कि ये प्रार्थनाएं,. .अब मुझको रास नहीं आती !
प्रिय तुम्हारा प्रेम पत्र भी, अर्जी सी लगती हैं अब तो !!
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !
रिश्तों में अपनत्व कहाँ अब, पहले सा अधिकार कहाँ !
तिनकों सा बिखरा बिखरा हैं, संबल और आधार कहाँ !!
दोमुहेपन कि ये बातें,... अंतस विचलित कर जाती हैं !
शत्रु ह्रदय भी विजय करे जो, अब ऐसा व्यवहार कहाँ !!
करुण दया का भाव भी, खुदगर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
राग और विद्वेष की भाषा, प्रियवाचन पर प्रथ्मांकित हैं !
ह्रदय शूल से वेधित हैं और, चित्त भी भय से शंकित हैं !!
मित्र तुम्हारे बाहुपाश में,,, अपनापन अब निस्तेज हुआ !
कृतिघ्न्ताओं से भरी शिराएँ....धवल रक्त से रंजित हैं !!
कभी जो थी सहयोगितायें, मनमर्जी सी लगती हैं अब तो!
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
अविरल संबंधों कि पूँजी को, क्या पल भर मैं ठुकरा दोगे !
अतरंग क्षणों के प्रतिवेदन, क्या तत्क्षण ही बिखरा दोगे !!
पलभर का भी विचलन तुमको प्रिय कभी स्वीकार नथा !
अब कैसा ब्रजपात की मुझको, ह्रदय से ही बिसरा दोगे !!
साधारण नयनों की भाषा, अपवर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं,, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
......हरीश भट्ट....

Tuesday, March 20, 2012

आइनों का सच

 
खुद तो रोये थे मुझे भी, तो रुलाया तुमने ,
मुझको कल रात भी बेवक्त जगाया तुमने !

कोरे कागज पे न मजमून न पता था मेरा ,
कितनी शिद्दत से ये रिश्ता निभाया तुमने !

आइनों का सच तो यूँभी मुझे मंजूर न था  ,
टूट कर बिखरा हैं, जब भी दिखाया तुमने !

शाम रुक सी गई, मंजर वो  ठहर सा गया,

ऐसे मुस्का के जो पलकों को गिराया तुमने!


हाँ ये सच हैं कि मैं भी था तेरे तलबगारों मैं ,

जब्त करता ही रहा परदा ना  हटाया तुमने !


बेवफा था मैं खुदगर्ज भी  था नज़रों मैं तेरी ,

सिर्फ मुझसे न कहा दुनियां को बताया तुमने!!

Monday, March 19, 2012

एक मरता हुआ शहर


मेरा घर .....
बूढा हो चुका हैं
चुने सुर्खी की दीवारे
पनियाने लगी हैं...
उदास अकडू सा...
बैठ गया हैं
नीव का गीलापन
....
खड़ा हैं मुह बाये....
चूना चूना टपकती
दीवारों के साथ ........
और ये शहर ....
सारा शहर
धड़धडाता  सा
निकल गया हैं आगे को...
कंक्रीट छितरा दिया हो जैसे
गुल्ली डंडे के मैदान में.....
गुलमोहर के वो पेड़
अब नहीं हैं
उनकी जगह
होर्डिंग खड़े हैं..
कॉर्पोरेट दफ्तरों के.
सारा दिन
भांय भांय करती मोटरों का शोर
और आते जाते लोगों की
रेलमपेल ..
इक्का  दुक्का
पनियाले रंग के पंछी को छोड़
कोई नहीं फुदकता
घर आंगन में....
दूर पहाड़ों से आती
आवारा हवाए
आंचल बिंध के चलती हैं अब....
सिम्बल के वो उड़ते
पुछल्लेदार बीज
जाने कहाँ कहाँ तैरा करते थे ....
शाम को गंगा का
हरा हरा पानी
और उसपर तेरते उम्मीदों के दिए.....
लगता था जैसे
सतरंगी आसमान
समूचा तैर रहा हो सामने ही  .....
पांच  रुपये का
चने  की दाल का पत्ता 
और उबले मकई के दाने का स्वाद....
जाने कहाँ रह गया अब
कन्कव्वों से भरा रहने वाला आकाश
नग्न सा दीखता हैं
कोरा सा ..
दूर तक भुतहा हो जैसे...
और सड़कों पर
अनमने से चेहरे
एक दूसरे को घूरते...
लड़ने को बेताब ...
मुह फेर के कन्नी काटना
शगल हो जैसे  ....
सुबह और शाम
एक हाथ में बैत  
दूसरे में
परदेसी से 
दुग्गले कुत्ते की जंजीर थामे
सरसराते हुए लोग
भभकती सांसों को
हलक में धकियाते हुए
दूसरे मोहल्ले के
आँख मटक्के पे  खिसयाते हुए
एक दूसरे को
अपने कमर 
और ब्लड प्रेशर का नाप बताते हुए  .....
शहर की आवारा हवाओं
और राजनीती को कोसते हुए ...
बस...
इतनी सी मोहल्लेदारी
हाँ ....
एक  मरते हुए शहर को देखने का
शायद यही अंदाज हैं

Saturday, March 17, 2012

उस ख़त के कुछ पन्ने,..


बस यूं ही झिलमिल, आँखों से हँसता हूँ!
उस ख़त के कुछ पन्ने, जब भी पढता हूँ.!!...

बोझिल से दिन, तन्हां रातों को लिखती थी !
बचकानी सी कुछ बातें जो, तुम लिखती थी !!
सपनीले ख्वाबों  कि बातें, लिखती थी तुम !
जागी आँखों के सपने भी, तुम लिखती थी !!
अब तक इन आँखों में, उनको ही घढ़ता हूँ !
उस ख़त के कुछ पन्ने, जब भी पढता हूँ...!!.

अपना नाम कहीं कहीं पर, कम लिखती थी !
मेरा  नाम बढ़ा सा लेकिन, तुम लिखती थी !!
कविताये और नज्में भी,, लिखती थी तुम !
गालीब, मीर, मजाज भी, तुम लिखती थी !!
कैसे थे सपनीले दिन, अब सोचा करता हूँ !
उस ख़त के कुछ पन्ने,.. जब भी पढता हूँ...!!.

चिड़ियों कि बाते चटकीली, तुम लिखती थी !
तितली कि इतराहट पर भी तुम लिखती थी !!
बीते कल कि सब बातें भी,लिखती थी तुम !
आज नहीं आओगी  ये भी, तुम लिखती थी !!
याद न जाने तुम्हे आज भी.. क्यों करता हूँ !
उस ख़त के कुछ पन्ने,.. जब भी पढता हूँ...!!.

कब रूठे कब मान गए, ये भी लिखती थी !
पल पल के झगड़ों को भी, तुम लिखती थी !!
कल क्या पहनू ये लिख के, पूछा करती थी !
मैंने क्या पहना था ये भी, तुम लिखती थी !!
मन का खाली सूनापन, अब यूंही भरता हूँ !
उस ख़त के कुछ पन्ने,.. जब भी पढता हूँ. !!

जीने और मरने कि कसमे, तुम लिखती थी !
राधा कि भी प्रीत कि रस्मे, तुम लिखती थी !!
शायद हम ना मिल  पाएंगे, लिखती थी तुम !
शीरी और फरहद के किस्से, तुम लिखती थी !!
अन्धियाले सन्नाटों से मैं ..अब भी डरता हूँ !
उस ख़त के कुछ पन्ने,.... जब भी पढता हूँ. !!

Tuesday, March 13, 2012

ठिठोली

अच्छा...
एक बात पूछूं
सप्नीला वसंत
कोंपलों  से
झाकते झाकते
बौरा सा क्यों गया..?
सर्द हवा ने
कोई ठिठोली की हैं क्या ??
ओह...
तो यूं कहो न..
की पिछले वसंत
कोई था जो
धानी चूनर लिए
हवाओं का रुख
तय करता था !!
तितिरियों के

पाखों में

सुरमई रंग घोलता था !!

भवरे के सप्तसुरों  को

गुंजित करता था !!

अमराई के बौरों में

चटकीला स्वाद भरता था!

क्यों....????

था न कोई.....!!!???

Tuesday, February 28, 2012

मेरे ही फैसलों ने

थी हसरत-ए-परवाज़ मगर हौसला न था !
या यूं भी था की सर पे मेरे आस्मा  न था !!


सारे शहर मैं सबने जिसे आम कर दिया !

महफ़िल मैं तेरी यार मेरा तज़करा न था !!

बेगाने इस  शहर  की, तनहाइयाँ न पूछ !

अपना कहें किसे कोई अपने सिवा न था !!

मैं  भी रह गया उन्ही काँटों मैं उलझ कर !

इसमें खता क्या मेरी अगर रास्ता न था !!

चेहरे पे जम गई थी, ख्यालों की सलवटें !

ऐसे तो हमसफ़र था मगर बोलता न था !!

मेरे ही फैसलों ने मुझे बरबाद कर दिया !

यूं  शक्ल पर उसकी कुछ भी खुदा न था  !!

Friday, February 24, 2012

मेरा नाम न लेना..


कभी पुष्प  तुम्हारे अधरों पर,
खिल जाये तो मुस्काना तुम !
कभी कंजई आंखे शोख लगें ,
तो इतराना... शरमाना तुम !
जो पूछे कोई ये, कैसे  हुआ ,
किसने हैं ये मोहक रूप रचा !
मेरा नाम न लेना.. कह देना.. मौसम की ठिठोली थी ये जरा !!
कभी पुष्प  तुम्हारे अधरों पर, .......

जब तेज हवा..... वासंती हो,
ओ क्षितिज जरा सतरंगी हो!
तब बनना सवरना इठलाना ,
जब इन्द्रधनुष भी, संगी हो !
जो पूछे कोई ये, रंग हैं क्या.
चटकीला सा ये संग हैं क्या !
मेरा नाम न लेना.. कह देना.. गुजरी हुई होली  थी ये जरा !!
कभी पुष्प  तुम्हारे अधरों पर, ......

कोई गीत बिसरते  चेहरों पर,
आ जाये सुलगते, अधरों पर!
गालेना किसीको सोच के तुम,
आहिस्ता गुजरते, प्रहरों पर !
जो पूछे कोई ये, राग हैं क्या,
सांसों का ये आलाप हैं क्या !
मेरा नाम न लेना.. कह देना.. खुद से ही यूंही बोली थी ये जरा !!
कभी पुष्प  तुम्हारे अधरों पर,......
 
कभी आओ यूंही जो बागों में ,
बन्ध प्रीत के कच्चे धागों में !
गर मैं न वहां पर मिल पाऊँ ,
आऊंगा सलोने... ख्वाबों में !
जो पूछे कोई ये, बात हैं क्या ,
गहरा सा, उच्छ्वास  हैं क्या !
मेरा नाम न लेना.. कह देना..यादों  की रंगोली थी ये जरा !!
कभी पुष्प  तुम्हारे अधरों पर,......

--
Harish Bhatt

Monday, February 20, 2012

ठहराव

 
पलकों का
उनींदापन

अब थम जायेगा

शायद,

सीने की हरारतों को

विराम भी !

छट जायेगा

वक़्त बेवक्त की उम्मीदों

का धुधलका ,

निकल जायेगा
वर्षों से पसरा
अनमना सा गुबार !

कम हो जाएगी
हथेलियों की तपिश ,
विस्मृत नहीं कर पायेगी
तारों के टूटने की झलक !
डूब जायेगा
झूठी तसल्लियाँ
देने मैं माहिर
सूरज ,
हमेशा के लिए
देवदार  के पेड़ों के पीछे !
अब न भरमायेगा
क्षितिज का
वो सम्मोहन ,

........
आज
मैंने तुम्हारा
आंखरी 
ख़त 
जला जो दिया हैं
........
अब उस
दराज में
खाली लिफाफे सा
ठहरा हुआ सा हूँ
बिना
पता लिखा हुआ
मैं..!!
--
Harish Bhatt

Tuesday, February 14, 2012

प्रणय दिवस पर


सलीके से मुझे वो आज भी, पहचान लेती है !
मैं जब घर थक के आता हूँ हथेली थाम लेती है !!

न पूछा आज तक मैंने, न उसने ही कहा कुछ !
जुबां खामोश रहती है,, निगाहें जान लेती है !!

कभी जब ख़फा होती, सताने के लिए मुझको !
न रह पाती ज़ुदा मुझसे, यूंही बस मान लेती है !!

में आगे जा नहीं पाता, यहीं तक मेरी 'सीमा' हैं !
वो नजरों में रखती हैं,, जतन से काम लेती है !!

वो उसके गेसुओं में रात,, गहराती हैं जब भी !
मेरी हर आवारगी भी तो, वहीँ आराम लेती है !!

कोई जब पूछता हैं जिंदगी भर का सिला क्या हैं !
मैं उसका नाम लेता हूँ,,, वो मेरा नाम लेती है !!

यही बस जिक्र है उसका, यही पहचान है उसकी !
मेरी नज्में उसी का नाम, सुब्ह-ओ-शाम लेती है !!

हरीश भट्ट, हरिद्वार 

Monday, February 13, 2012

हे ऋतुराज ...न आना तुम ..

 



न ही विचलन और  न, कुछ सन्दर्भ होगा
तुम्हे ऋतुराज होने का कदाचित दर्प होगा
वासंती कर के छोड़ोगे.. धरा में जानता हूँ
हर इक धानी चूनर का यही उपसर्ग होगा  

न तुम अवरुद्ध हो न बद्ध हो इंकार से कोई
न रोके रोक पाया हैं किसी तकरार से कोई
हैं सब ही कुसुम पल्लव तुम पे नतमस्तक
स्फुटित कोंपल हैं, चकित व्यवहार से कोई  
 
हैं कामातुर भ्रमर भी, ओ' पुष्प पल्लव भी
हैं कैसा शोर ये नंदन  में, और कलरव भी
ये चहु ओर पसरा फागुनी सा, इत्र कैसा हैं  
यहाँ यौवन सदृश्य संसर्ग हैं, ओ शैशव भी 
 
तुम्हे क्यों भान हो किसी कि.. वेदनाओं का
तुम्हे क्यों ध्यान किसी कि व्यस्तताओं का  
तुम्हे सुख दुःख से किसी के क्या ही लेना हो
तुम्हे तो भान केवल हैं नियम बद्धताओं का  
 
न तुम साध्य हो मेरे न साधन ही बने तुम
न तुम आराध्य हो मेरे न प्रीतम ही बने तुम
मुझे कुछ भा नहीं पाया ये ऋतुराज सा होना
न तुम बाधक ही हो पाए न संगम ही बने तुम
 
जो फिर आओ मेरे रस्ते तो इतना तो करना 
बीती रुत कि वो  बातें जरा विस्तार से सुनना
जो ऐसा कर सको तो तुम्हे ऋतुराज कह लूँगा
न कर पाओ तो मत आना न मिलना मिलाना  
 
 न कर पाओ तो मत आना न मिलना मिलाना 

Thursday, February 9, 2012

मुझे तुमसे तो मोहब्बत नहीं थी लेकिन...


मैं सोचता हूँ कुछ ऐसा यकीं नहीं होता
मेरी तुझको तो जरूरत नहीं थी लेकिन
तमाम उम्र मैं तेरी राह यूंही तकता रहा
मुझे तुमसे तो मोहब्बत नहीं थी लेकिन

तेरी हर बात मेरे जहन मैं लौट आती हैं
तेरे अंदाज तेरा जिक्र जब होता हैं कहीं
मेरे ख्वाबों के गुलिस्तां में बहार आती हैं
सुब्ह होती हैं तेरी दीद की हसरत लेकर
शाम बेसाख्ता ही छत पे गुजर जाती हैं

मुझे तुमसे तो मोहब्बत नहीं थी लेकिन ...

जाने क्यों मेरी नीदों से, बगावत सी रही
जाने क्यों मेरी सांसों से अदावत सी रही
खिड़कियाँ धूप लिए आती थी तेरी खुशबू
तन्हा गोशों में तेरे आने की आहट सी रही

रास्ते तल्ख़ ख़ामोशी का बार उठाये हुए
लौट आते हैं तेरे दर से.. सर झुकाए हुए
न कोई आहट न शिकन न सदा ही कोई
राह तकता हूँ ज़माने से नजर चुराए हुए

मुझे तुमसे तो मोहब्बत नहीं थी लेकिन...

फिर भी हसरत की तुम्ही से चुरा लूं तुमको 
पास बैठा के तुम्हे पहलूँ में अकेले में कभी
कोई देखे न कहीं पलकों में छुपा लूं तुमको
यकीं था  की तुम आओगी हर सदा पे मेरी
आजमाने के बहाने से ही बुला लूं तुमको 

मुझे तुमसे तो मोहब्बत नहीं थी लेकिन...

अब भी मेरे राजदां  हैं जो तुझसे बाबस्ता
अब भी कुछ दोस्त मेरे तेरा पता पूछते हैं
जब भी आता हैं तेरा नाम जेर-ए-लब मेरे
बाद मुलाकात क्या हुआ ये बता, पूछते हैं

ये तीरगी ये तलातुम जो मुझको घेरे हैं
जर्द आँखों मैं जो तनहाइयों के... घेरे हैं
जो भूलती भी नहीं, याद भी नहीं आती
कहानियाँ  जो कभी बाज़ भी नहीं आती
कहीं ऐसा तो नहीं आखों से बयां होता हो
दिल में कुछ हो, कुछ और अयाँ होता हो

मुझे तुमसे तो मोहब्बत !!
 नहीं थी  ??

लेकिन........


Friday, January 20, 2012

हे लोकतंत्र .....तेरी जय हो !!

 
राजनीत के ये कैसे....फंडे हैं ,
हर हाथ में कितने.... डंडे हैं !
सर को तो फिरा कर देख जरा,
जाने., किस किसके.. झंडे हैं !!


कितना हैं घिनौना खेल यहाँ,
धुर विरोधियों का.. मेल यहाँ!
कल तक न सुहाते फूटी आँख,
अब मिलके बिलौते तेल यहाँ !!


अब एक ही झंडा सर  पर हैं ,
जो मेरा  तुझको... अर्पण हैं !
वोटर तो बेचारा..काठ का हैं,
उसका जीते जी..... तर्पण हैं!!


सौ सौ पर भारी.. नेता यहाँ ,
छुटभैय्ये बने हैं.. खेता यहाँ !
सर झुका दंडवत.. चरणों में ,
भ्रम ,कलयुग हैं या त्रेता यहाँ !!


फिर  पाच बरस का मेला हैं ,
पर वोटर निपट.. अकेला हैं !
विश्वास,ईमान कि कौन कहे,
बस तिकड़म का ये खेला हैं !!


दलबदलुओं कि हैं जमात यहाँ,
गिरगिट भी मांगे पनाह यहाँ !
बटती जूतों में दाल हर तरफ ,
टिकट की हैं बस,. चाह यहाँ !!


अब कहो मित्र किसको मत दें,

तुम रहनुमा हो किसको कहदें !

हर बार छला हैं... जनता को ,

क्यों वोट करे क्यों फिर शहदें !!


वो बूथ लुटा क्या जनमत हैं ,

गोली कट्टों की.. दहशत हैं !

हैं कौन यहाँ जिसका भय हो,

हे लोकतंत्र...... तेरी जय हो !

हे लोकतंत्र .....तेरी जय हो !!

Sunday, January 8, 2012

ओ चितेरे !!

ओ चितेरे !!
मध्यमा और अंगुष्ठ

में कर

रचयनी

उकेरे हैं जो

दृश्यमान तूने

उन पर

भावों का

प्रत्यर्पण

तेरे कर में नहीं

ये समर्पण नहीं

कि उढ़ेल लो

साधिकार

अक्षरश

न होगा

यदि

धानी चूनर

धानी

न हुई तो 

रचना का

दारिद्य

कौन सहेगा फिर ???

यह बलात नहीं

सम्भोग हैं

उकेरे जाने के 

प्रसव

और उकेरने के

संसर्ग

कि प्राराब्धता

हैं,

ये, तो.