Saturday, April 21, 2012

मंदिर कि सीडियां चड़ते हुए


मंदिर कि सीडियां चड़ते  हुए
साथ साथ 
श्वास दर श्वास
देखता हूँ उसे

दोनों हाथों में
पूजा का थाल लिए
सर पर
उम्मीदों का पल्लू रक्खे
कजराई आँखों में
सम्पूर्ण विश्व का
वात्सल्य समेटे
कुसुमित   से होठों पर
प्रार्थना  के स्वर   लिए
कदम दर कदम
निर्भीक और प्रफुल्लित

लगता हैं कई कई बार
अलग अलग समयांतर पर
कई कई युगों  में
चड़ी होंगी से सीडियां हमने
यूंही साथ साथ
नयनों से करबद्धता  का
भाव प्रेषित करते हुए

सोचता हूँ
कुछ भी तो नहीं बदला
साल दर साल
आज भी वही प्रतिबद्धता
वही विश्वास
जब पहली बार
इन सीड़ियों पे
कदम रक्खा था

मैं जानता हूँ
हर बार
वह "माँ "से
कुछ नहीं मांगती
अपने लिए
प्रत्यक्षतः तो बिलकुल नहीं
उसकी थाली से अर्पित होते पुष्प
दीपक कि ज्योति
रससिक्त  नारियल
स्वयं ही प्रेषित कर देते है मंतव्य

फिर भी हर बार कि तरह
पूछ लेता हूँ में
क्या माँगा आज "माँ" से

और हर बार कि तरह
मुस्कुराते हुए
कहती हैं वो

"वही...
जो तुमने"

हैरान हूँ
उपलब्ध  संभाव्य विकल्पों मैं से
इतना सटीक चुनाव
कैसे कर लेती हैं वो
माँ से मांगते समय भी

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