मंदिर कि सीडियां चड़ते हुए
साथ साथ
श्वास दर श्वास
देखता हूँ उसे
दोनों हाथों में
पूजा का थाल लिए
सर पर
उम्मीदों का पल्लू रक्खे
कजराई आँखों में
सम्पूर्ण विश्व का
वात्सल्य समेटे
कुसुमित से होठों पर
प्रार्थना के स्वर लिए
कदम दर कदम
निर्भीक और प्रफुल्लित
लगता हैं कई कई बार
अलग अलग समयांतर पर
कई कई युगों में
चड़ी होंगी से सीडियां हमने
यूंही साथ साथ
नयनों से करबद्धता का
भाव प्रेषित करते हुए
सोचता हूँ
कुछ भी तो नहीं बदला
साल दर साल
आज भी वही प्रतिबद्धता
वही विश्वास
जब पहली बार
इन सीड़ियों पे
कदम रक्खा था
मैं जानता हूँ
हर बार
वह "माँ "से
कुछ नहीं मांगती
अपने लिए
प्रत्यक्षतः तो बिलकुल नहीं
उसकी थाली से अर्पित होते पुष्प
दीपक कि ज्योति
रससिक्त नारियल
स्वयं ही प्रेषित कर देते है मंतव्य
फिर भी हर बार कि तरह
पूछ लेता हूँ में
क्या माँगा आज "माँ" से
और हर बार कि तरह
मुस्कुराते हुए
कहती हैं वो
"वही...
जो तुमने"
हैरान हूँ
उपलब्ध संभाव्य विकल्पों मैं से
इतना सटीक चुनाव
कैसे कर लेती हैं वो
माँ से मांगते समय भी
No comments:
Post a Comment