Tuesday, October 8, 2019

वेदना के स्वर - गीत

वेदना के स्वर  जब अपने ही देश को धिक्कारते हैं लोग

आभावों मैं जीने वालों ....क्यों इतना पछताते हों ।
क्यों ओरों की चकाचौध में, अपनी रात छुपाते हो ।।
आभावों मैं कौन नही हैं,, कौन यहाँ परिपूर्ण कहों ।
मानव हो ओर मानवता का, ह्रास हुआ बतलाते हों ।।

जिस धरती पर जन्म लिया, जिस माटी में तुम खेले ।
जिस भूमि पर लगते हैं, हर बरस चिताओं पर मेले ।।
उस मिट्टी को गाली दो ये हरगिज भी स्वीकार्य नही ।
सम्मान नही दे पाये तो अपमान काभी अधिकार नही ।

कुछ तो सीमा पर हरदम ही, बस आग लगाये बैठे हैं ।
कुछ अपने हैं अंदरखाने, जाने किस बात पे रूठे हैं ।।
जिसको देखो बात बात पर, हमको आँख दिखता हैं ।
और विदेशी मंचों पर वो,, व्यर्थ ही गाल बजाता हैं ।।

पर कितने भी प्रतिबंध लगालो, टीका चंदन रोली पर ।
जितने चाहे बम फोड़ो तुम,, ईद दीवाली होली पर ।।
फर्क नही पड़ता हैं लेकिन, चाहे जान लड़ा लो तुम ।
गद्दारों का नाम लिखा हैं हर देशभक्त की गोली पर ।।

इस देश को जिंदा रखने को जो, रक्त के आंसू रोया हैं ।
इस गुलाम के लांछन को,, जिसने मस्तक से धोया हैं ।।
वो तो शहीद हो गया वतन पर, अबकी तुम्हारी बारी हैं ।
तुमने तो सबकुछ पाया हैं उसने सब कुछ ही खोया हैं ।।

माना की देश के माथे पर,, अभी चंद लकीरे हैं गहरी ।
माना कि भ्रष्ट हैं तंत्र और, सरकार भी हैं गूंगी बहरी ।।
पुरुषार्थ मगर मंगल हेतु, सब को करना पड़ जायेगा ।
देश का मंगल करने को,, कोई मंगल से नही आयेगा ।।

जय भारत जय भारती..
हरीश भट्ट

नजरिया -

नमस्कार दोस्तों ...शुभरात्रि
सोचता हूँ
कुछ नजरिये
तह कर के रख दूं
अंदर वाले
संदूक में
चलन से
बाहर हो चुके
कपड़ों के साथ
दृष्टिकोण के कोंण
मिटा कर
पाट दूं
सार्वजनिक
स्वीकार्यताओं से
वैचारिकता को
थोप लूँ
खुद पर
तुम्हारे स्वयं के
आंकलित
पूर्वाभासों को
और कुछ आग्रहों  को
जिन्हें तुम
पूर्वाग्रह कहते हो
मुझे आंकलित करते हुए
तिलांजलि दे दूं
छोड़ दूं
खुद को
किस्मत के हवाले
रफ्ता रफ्ता
आदत पड़ जाने तक
भीड़ का चेहरा होना ही
भीड़ का हिस्सा होना हैं
मान कर
सोचता हूँ संकल्प ले
तर्पण कर दूं
आज ही
तथाकथित
अपने प्रति
तुम्हारे दुराग्रहों का
तिलांजलि दे दूं
हृदयगत संबंधों को
सीख लूं चलन
समायोजनाओं में
जीने का
तलाश लूं
बीच के रास्ते
कुछ पगडंडियां
कुछ रिश्ते
कुछ वास्ते
तुम कहो तो
संवेदनाएं टांक दूं
व्यस्तताओं की खूंटी पर
वेदनाएं ओढ़ लूं
मेटीरियलिस्टिक सी
प्रेक्टिकल अप्प्रोच
मुखोटों की तरह
सहज न हो भले
तो क्या
आकर्षण तो होगा न
विकर्षण भी
क्यों न
ढूंढ लू
तुम्हारे वाला शब्दकोश
जिसमें
भाव-समभाव
वेदना-संवेदना
आवेश-भावावेश
प्रेम-स्नेह और विवेक
जैसे शब्द न हो
और जो हों
उनके कई कई
अर्थ निकल जाते हों
सहूलियत के हिसाब से
पारिस्थितिक और
मान्यता के हिजाब में
सोचता हूँ
अपेक्षाएं जमा कर दूं
पीछे के स्टोररूम में
उपेक्षाओं की
और कांटेदार
जिल्त चड़ा लूं
चेहरे पर
भरपूर
नाटकीयता के लिए
चेहरे पे चेहरों का होना
शायद
जरूरत बन गई हैं
एकमात्र शक्लें
संदेहग्रस्त हो जाती हैं
अमान्य भी
मित्र जब तुम
ऐसा सोचते हो
तो अगर मैं भी
तत्सम ही
सोचता हूँ
तो
कहो जरा
क्या गलत सोचता हूँ ??
हरीश भट्ट

समर्पण - एक लघु कथा

देहरादून के गढ़वाल विकास निगम का वह कांफ्रेंस हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था मंच पर राज्य के सांस्कृतिक विकास मंत्री श्री परमार जी ने अपना उद्बोधन देना शुरू किया ...."मुझे ख़ुशी हैं और गर्व भी,.. इस साल का संस्कृति रत्न पुरुस्कार श्री अनिरुद्ध डबराल जी को देते हुए ...आज  इनके काव्य संग्रह "अंतस " का विमोचन करते हुए मुझे अत्यंत हर्ष हो रहा हैं...इतनी कम उम्र में ऐसा प्रखर सृजन......... ""
....और हाल एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से भर गया....
अनिरुद्ध की आंखे स्टेज पर खड़े खड़े डबडबा आई थी ....आज उसका सपना जो साकार हो रहा था ...चिर प्रतीक्षित सपना ...उसकी पिता जी कि आँखों में चमक बड़ गई थी... बढ़ा आयोजन था...सब दोस्तों कि नजरें  आज अनिरुद्ध पर ही थी ...और जब अनिरुद्ध ने अपनी पुस्तक से कविता के  कुछ अंश पढने शुरू किये...
अंतस तक प्यासी हैं धरती
आओ अम्बर को बतलाये ....
तब..तब वहीँ तो थी कादम्बिनी  हॉल के दूसरे दरवाजे कि ओट  में ....हजारों बार सुनी थी उसने यह कविता अनु के मुह से ...तब उसे लगता था जैसे धरती कि नहीं यह उसकी स्वयं कि बात हो...."अंतस तक प्यासी हैं धरती.....(हाँ वह प्यार से अनिरुद्ध को अनु ही कहती थी)
कुछ दिन पहले  कि ही तो बात हैं .....
""अनिरुद्ध ""....बहुत दिन से तुमने कुछ नया नहीं लिखा...... पूछा था कादम्बनी ने...एक सकून भरी मुस्कराहट के साथ कहा था अनिरुद्ध ने...नहीं कादम्बनी कुछ नया लिखने का मन नहीं ...मेरे अन्दर से तब कुछ उत्सर्जित होता   हैं  ..जब में अकेला  होता हूँ ...दर्द और बेचैनी निकल ही आती हैं वर्कों पर ...लेकिन ...तुमसे मिलने के बाद सब कुछ पा लिया लगता हैं मेरी तलाश ख़त्म हुई...
"लेकिन अनिरुद्ध तुम्हारे सपने...तुम चाहते थे न कि तुम्हारा काव्यसंग्रह....."" ...
"ओहो....कादम्बिनी ...तुम हो ना मेरा काव्य संग्रह...आओ कहीं काफी पीते हैं"
"पर अनिरुद्ध तुम्हारा सपना मेरा भी तो हैं ..में तुम्हे आगे बढ़ते देखना चाहती हूँ जरूरी तो नहीं केवल मिलन और विछोह के ही गीत लिखे जाये...खुशियों के पल भी तो हैं सामाजिकता ..संस्कृति..."
"प्लीज़ कादम्बनी ...सुबह सुबह ..क्यों मूड ख़राब कर रही हो ..तुम्हारी दोस्ती मुझसे हैं या मेरी रचनाओं से.".कसक कर कहा अनिरुद्ध ने
"" नहीं अनु ..तुमसे तो हैं पर ..तुम्हारी रचनाओं  में  मेरा जीवन बसता  हैं....  तुम्हारी रचनाओं कि नायिकाओं में मैं खुद को तलाशती हूँ ...रख के देखती हूँ खुद को ...""
""हहहहहः ....क्या कादम्बनी ...तुम भी न...अरे कल्पनाओं कि नायिका और तुममे बहुत फर्क हैं " ... हँसते हुए कहा था अनिरुद्ध ने
"वो तो अतीत हो जाती हैं ...पल में ओझल ..पर..पर तुम तो मेरा वर्तमान हो...तुम से तो मैंने जीना सीखा हैं ....अच्छा  ..सुनो...प्लाजा में नई फिल्म लगी हैं ... शाम को चलते हैं ...वहीँ रेस्तरां  में कुछ खा लेंगे.." और हाँ तुमने वादा किया हैं कि कल तुम अपने घरवालों से बात भी करोगी "
"नहीं अनु...आज मुझे कुछ काम हैं में चलती हूँ . बाय " अनमने ही उठ खड़ी हुई थी कादम्बिनी
घर लौटते हुए कादम्बिनी  के चेहरे पे उदासी थी ...वह सोच रही थी ...कि कैसे अनिरुद्ध को बताये कि उसकी बातों में उसकी रचनाओं में एक अलग बात हैं ...वह अच्छा लिख सकता हैं ...इतना कि दुनिया उसे पढ़े ... और उसे सर आँखों पे बिठाये
कादम्बिनी अनिरुद्ध को बचपन से जानती थी दोनों  एक दूसरे कि चाहत थे पर कादम्बनी कि नज़रों में प्यार के मायने अलग थे वो जब अनिरुद्ध कि आँखों में आगे बढ़ने का सपना देखती थी..जब उसके चेहरे पर भविष्य कि ख़ुशी कि झलक महसूस करती थी तो उसे लगता था कि शायद यही चाहत हैं उस खुशी उस सपने को पूरा करने में ही उसके प्यार का हक अदा हो जाये शायद
शाम गहरा गई थी आसपास भी और मन के अन्दर भी ...सोचते  सोचते ...घर भी नजदीक ही था...कुछ तो निश्चय कर ही लिया था उसने ..आखिर क्या ?
अल सुबह ही अनिरुद्ध का फोन आ गया ....
"हाय कादम्बिनी कैसी हो" ....."ठीक हूँ कहो कैसे फोन किया"
"कादम्बिनी याद हैं ना तुम्हे आज तुम आपने घरवालों से मेरे बारे में बात करोगी " आवाज में चमक थी अनुरुद्ध की
"..क्या मतलब ..कैसी बात .." कादम्बिनी सपाट थी
"अरे ...हमारे रिश्ते की बात  ...." चहका था अनिरुद्ध
""क्या बकवास कर रहे हो अनिरुद्ध ..एक दो बार तुम्हारे साथ घूम क्या लीया  तुमने मुझसे रिश्ता जोड़ लिया ...तुमने सोच भी कैसे लिया कि में तुमसे शादी करूंगी ....तुम सिर्फ दोस्त हो मेरे पर शादी ...में तुमसे शादी कभी नही करना चाहती थी "
मजाक कर रही हो ... अनिरुद्ध अभी भी बेअसर था किसी भी अनहोनी से
"तुम्हें मेरी बातें हमेशा मजाक ही लगती हैं न अनु कभी तुमने अपने आगे कुछ समझ भी हैं मुझे ....बस अपनी कविताओं की कपोल कल्पना हूँ न में तो आगे से कभी मुझे फ़ोन मत करना""
और...फोन काट दिया कादम्बनी ने ....उसकी आँखों में खारापन बड़ गया था और सीने में भारीपन भी ....
हाँ यही तो सोचा था उसने कल शाम घर वापस आते हुए गहराते अंधियारे में.. और कोई रास्ता नही था .......
और अनिरुद्ध जड़ होगया था ..सुन कर...उसने कादम्बिनी को मिलने की बहुत कोशिश की तो पता चला वह आपने मामा के यहाँ चली गई हैं ..हल्द्वानी ..किसी कोर्स के लिए...
छः माह बीत गए शायद....
कांफ्रेंस हाल से निकलते हुए बुक स्टाल से कादम्बिनी ने  अनिरुद्ध की कविताओं का संकलन खरीदा ..प्रथम पेज पर ही "दो शब्द .."पढ़ कर उसकी आंखे फिर से नम हो गई वह दौड़ रही थी पूरे वेग से घर की ओर...लिखा था ..
""एक स्नेहिल मित्र के अंतस को समर्पित.... ""
कौन जान सकेगा की ..क्यों उमड़ घुमड़ कर आये मेघ कभी कभी धरती को प्यासा छोड़ कर रुख बदल लेते हैं जबकि उनकी तृप्ति भी धरती को अंतस  तक भिगोने की ही हैं ...
कौन जान सकेगा...??
--
हरीश भट्ट

दुमदार दोहे ....

शुभ दुपहरिया दोस्तों
दुमदार दोहे ....

शाम सुहानी हैं मगर, विचलित हैं आकाश!!
नदियों में कलरव नहीं, मन में नहीं उजास!!
निपट एकांत का मारा ! 

वृक्ष नही वन में कहीं, जल विहीन हैं ताल!
सूनी सूनी गोद हैं, .........धरती हैं बेहाल!!
घटायें कब बरसेंगी !

तुझको क्या मैं नाम दूं ,राम कहूं रहमान !
घट घट तेरा वास हैं, ..पग पग तेरी शान!!
दरश को तरसे हैं मन ! 

हरि बिन पार न पावही, लाख करे तू टाल!
कर्म बिना पर गति नहीं, यह कैसा जंजाल  !!
वही अब पार लगाये !

कबहु प्रीत ना कीजिये, कठिन प्रीत की रीत !
ठेस लगे से गिर पड़े, ..ज्यों माटी की भीत !!
प्रीत की रीत बुरी हैं !    

देख सखी सुन ले जरा,.....बात जरा गंभीर !
प्रेम रोग सबसे बड़ा,  विकट बड़ी यह पीर !!
सखी री पछताओगी !

हो विमर्श हर बात पर, आपा काहे खोय !
मत का चाहे भेद हो, मन का भेद न होय!!
न तलवारे तुम खीचों !

मेरा दुख सब से बड़ा, सोचे ये दिन रात !
क्यों तू खुद को दोष दे, घर घर की हैं बात!!
यही हैं दुनियादारी !

बेटी ब्याह न दीजिये, .......देकर दान दहेज़!
जीवन भर सुख ना मिले, ज्यों काँटों की सेज़ !!
जेल जाओगे सुन लो !

हरीश भट्ट....

संस्मरण/विषय- शिक्षक दिवस


विधा -संस्मरण/विषय- शिक्षक दिवस
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सभी सदस्यों को शिक्षक दिवस की शुभकामनायें
एक प्रसंग याद आता हैं मुझे भी मैं उस समय १०वी कक्षा का छात्र था विज्ञान के विषय में जरा कमजोर भी ऊपर से बोर्ड की परीक्षा की तलवार भी थी लटकी हुई
केन्द्रीय विद्यालय संगठन ने उस वर्ष ये निर्णय लिया की छात्रों की त्रैमासिक परीक्षा इस बार इस तरह से हो की बोर्ड की परीक्षा का पैटर्न पता चल सके तथा कमजोर छात्रों को प्रेरित किया जा सके..
एक तो सभी छात्र बोर्ड, प्रीबोर्ड के नाम से पहले ही इतना खौफजदा थे उस पर त्रैमासिक परीक्षा का अजब अंदाज लिहाजा विज्ञान विषय में मेरी क्लास के तकरीबन सभी छात्र छात्राएं अनुतीर्ण रह गए ... 
वर्मा सर जो केमेस्ट्री पढाया करते थे एक तो वो पहले ही इतने स्ट्रिक्ट थे  रिजल्ट वाले दिन आते ही उन्होंने पहले तो पूरी क्लास की क्लास ली .. उसके बाद रही सही कसर अगले दिन सुबह असेम्बली में प्रिंसिपल सर ने पूरी कर दी जब पूरे स्कूल के सामने त्रैमासिक परीक्षा में पास न हो पाने वाले बच्चों को अलग से लाइन लगा कर खड़ा कर दिया गया 
जब मेरी कक्षा के कुछ बच्चों ने नया पैटर्न और स्ट्रिक्ट मार्किंग का हवाला दिया तो बांकी बच्चों को तो क्लास में जाने को कह दिया गया पर मेरी पूरी क्रातिकारी क्लास को सजा के तौर पर दिन भर अगस्त की चिलचिलाती धूप में खड़े रहने का फरमान अनुशाशन समिति की तरफ से सुना दिया गया
अब पूरी क्लास धूप में सुबह ७:३० से १० बज गए गर्मी से बेहाल अब गिरे की तब गिरे कभी वर्मा सर को कोसते कभी प्रिंसिपल सर को तो कभी परीक्षा पैटर्न को ..तभी वर्मा सर आते हुए दिखाई दिए हमें लगा फिर कोई आफत आ गई लगता हैं ...पर ये क्या ...वर्मा सर आये और सबसे आगे आ कर खड़े हो गए ..फिर उन्होंने पूछना शुरू किया क्या हुआ क्यों हुआ ..हमने बताया ..सर इस परीक्षा को ले कर इतना डर था की आये हुए जवाब भी नहीं लिख पाए क्योंकि सवाल घुमा फिर के पूछे गए थे ...
एक घंटा उसी तरह बीता ....वर्मा सर रिटायर्मेंट की एज पर थे पसीने से लथपथ वो भी धूप में खड़े रहे हमारे साथ ....प्रिंसिपल सर का अर्दली इस बीच आ के वर्मा सर से बात करके चला गया ..पर हमें कुछ समझ नहीं आया की माजरा क्या हैं सर यहाँ क्यों हैं ??
जब ११:३० पर प्रिंसिपल सर खुद आये और वर्मा सर को कहा की आप स्टाफ रूम जाइये दूसरी क्लास को भी पढ़ाना हैं ...तब वर्मा सर ने मजबूती और आत्मविश्वास से जो कहा मुझे आज भी अक्षरश याद हैं उन्होंने कहा ...

"सर इन बच्चों की सफलता या असफलता मेरी जिम्मेदारी हैं यदि ये पास नहीं हो पाए तो मैं भी फेल हो गया ...सो जो सजा इन्हें मिल रही हैं मैं भी उसमें बराबर का भागिदार हूँ इसलिए जब तक ये धूप में खड़े हैं मैं भी रहूँगा ...

आज याद करता हूँ तो आँख में आसूं आ जाते हैं ...एक स्ट्रिक्ट और कर्कश शिक्षक जीवन में ऐसे भी शिक्षा दे सकता हैं उस दिन पता चला ....प्रिंसिपल सर ने उसी समय सबकी सजा माफ़ की और सबको द्वीतीय तिमाही मैं मेहनत करने की सलाह दे क्लास में भेजा उन्होंने कहा जिन छात्रों का ऐसा डेडिकेटेड शिक्षक हो वो बोर्ड क्या जीवन  की किसी परीक्षा में फेल नहीं हो सकते  ...
ऊपर से कठोर दिखने वाला नारियल समान अंतर्मन से कितना संवेदनशील हो सकता हैं उस दिन पता चला ..नतीजा बोर्ड परीक्षा में हम सब पास थे 

ऐसे थे हमारे शिक्षक ..आज भी बहुत सी बातें हैं स्कूल के समय की जो हमेशा याद आती हैं

हरीश भट्ट

विधा गजल ........विषय- बह्र (2)


विधा गजल ........विषय-  बह्र (2)
गजल में मात्रा गणना (तक्तीय )

पिछले अंक में हमने गजल की तक्तीय के लिए कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा की थी  आज हम इसी विषय पर आगे चर्चा करेंगे
बा-बह्र ग़ज़ल लिखने के लिए तक्तीअ (मात्रा गणना) ही एक मात्र उपाय है, यदि शेर की तक्तीअ (मात्रा गणना) करनी आ जाय  तो देर सबेर बह्र में लिखना भी आ जाएगा क्योकि जब किसी शायर को पता हो कि मेरा लिखा शेर बेबह्र है तभी उसे सही करने का प्रयास करेगा और तब तक करेगा जब तक वह शेर बाबह्र न हो जाए
मात्राओं को गिनने का सही नियम न पता होने के कारण ग़ज़लकार अक्सर बह्र निकालने में या तक्तीअ करने में दिक्कत महसूस करते हैं छंद में मात्रा गणना और गज़ल में तक्तीय करते समय कुछ छोटे  छोटे अंतर आ जाते हैं उन पर भी चर्चा करेंगे
ग़ज़ल में सबसे छोटी इकाई 'मात्रा' होती है अतः  तक्तीअ प्रणाली को समझने के लिए सबसे पहले मात्रा से परिचित होना होगा -
ये तो आपको पता ही हैं की मात्रा दो प्रकार की होती है
१- ‘एक मात्रिक’ इसे हम एक अक्षरीय व एक हर्फी व लघु भी  कहते हैं और १ से दर्शाते हैं  
२= ‘दो मात्रिक’ इसे हम दो अक्षरीय व दो हरूफी व दीर्घ भी कहते हैं और २ से  दर्शाते हैं
एक मात्रिक स्वर अथवा व्यंजन के उच्चारण में जितना वक्त और बल लगता है दो मात्रिक के उच्चारण में उसका दोगुना वक्त और बल लगता है
ग़ज़ल में मात्रा गणना का एक स्पष्ट, सरल और सीधा नियम है कि इसमें शब्दों को जैसा बोला जाता है (शुद्ध उच्चारण)  मात्रा भी उस हिसाब से ही गिनाते हैं
जैसे - हिन्दी में कमल = क/म/ल = १११ होता है मगर ग़ज़ल विधा में इस तरह मात्रा गणना नहीं करते बल्कि उच्चारण के अनुसार गणना करते हैं | उच्चारण करते समय हम "क" उच्चारण के बाद "मल" बोलते हैं इसलिए ग़ज़ल में ‘कमल’ = १२ होता है यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि “कमल” का ‘“मल’” शाश्वत दीर्घ है अर्थात जरूरत के अनुसार गज़ल में ‘कमल’ शब्द की मात्रा को १११ नहीं माना जा सकता यह हमेशा १२ ही रहेगा
‘उधर’- उच्च्चरण के अनुसार उधर बोलते समय पहले "उ" बोलते हैं फिर "धर" बोलने से पहले पल भर रुकते हैं और फिर 'धर' कहते हैं इसलिए इसकी मात्रा गिनाते समय भी ऐसे ही गिनेंगे
अर्थात – उ+धर = उ १ धर २ = १२
मात्रा गणना करते समय ध्यान रखे कि -
१ - सभी व्यंजन (बिना स्वर के) एक मात्रिक होते हैं
जैसे – क, ख, ग, घ, च, छ, ज, झ, ट आदि १ मात्रिक हैं
  २ - अ, इ, उ स्वर व अनुस्वर चन्द्रबिंदी तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन एक मात्रिक होते हैं
जैसे = अ, इ, उ, कि, सि, पु, सु हँ  आदि एक मात्रिक हैं
  ३ - आ, ई, ऊ ए ऐ ओ औ अं स्वर तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन दो मात्रिक होते हैं
जैसे = आ, सो, पा, जू, सी, ने, पै, सौ, सं आदि २ मात्रिक हैं
  ४. (१) - यदि किसी शब्द में दो 'एक मात्रिक' व्यंजन हैं तो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक अर्थात दीर्घ बन जाते हैं जैसे ह१+म१ = हम = २  ऐसे दो मात्रिक शाश्वत दीर्घ होते हैं जिनको जरूरत के अनुसार ११ अथवा १ नहीं किया जा सकता है
जैसे – सम, दम, चल, घर, पल, कल आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं
४. (२) परन्तु जिस शब्द के उच्चारण में दोनो अक्षर अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ दोनों लघु हमेशा अलग अलग अर्थात ११ गिना जायेगा
जैसे –असमय = अ/स/मय = अ१ स१ मय२ =११२     
असमय का उच्चारण करते समय 'अ' उच्चारण के बाद रुकते हैं और 'स' अलग अलग बोलते हैं और 'मय' का उच्चारण एक साथ करते हैं इसलिए 'अ' और 'स' को दीर्घ नहीं किया जा सकता है और मय मिल कर दीर्घ हो जा रहे हैं इसलिए असमय का वज्न अ१ स१ मय२ = ११२  होगा इसे २२ नहीं किया जा सकता है क्योकि यदि इसे २२ किया गया तो उच्चारण अस्मय हो जायेगा और शब्द उच्चारण दोषपूर्ण हो जायेगा ।
 
  ५ (१) – जब क्रमांक २ अनुसार किसी लघु मात्रिक के पहले या बाद में कोई शुद्ध व्यंजन(१ मात्रिक क्रमांक १ के अनुसार) हो तो उच्चारण अनुसार दोनों लघु मिल कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है
उदाहरण – “तुम” शब्द में “'त'” '“उ'” के साथ जुड कर '“तु'” होता है(क्रमांक २ अनुसार), “तु” एक मात्रिक है और “तुम” शब्द में “म” भी एक मात्रिक है (क्रमांक १ के अनुसार)  और बोलते समय “तु+म” को एक साथ बोलते हैं तो ये दोनों जुड कर शाश्वत दीर्घ बन जाते हैं इसे ११ नहीं गिना जा सकता इसके और उदाहरण देखें = यदि, कपि, कुछ, रुक आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं
 
५ (१) परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दोनो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही अर्थात ११ गिना जायेगा
जैसे –  सुमधुर = सु/ म /धुर = सु१ म१ धुर२ = ११२   
६ (१) - यदि किसी शब्द में अगल बगल के दोनो व्यंजन किन्हीं स्वर के साथ जुड कर लघु ही रहते हैं (क्रमांक २ अनुसार) तो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है इसे ११ नहीं गिना जा सकता
जैसे = पुरु = प+उ / र+उ = पुरु = २,   
६ (२) परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही गिना जायेगा
जैसे –  सुविचार = सु/ वि / चा / र = सु१ व+इ१ चा२ र१ = ११२१
७ (१) - ग़ज़ल के मात्रा गणना में अर्ध व्यंजन को १ मात्रा माना गया है तथा यदि शब्द में उच्चारण अनुसार पहले अथवा बाद के व्यंजन के साथ जुड जाता है और जिससे जुड़ता है वो व्यंजन यदि १ मात्रिक है तो वह २ मात्रिक हो जाता है और यदि दो मात्रिक है तो जुडने के बाद भी २ मात्रिक ही रहता है ऐसे २ मात्रिक को ११ नहीं गिना जा सकता है उदाहरण -
सच्चा = स१+च्१ / च१+आ१  = सच् २ चा २ =  २२,
(अतः सच्चा को ११२ नहीं गिना जा सकता है)
आनन्द = आ / न+न् / द = आ२ नन्२ द१ = २२१,
कार्य = का+र् / य = कार् २  य १ = २१ 
तुम्हारा = तु/ म्हा/ रा = तु१ म्हा२ रा२ = १२२,
तुम्हें = तु / म्हें = तु१ म्हें२ = १२...
उन्हें = उ / न्हें = उ१ न्हें२ = १२
७ (२) अपवाद स्वरूप अर्ध व्यंजन के इस नियम में अर्ध स व्यंजन के साथ एक अपवाद यह है कि यदि अर्ध स के पहले या बाद में कोई एक मात्रिक अक्षर होता है तब तो यह उच्चारण के अनुसार बगल के शब्द के साथ जुड जाता है परन्तु यदि अर्ध स के दोनों ओर पहले से दीर्घ मात्रिक अक्षर होते हैं तो कुछ शब्दों में अर्ध स को स्वतंत्र एक मात्रिक भी माना लिया जाता है
जैसे = रस्ता = र+स् / ता २२ होता है
मगर रास्ता = रा/स्/ता = २१२ होता है
दोस्त = दो+स् /त= २१ होता है मगर
दोस्ती = दो/स्/ती = २१२ होता है
इस प्रकार और शब्द देखें 
बस्ती, सस्ती, मस्ती, बस्ता, सस्ता = २२
दोस्तों = २१२, मस्ताना = २२२, मुस्कान =२२१,
संस्कार= २१२१    
८. (१) - संयुक्ताक्षर जैसे = क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि दो व्यंजन के योग से बने होने के कारण दीर्घ मात्रिक हैं परन्तु मात्र गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं   
उदाहरण = पत्र= २१, वक्र = २१, यक्ष = २१, कक्ष - २१, यज्ञ = २१, शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१
गोत्र = २१, मूत्र = २१,
८. (२) यदि संयुक्ताक्षर से शब्द प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं
उदाहरण = त्रिशूल = १२१,
क्रमांक = १२१, क्षितिज = १२ 
८. (३) संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं 
उदाहरण = प्रज्ञा = २२  राजाज्ञा = २२२, 
८ (४) उच्चारण अनुसार मात्रा गणना के कारण कुछ शब्द इस नियम के अपवाद भी है -
उदाहरण = अनुक्रमांक = अनु/क्र/मां/क = २१२१ ('नु' अक्षर लघु होते हुए भी 'क्र' के योग से दीर्घ नहीं हुआ और उच्चारण अनुसार अ के साथ जुड कर दीर्घ हो गया और क्र लघु हो गया)      
९ - विसर्ग युक्त व्यंजन दीर्ध मात्रिक होते हैं ऐसे व्यंजन को १ मात्रिक नहीं गिना जा सकता
उदाहरण = दुःख = २१ होता है इसे दीर्घ (२) नहीं गिन सकते यदि हमें २ मात्रा में इसका प्रयोग करना है तो इसके तद्भव रूप में 'दुख' लिखना चाहिए इस प्रकार यह दीर्घ मात्रिक हो जायेगा
हरीश भट्ट
​(साभार गूगल)

लधु कथा-अनकहा सा कुछ

लधु कथा-अनकहा सा कुछ
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रोहन ने मोबाइल को ऐसे देखा जैसे कोई दुश्मन हो... हद हैं सुबह से उसकी प्रोफ़ाइल पर लगातार नोटिफिकेशन आ रहे थे पर ...पर जिसका इन्तजार था उसका अभी तक भी नहीं परसो शाम से न तो शीतल ने उसे कोई मेस्सेज किया था न उसकी प्रोफ़ाइल पर ही आई थी
रोहन ने शीतल की प्रोफाइल चेक की ...नहीं अभी तक तो हैं प्रोफाइल में अनफ़्रेंड भी नहीं किया फिर उसका मैसेज क्यों नहीं...परसो से अब तक एक भी नही.... ऐसा तो कभी नही हुआ
तीन साल हो गए थे रोहन और शीतल को इस आभासी दुनिया में बिना इक दुसरे को जाने बिना देखें इक ऐसा अनकहा अनबूझा रिश्ता हो गया था दोनों के बीच की जब तक एक दुसरे को मेस्सेज न कर लें सांस नहीं आती थी... सुबह की गुड मोर्निंग हो... या रात की गुड नाईट दिन भर क्या खाया.. क्या पिया ...क्या पहना... कहाँ हो ...कैसी लग रही हूँ ...मिस कर रही हूँ कब मिलोगे ...इन्हीं सब में बीत जाता था
फिर ऐसा क्या हुआ की कल शाम से कोई तवज्जो ही नहीं
परसो शाम तो मेसेज किया था उसे ...रोहन ने मेसेजर ओन किया आखरी मेसेज शीतल का ही था....."ओके जब घर आ जाओ मेसेज कर देना बाय टेक केयर स्वीट ड्रीम्स लव यु डियर ""
रोहन परसो दोपहर से हॉस्पिटल में ही था डेंगू हुआ था उसे लगातार बिगड़ती हालत ने उसे भर्ती करवा ही दिया ...कमजोरी इतनी की टॉयलेट तक जाना मुश्किल शायद बैड पर ही करवाया था रीमा ने ..ओह रीमा से तो मिलवाना ही भूल गया ...रीमा उसकी पत्नी थी
पूरी रात रीमा उसके सरहाने बैठी रही रात अपने हाथ से खाना खिलाया दो बार तो कपड़े भी उसी ने बदले उल्टी के कारण ....रात पता नही कब तक तो सर पर ठंडी पट्टियां रखने में बीती याद नही उसे... हाँ परसो शाम जब रीमा दो मिनट के लिए दवाई लेने नीचे मेडिकल स्टोर पर गई तब मेसेज किया था उसने शीतल को की वह हॉस्पिटल में हैं प्लेटलेट्स 30000 आ चुके हैं कमजोरी बहुत हैं पता नही क्या होगा
साथ ही यह भी लिख दिया था की रीमा मेरे साथ ही हैं मेसेज देख के करना जरा
और फिर डेटा कनेक्शन आफ कर दिया था मेसेज डिलीट करके तब से कल का दिन तो उसे होश ही नही था और आज अभी तक तो कोई मेसेज नही शीतल का
तभी रीमा आ गई शायद चाय नाश्ता लाने गई थी
"उठ गए आप लीजिये चाय पी लीजिये"
"और सुनो आज की रिपोर्ट ठीक हैं प्लेटलेट्स बढ़ रहे हैं ठीक हो जाओगे आप मैने माँ भगवती से मन्नत मांगी थी जब आप ठीक हो जाओगे तो हम चलेंगे चुन्नी चढ़ाने"
मुस्कुरा दिया था रोहन
लाइये मोबाइल मुझे दीजिये में पढ़ के सुना देती हूँ आपके मेसेज अरे ...आप तो सारा दिन मोबाइल पे रहते थे किसी ने पूछा नही मेसेज में की कैसी तबियत हैं कहाँ गई आपकी वो गर्ल फ्रेंड्स जो रोज मेसेज करती थी सुबह शाम.... रीमा ने विजयी भाव से मुस्कुरा कर रोहन की तरफ देखा था
और रोहन को उसकी आँखों में बहुत कुछ दिखा था कहा अनकहा सा ....उसे शीतल का मैसेज याद आ गया ओके मेसेज कर देना जब घर आ जाओ टेक केयर लव यू .....
उसने रीमा का हाथ कस के पकड़ लिया और भर्राये गले से कहा ....नही रीमा मेरी सच्ची गर्लफ्रेंड तो तुम हो
सिर्फ तुम
रिश्तों की परिभाषा समझ गया था वह शायद
हरीश भट्ट

एक प्रतिक्रिया आपकी रचनाओं पर

शुभ संध्या दोस्तों ..
एक प्रतिक्रिया आपकी रचनाओं पर

सुनो
रोज ही गुज़रता हूँ
तुम्हारी ग़ज़लों से
तुम्हारी नज़्मों
तुम्हारी कविताओं से
कितनी शिद्दत से
हर्फ़ दर हर्फ़
उकेर लेते हो तुम
उमस भरे दिन हों
या सीली सीली सी रातें
अतृप्त सा आक्रोश
या सुरमई सी बातें
एक शब्द या एक पंक्ति
बस
अपूर्णता में भी
संपूर्णता का हासिल

और उस कहन से
गुज़रते हुए
सोचता हूँ
की बाकमाल
कैसे लिख लेते हो तुम
कोई प्रतिक्रिया
सूझती ही नही पढ़ कर !
सोचता हूँ
कैसे महसूसते हो
अंतस का सूनापन
खारे पानी की लकीर
नब्ज़ नब्ज
धधकती पीर

मौन में छुपा क्रंदन
सहमे से जज्बात
रेंगती हुई सी रात
दूर तक पसरा
भुतहा आकाश
गुलमोहर की कसक
अनमना सा पलाश
पलकों का उनींदापन
नयनों की आद्रता
जब्त-धड़कन धड़कन
इकलौता इकतरफा प्यार
एक पल की आज़माइश
बरसों का इंतज़ार

अच्छा
ये तो बताओ
ये महसूसने का हुनर
सीखा कहाँ से तुमने
हद हैं
कितने बेहद हो तुम !

हैरां हूँ कि
कैसे उद्धृत कर लेते हो तुम न
असह्य होती
पर्वत सी पीर
लरजा हुआ आँचल
उड़ता वासंती चीर
झील सी शीतलता
सूरज का तेग
बारिश की छींटाकशी
पहाड़ी नदी का उद्वेग
भावों का आलंबन
कभी नर्म कभी सख्त
अबाबील का एकाकीपन
चनार का सूना दरख़्त

रोज़ ही देखता हूँ
खुलते  हुए
ग़ज़लों के खुले छज्जे
पंक्ति दर पंक्ति
नज़्म दर नज़्म हिज्जे
मखमली से लहज़े
सलीके से बुना रदीफ़
काफिये- उलझे उलझे
और उन सब में उलझा
नुक्ते सा
ठहरा ठिठका हुआ मैं
हर विसर्ग हर विभक्ति पर
हर उपमा हर उक्ति पर
अर्धविराम से पूर्णविराम तक
आते आते
तुम मुझमें
आकार लेने लगते हो
ये जुड़ाव
संयोग मात्र तो न होगा न !

और ये भी की
सभी रस भाव तो हैं तुममें
रति सी शृंगारिकता
शोक की करुणा भी
क्रोध की रौद्रता
उत्साहित वीरांगना सी
और आश्चर्य अद्भुत भी
जल के समान शांत निर्वेद भी
भय सी भयानक,
और घृणा सी विभत्स भी
और इन सब के मध्य
हास्य का तत्व भी
तभी तो
पंक्ति पंक्ति
पढ़ता हूँ बार बार
छू लेने को तुम्हें
हर भाव में !

हतप्रभ हूँ
तुम्हारी रचनाएं हैं
की तिलिस्मी अय्यारियाँ
झरने सी निष्कलंक
चंचलता
कब दरियाह की
गंभीरता ओढ़ लेती हैं
पता ही नही चलता
भावों का उद्वेग
सीधा विवेक की
चट्टान से टकरा कर
मन मष्तिष्क पर
छितरा जाता हैं
अपने सम्पूर्ण
व्यक्तित्व के साथ
तिरोहित होते हो तुम
तब मेरी वैचारिकता पर
ऐसा लगता हैं
कविता नही कोई वशीकरण हैं
मंत्र बद्ध
जो रचा हैं तुमने !

आश्चर्य
तुम जब भी
उठाते हो कलम
छन्द छन्द
नाच उठते हैं
पहन पदबंधों के घुंघरू
लयात्मक हो उठती हैं
साँवरी बयार भी
शब्द शब्द मुखरित हो
चित्र चित्र गढ़ने लगता हैं
परावर्तित होते हो जब
मन वचन प्राण से
अपनी ही कविताओं में 
तब तुम
त्वमेव नही रहते
कवितामय हो जाते हो !

जितना तुम्हें पढ़ता हूँ
उतना ही
तुम में उतर जाता हूँ
एकाकार होने लगता हूँ
तुमसे और तुम्हारी कविता से
तब कुछ और
पढ़ने सुनने का
मन नही होता
सोचता हूँ
की तुम मेरे हृदय के
मटमैले पृष्ठ पर लिखी
वो अंतहीन कविता हो
जिसे
गुनगुना सकता हूँ में
ताउम्र ताज़िन्दगी !

सुनो तो
तुमने ही लिखा हैं न
ये गीत
गुनगुना रहा हूँ
जिसे में
अभी अभी
धड़कनों के साज़ पर !
सुना !!??

हरीश भट्ट

एक नज़्म ....बत्तियां गुल हो चुकी,, सड़कें पुरानी हो गईं!

शुभ दिवस दोस्तों
एक नज़्म ....

बत्तियां गुल हो चुकी,, सड़कें पुरानी हो गईं! 
रातें अब तो इस शहर की, ज़ाफ़रानी हो गईं !!

सोचता था ख़त लिखूं पर, सामने वो मिल गए !
आंखों से आंखें मिली दिलकश कहानी हो गईं !!

यूं तो मुझको टोकता रहता था, ये मेरा ज़मीर !
ख़्वाहिशों  को पर लगे तो, आसमानी हो गईं !!

कल तलक जो उंगलियों चलती थी मेरे साथ साथ !  
बेटीयाँ वो देखिये कब की,...सयानी हो गईं  !!

इश्क़ की पेचीदगी  मैं, क्या सिखाता रात भर !
आँखों से ही  बातों की सब  तर्ज़ुमानी हो गईं !!

उनकी आँखों में अजब बेगानियत थी आज तक !
जब पुराने ख़त खुले तो,, पानी पानी हो गईं !!

हरीश भट्ट

चंद अशआर - वो जख्म दिल के, दिखा रहा था !

शुभ संध्या दोस्तों ...चंद अशआर

वो जख्म दिल के, दिखा रहा था !
ग़ज़ल कोई ....गुन गुना रहा था !!

छुपाता कैसे ....मैं अश्क अपने !
वो सामने से .....ही आ रहा था !!

तू अब भी मुझमें, कहीं हैं बांकी !
न जाने क्या, सिलसिला रहा था !!

जला रहा था वो, शम्म-ए-उल्फत !
मैं शाम अपनी..... बुझा रहा था !!

थी इक ख़लिश सी, लबों पे मेरी !
वो पलकें अपनी ..झुका रहा था !!

चलो की तुम ......बेवफा नहीं थे !
मेरा ही कुछ ....मसलहा रहा था !!

जहाँ पे हद तुमने ....खींच दी थी !
मैं भी वहीँ पर ......रुका रहा था !!

...हरीश भट्ट ....

"उम्र की दहलीज के पार..." कविता

शुभ संध्या दोस्तों
"उम्र की दहलीज के पार..."

सुनो
कितने दिन बाद
दिखी हो 
चलन तो रक्खो
मिलने न सही
दिखने का ही सही
आदते बदल गई हैं न
याददाश्त भी

याद हैं
नुक्कड़  का वो
काफी हाउस
बड़ा सा ताला
मुह चिढ़ाता हैं अब तो
पार्क की वो आंखरी बेंच
अकेले
कब तक बैठेगा कोई,

और हाँ...
पहाड़ी का वो देवदार भी
पिछली बरसात में
गिर  चुका हैं
जिसपे उकेरा था
तुम्हारा नाम
तुम्हारे ही हेयर पिन से।

इस अंतराल में
तुम बदल रही हो
या ये मौसम
समझ नहीं पाया मैं
तुम्हारे
बालों पर  मेहँदी का रंग
गहराने लगा हैं अब 
कानों के ऊपर
झांकने लगी हैं
उम्र की
पक चुकी बालियाँ
चश्मा ...?
चश्मा लगाने लगी हो
तुम न
ये ..ओवल शेप
बदल लो.. फबता नहीं हैं
तुम्हारी
सुतवा नाक पर
याद हैं
मक्खी भी
बैठने नहीं देती थी तुम
और आज
आज ये चश्मा
अच्छा हैं लेकिन...
देखो
में भी लगाता हूँ
कुछ तो  हैं कॉमन
हमारे दरमियाँ
आज भी !!!

अपनी साड़ी के पल्लू को
भींच के रखने लगी हो तुम 
छोड़ो ..
गिरा के रक्खा करो
लहराने दो
हवाओं के रुख पर
कभी
तुम्हारी बासंती चूनर का
यही लहराव
हवाओं का रुख
तय करता था
और ये आँखों के
जर्द घेरे
कब से पाल लिए तुमने
कहाँ गया वो
सागर सी आँखों का
ज्वार भाटा
और वो
वो महकता पर्फियूम
और फिरोजी स्कार्फ
रुखसत  हो गया क्या ?
तुम्हारे गले से

पूरे बाजू का ब्लाउज
और ग्रे शेड्स
बढ़ते जा रहे हैं
तुम्हारे वार्डरोब में
हाई हील्स
फ्लैट होती जा रही हैं
और चेहरे की
मुस्कराहट भी,
रातें अब
कजरारी नहीं रही
ग़ज़ाल सी आँखों में
काजल लगाना
छोड़ जो दिया​  हैं तुमने
गज़लें आज भी
जिन्दा हैं मगर
तुम्हारे मोबाइल में

तुम्हारी आवाज की खनक 
अभी भी
वैसी ही हैं न
मंदिर के मंजीरों सी
छनकती थी
घुप्प खामोशियों में भी ​
या की
माहौल  का भारीपन
उतर आया हैं उसमें भी
बैचेनियों की उकताहट
क्या होती हैं
भूली तो नहीं न
छत के गमलों को पानी
देती तो होगी
आज भी
तकती भी होगी
अधजले चांद को
छत पे आने को
बहाने बनाना
कोई तुम से सीखे

सुनो..
उम्र की दहलीज के पार
तुम अकेले नही गई
मैं भी वही खड़ा हूँ
कभी मिल लिया करो
अचानक सी
बारिश की तरह
या किसी
टूटते तारे की तरह
गुजर जाया करो
ऐसे ही खामोश
कभी बाजू से
तुम्हें भी पता रहे
की तुम बिन
कोई ऐसे भी
जी रहा होगा ।।

हरीश भट्ट

वट सावित्री के पर्व पर कुछ पंक्तियाँ "जीवनसंगिनी" को समर्पित

आज वट सावित्री के पर्व पर
कुछ पंक्तियाँ "जीवनसंगिनी" को समर्पित 

सुनो
ये जो तुम मंदिर में
तिलक करते हुए
रोली चंदन लगाते हुए
पुष्प अर्पित करते हुए
परिक्रमा करते हुए
मन ही मन
मांग लेती हो न
उससे, उस परमपिता से
बालसुलभ ही
स्नेह, प्रेम
और सामर्थ्य का आशीष
सच कहूँ
तुम तब 
स्वयं इक देवांगना सी
लगती हो

अपनी सम्पूर्ण
तन्मयता के साथ
सम्पूर्ण
आसक्ति के साथ
की जैसे रोक ही लोगी
विघ्नताओं को
छूने न दोगी
आशंकाओं को
आने न दोगी मुझ तक
और मेरे स्वजनों तक
विपन्नताओं को, वर्जनाओं को
आश्चर्य
अभेद्य दीवार की तरह
कैसे रोक लेती हो तुम

तुम्हारे ललाट पे
सामर्थ्य के
पसीने में घुला सिंदूर
और तुम्हारी आंखों में
आशाओं के दीप
लहलहा उठते हैं
होंठों पर आरती के स्वर
थिरकने लगते हैं
हतप्रभ हो
देखता ही तो रह जाता हूँ तुम्हें

एक एक दिये के
रोशन होने तक
लोबान और धूप के
सुलगने तक
जल के प्रवाहित होने तक
कलेवे के चढ़ाए जाने तक
पुष्पार्पण होते होते
दिव्य रूप
ले ही तो लेती हो तुम

तुम्हारे हाथों की
चूड़ियों की खनक
माथे की
बिंदिया की चमक
झुमके की धमक
बिछुओं की ललक
मंगलसूत्र की गमक
हाथों की मेहँदी की धनक
कजरे की कनक
और शर्मीली नथ की कसक
सब तो सजदे में हैं
करबद्ध, कृतार्थ हो जैसे
तुम्हारे स्त्री होने पर

तब, ठीक तभी
लगता हैं कि
तुम्हीं तो हो वो वचन
आजन्म मेरी रक्षा का
सुरक्षा का
उस ईश्वर से
मेरे घर, मेरे परिवार
की अभिरक्षा का
वचन और सामर्थ्य
ऐसे ही तो
मांग लेती हो तुम
सस्नेह ही
हठ करके भी
उस परमपिता से

और क्यों न हो
मां जो हो  तुम
वात्सल्य
तुम्हारे आचर में जो पसरा हैं
जगतजननी की तरह
जब बाहें पसार लेती हो
अपने सम्पूर्ण ममत्व के साथ
माँ बरबस ही
याद आ जाती है
पत्नी होना
माँ होने से
कहीं कम होता हैं भला ??!

सुनो
स्त्री होना
जितना सुखद हैं
जितना सहज तुम्हारे लिए 
उतना ही
पूजनीय भी मेरे लिए
प्रणाम करने को
मन होता हैं
जब तुम्हें देखता हूँ
सर पे आस्था और
सजगता का पल्लू रक्खे
अपलक ही
पूरी श्रद्धेयता के साथ
सब की कुशलक्षेम
मांगते हुए
कभी
अपने लिए भी
मांग के देख होता
वैसे
आज क्या मांगा तुमने
बताओ न
पर जानता हूँ
शायद हमेशा से ही
वही जो सदा मांगा हैं
मैने तुम्हारे लिए

एक बात कहूँ
तुम आज
उस वट वृक्ष के नीचे
अपने सम्पूर्ण
स्त्रीत्व के साथ
साक्षात
सावित्री सी लगी मुझे
साक्षात सावित्री सी
हां सावित्री होने का सत्व
तो आज भी हैं तुममे
तुम रख पाई हो
सगर्व ही ससंस्कार ही
सत्यवान मुझे भी
और क्यों न हो
अर्धांग जो हो तुम !!

सुनो तो
प्रणाम
मुझे कर लेने दो आज !!

हरीश भट्ट

बलात्कार ... शर्मिंदा हूँ खुद से

बलात्कार ... शर्मिंदा हूँ खुद से

किसी मासूम से चेहरे को.. मसलने वालों ।
तुम्हारे घर में भी इक चाँद सी, बेटी होगी ।।
आज इस खाक-ओ-लहू में जो आलूदा हैं ।
लाड़ से बाप के सीने पे भी... लेटी होगी ।।

वो भी घुटनों कभी पैरों से...चली ही होगी ।
उसने तुतला के कभी माँ तो, कहा ही होगा ।।
जब भी चूमा  कभी माथे पे, गालों पे कभी ।
मेरी दुनिया हैं मेरी जाँ तो... कहा ही होगा ।।

वो जो परियों सी शाहज़ादी, हुआ करती थी ।
खिलखिलाने की जो आदी, हुआ करती थी ।।
आज खामोश हैं उसकी जुबाँ... बेहोश हैं वो ।
कल तलक बरकतें थी आज अफसोस हैं वो ।।

किसी बेटी को गलत अंदाज जो छू लोगे कभी ।
खुद की बेटी को किस अंदाज से देखोगे भला ।।
कभी रातों के  किसी अँधियाले से, सन्नाटों में ।
जुर्म के ख़ौफ़ को अक्सर...कैसे रोकोगे भला ।।

देखने वालों जरा तुम भी... संभल का देखो ।
अपने चश्मे को जरा तुम भी बदल कर देखो ।।
ये न हिन्दू न मुसलमान ,  का उघड़ा हैं बदन ।
ये जो उजड़ा हैं किसी मां का हैं उजड़ा ये चमन ।।

फिर किसी बेटी के दामन को, कुचलने वालों  ।
कहीं ऐसा  न हो ये चेहरा, दिखा भी न सको ।।
किसी मासूम से चेहरे को....... मसलने वालों ।
अपनी बेटी से कभी आंख...मिला भी न सको ।

किसी मासूम से चेहरे को ...
तुम्हारे घर में भी तो इक चाँद सी ....


.....हरीश भट्ट....

एक नज़्म आज की 'बारिश' की नज़र ...

शुभ संध्या दोस्तों
एक नज़्म आज की 'बारिश'  की नज़र ...

जरा सी क्या हुई... बारिश
निकल आये हो आँगन में !
ये इतनी भी ..ख़ुमारी क्या,
लगी जो आग सी तन में !! 

ज़रा खुल कर ...बरसने दो
जमीं ये तर  ...तो हो जाये !
अभी झिलमिल हैं सुब्ह सी,
जरा दिन भर तो हो जाये !!

ये बूँदें ...हैं तो ..कमसिन....
आसमां से इश्क़ करती हैं !
बहुत इतरा के ...गिरती हैं,
फिजां में ..रक्स करती हैं !!

कभी छन छन छनकती हैं,
मेरी महबूब की पायल सी !
कभी खन खन खनकती हैं,
महकती जैसे,,, संदल सी !!

जबीं पर जब ये गिरती हैं..
भरी ...पूरी .....रवानी से !
के बचपन....मिल रहा हो..
जैसे अल्हड़ सी जवानी से !!

छिटक कर ..कसमसा कर
बादलों से यूं ..निकलती हैं !
तड़प कर जिस्म से ..जैसे
मेरी ये जां ...निकलती हैं !!

मैं कितनी बार ...भीगा हूँ
इन्ही रिमझिम ..फुंहारों में !
कभी बचपन की गलियों में
जवानी की ....कतारों में !!

कभी तुम भीगना ...चाहो
तो कहदो बे-खतर हो कर !
मुहब्बत से तुम्हें ....जानां
भिगो दें तर-ब-तर होकर !!

सुनो नन्ही सी .....बूंदों से
न इतना भी तो ..घबराओ !
कभी आंगन में ..आओ तो,,
कभी छत पर निकल जाओ !!

मेरी मानो ....जरा ...देखो
कभी पानी में ..ढल कर के !
क्या देखा हैं ..कभी बारिश
में नंगे पांव ..चल कर के !!

ये बारिश गर....नहीं होती
तो जीवन सूखा रह जाता ! 
कमी तन की तो भर जाती
मगर मन भूखा रह जाता !!   

सुनो ये... प्रेम की ..निर्झर,
फुहारें.....तुमको समझाएं !
किसी में तुम ..समा जाओं, 
कोई ..तुममें....समा जाए !!

किसी में तुम ....
कोई तुम में ....

...हरीश भट्ट....

दर्द दिल में हैं,, आँख भारी हैं - एक नज्म

शुभ रात्रि से पहले....

दर्द दिल में हैं,, आँख भारी हैं !
सिलसिला टूटने का, ज़ारी हैं !!

सबके कांधों पे, इतनी लाशें हैं !
अबकी लगता हैं, मेरी बारी हैं !!

बेटियां घर में, सहमी सहमी हैं !
कुचले जाने का, खौफ तारी हैं !!

इश्क में खुद को, भूलने वालों !
ये भी शायद कोई, बीमारी हैं !!

हर किसी आस्तीं, में हैं नश्तर !
जिन्दा रहने की, मारा मारी हैं !!

ये उजाले तुम्हें,, मुबारक हों !
श्याह रातों से अपनी यारी हैं !!

कैसे आता शऊर,, जीने का !
जिंदगी तोहमतों की, मारी हैं !!

उनके होंठों से हैं,हसीं गायब !
ये भी क्या मेरी, जिम्मेदारी हैं !!

कैसे कह दूं की, मेरी हो जाओं !
आख़िरश जिंदगी, तुम्हारी हैं !!

हरीश भट्ट

एक नज़्म आँखों में तिश्नगी हैं, हर इक जुबां पे ताले हैं !

शुभ प्रभात दोस्तों
एक नज़्म

आँखों में तिश्नगी हैं, हर इक जुबां पे ताले हैं !
जाने ये  लोग कैसी, दुनिया के रहने वाले हैं  !!

बस्ती में मर गया था कल एक बशर कभी का !
रूकती कहाँ हैं सांसें, रुकते कहाँ निवाले हैं !!

तुम बात कर रहे हो,, जिन दोस्तों की यारो !
इनसे ना होगा कुछ भी, ये मेरे देखे भाले हैं !!

कुछ खामियां हैं मुझमें, रुस्वाइयाँ भी होंगी !
जैसा भी शख़्श हैं ये, अब आपके हवाले हैं !!

किस पर सवाल रखते, क्या इंतजाम करते !
कुछ सांप हमने बरसों, इस आस्तीं में पाले हैं !!

तुमको भी इश्क़ होगा, तुमने भी चाहा होगा !
ऐसे सवाल हँस कर, मुद्दत से हमने टाले हैं !!

....हरीश भट्ट ....

यूं तो कहने को ये एक कहानी ठहरी....

यूं तो कहने को ये एक कहानी ठहरी....
....................................................
और एक दिन वो चली ही गयी...
उस जहाँ में जहां से लोग कहते हैं की, शरीर बदल कर ही कोई लौट पाता हैं
२५ कि उम्र.. भरा पूरा परिवार, पति सेक्ट्रेट में  ऊँचे पद पर, दो बच्चे, तीन कमरे का छोटा सा फ़्लैट, घर गृहस्थी कि भागमभाग। कुछ पुराने रिश्ते नाते, करीबी तो बस एक आध ही, दरमियाना कद चेहरे पर हमेशा से चिपकी ..लम्म्मबी सी मुस्कान कान के कोने तक जाती हुई। ताम्बई होता रंग.. यही था परिचय वैसे तो उसका ..बताने  को.. न बताने को ओर भी बहुत था वैसे 
"कुंतल" … यही नाम तो था उसका.. आप कहेंगे नाम में क्या रक्खा हैं आखिर,
पर नाम में ही शायद सब कुछ रक्खा था उसके लिए,, घनघोर श्याम वर्ण कुंतल उसके चेहरे पर उदासी की गहराहट को और बढ़ा दिया करते थे.. चेहरे का पीलापन सांझ तक आते आते और पनियाला हो जाता था। बच्चे समझ नहीं पाते थे कि माँ से कैसे बात करें जिद करना तो दूर कि बात थी।
घंटों शून्य मैं तकते हुए बिता देना शग़ल हो गया था उसके लिए, बीती बातों को क्या जरा भी याद करना मुश्किल तो नहीं ही होता होगा न..
बीती बातें ……मुझे भी तो धुंधली सी ही याद हैं अब …
हमारी बस्ती मैं मिडल स्कूल हुआ करता था तब …तब से जानता हूँ उसे, मेरे ही साथ तो पढ़ती थी.…।
छल्लेदार कमीज और सितारों वाली चूनर पक्की सहेली थी उसकी, फिरोजी रंग पसंद था उसे, गले में काले धागे के साथ राम जी का लॉकेट भी..कोर तक गहरा काजल उसकी आँखों को और बड़ा कर देता था.. बचपन अधूरा हो तो बचपना जाता नहीं…बड़े होने तक भी
कुछ भी बेपरवाह कह देना आदत थी उसकी, चुप रहना तो दूर कि बात थी शायद बेसाख्ता बेझिझक चाहे सुनने वाला कुछ और मतलब निकल ले..
माथे पर बालों के लहरावदार गुच्छे गाहे बगाहे आ ही धमकते थे और सारा दिन उन्हें बरबस ही सहेजने में निकल जाता होगा उसका ऐसा मुझे लगता था
हमउम्र मंडली साथ ही रहती थी उसके चाहे नुक्कड़ वाली दुकान से संतरे वाली गोली लेना हो या पास कि अमराई से खट्टी मिठ्ठी अम्बियाँ चुरानी हों
दिन भर धमाचौकड़ी मजाल हैं जो किसी को हाथ भी रखने दे तुनक कर करारा जवाब वो भी हाथ के हाथ ...किसकी बिसात जो छुपन छुपाई में कोई उसे ढूंढ ले
ये सब ओरों से सुना था मैंने, .. मैंने तो जब भी देखा सकुचाई लजाई सी ही मिली मुंह मैं जबान न हो जैसे, लोगो कि सुनता था तो लगता था कि... मेरे ही साथ ऐसा नाटक क्यों, फिर लगता था यही स्थाई हैं बाक़ी तो केवल आवरण मात्र
मैंने कहा न बचपना नहीं जाता भले ही बचपन कोसो दूर निकल गया हो
फिर बात कुछ बदली बदली सी भी हुई सतरा-अठरा सालों कि तब बातों के मायने बदलने लगे होते हैं ...होठों कि मुस्कान कान के सिरे तक ललायमान कर देती हो तो अर्थ के अनर्थ होने में देर नहीं हो पाती … यौवन कि दस्तक सुनाई नहीं देती महसूस कि जाती हैं साथ साथ होने में ही नहीं अकेले भी !
नया सूट पहनने पर "कैसी लग रही हूँ " पूछना बनता ही था उसका
स्कूल मैं भी अपना टिफिन मुझसे शेयर किये बिना खाना हजम नहीं होता था उसका, मेरी कविताओं की एक डायरी मेरे पास थी और एक उसके पास जो उसने मुझसे सुन के पता नहीं कब लिखी...लड़ाई ओरों से होगी मुह मुझसे फुला लेना आदत थी उसकी आखिर मनुहार को कोई तो होना चाहिए न...
कभी मुझे लगता था कि उसके इस व्यवहार का मैं आदि नहीं हो पा रहा हूँ.. और खुद को संयत रखने कि कवायद में,, उसे उलझा देता था मैं..
"कुंतल चलो कहीं बैठ कर एक कप कॉफ़ी पीते हैं" एक नहीं कई बार कहा था मैंने
पर संकोच था या उसे काफी का स्वाद पसंद नहीं था कभी न जान पाया मैं
पर याद नहीं करना चाहता अब मैं,, याद करने को जी भी नहीं करता.. क्यों कर करू शिराओं मैं रक्त तीव्र होने लगता हैं ...परिकल्पनाएं साकार रूप में होने पर भी अनदेखा सा रहा मैं जैसे ..हाँ जिद ही नहीं की कभी शायद....काश के की होती..
निरपेक्ष भाव का सुख और तटस्थ रहने का आलोक कचोटता हैं अब मुझे !
फिर भी क्या रिश्ता था उसका मेरे साथ न उसने कभी जानने कि कोशिश कि न मैंने कभी कुरेदने कि
पर था तब भी जब बांकी संगी साथी कहीं छूटने लगे थे, सतरंगी सपनो कि दुनिया होती होगी पर हमें कभी नहीं पता हो पाया या ..शायद मैं अकेला ही अनभिज्ञ था !
ऐसा भी न था कि मुझे दीन दुनिया कि खबर न हो या कि उसे ही जब्त कि आदत रही हो …एक दफा का तो कुछ कुछ याद भी हैं मुझे धुंधला सा..... कुछ कहने कि कोशिश कि थी उसने कभी … शायद ज्योत्स्ना कि शादी वाले दिन जब ज्योत्स्ना ने भर्राते हुए कहा था
""कुंतल मेरा तो जो होना था हुआ अब तुम्हारी बारी हैं मन कि मन में मत रखना"
मेरे सामने ही कि तो बात हैं मुझे बड़ी बड़ी मृग के छौने सी आँखों से उनिग्ध हो देखा था उसने, जैसे ज्योत्स्ना ने नहीं,, कुंतल ने पूछा हो मुझसे और मैं उससे कह बैठा कि ""मैंने क्या किया हैं मुझे क्यों आँखे दिखा रही हो"" हालाँकि तब भी जबकि मुझे पता था कि ज्योत्स्ना किसी और ही साहिल कि किश्ती पर सवार थी पर कभी कह नहीं पायी..
आज ये सब याद करते हुए सवालों कि गुत्थी सुलझा नहीं पा रहा हूँ मैं
विवश कभी नहीं रहा था मैं.…फिर क्या था वो.… क्या कोई पूर्वाग्रह
पर अब तो उत्तर देने वाला भी कोई नहीं और न उत्तर सुनने को ही कोई बचा हैं
कितनी खुश थी अपनी शादी वाले दिन कुंतल... मुझे तो ऐसा ही लगा था (?) पूछा था उसने बारात आने से कुछ क्षण पहले ""नाराज हो""
""नहीं तुम्हे ऐसा क्यों लगा"" यही कह पाया था मैं केवल
""फिर तुमने मुझे बधाई क्यों नहीं दी कल से कुछ न बात कि न सामने ही आये तुम"" ""अब क्या कुछ कहोगे नहीं मुझसे"" "सिंदूर की डब्बी मंगवाई थी तुमसे लाये नही न क्या इतना भी हक़ नही दोगे अब"
स्थिर रह गया था तब भी मैं ...उसकी आँखे वही मृग के छौने जैसी फ़ैल कर और बड़ी लग रही थी तब,, शहनाई और बैंड कि आवाज कहीं लुप्त सी हो गई हो जैसे नेपथ्य मैं ...बांकी के सवाल उसकी पलकों कि कोर पर ही तैर गए जब मैंने कहा कि.......... ""तुम तो ख़ुश हो न"'
कई बार लगा,, बल्कि बार बार ...कि कैसा बचकाना सवाल था
फिर कभी जिंदगी में किसी और से ऐसा सवाल शायद ही पूछा हो मैंने
फिर सोचा उसकी विदाई पर बांकी दोस्तों की आँखे भी तो नम थी ही...कितनी बचकानी सी समझ थी न... या दिल को बहला लिया था बस...
अब ये तो मुझे याद नहीं कि अपनी शादी पर मैंने उसे नहीं बुलाया था या वो खुद ही नहीं आई थी...
हालाँकि उसके बाद भी कितनी ही बार उससे मुलाकात हुई फोन पर, बाजार में
पर एक लक्ष्मण रेखा सी खिंच गई लगता था ..हाँ वह एक सवाल हमेशा मौजूद रहा .. हमेशा... जवाब न मैंने कभी ढूँढा,, न उसने कभी जाहिर होने दिया
अभी कुछ दिन पहले ही तो मिली थी डॉ गम्भीर के क्लिनिक में
""क्या हुआ"" पूछने पर बताया उसने कि "कुछ नहीं बस तबियत ख़राब हैं बुखार हैं"
""सुनो तुम हमेशा कहते थे न चलो आज कही बैठ कर एक कप काफ़ी पीते हैं""
न जाने क्या सोच के कहा था उसने ..
मैं जड़वत उसके पीछे कॉफी शॉप तक चलता चला गया .. मैंने सिर्फ कॉफ़ी पी....सिर्फ काफ़ी.. पर उसने .. उसने न जाने क्या क्या !!
यही पहला और आखरी कॉफ़ी का प्याला था उसके साथ, अपने बच्चो अपने पति के साथ कितनी खुश हैं वो,, जाने क्यों जता रही थी वो उस दिन ...
पर दिल मैं एक हौल सा उठ रहा था तो लौटते हुए मैं डा. गम्भीर से मिला था केंसर स्पेसिअलिस्ट हैं वो उन्होंने ही बताया …लास्ट स्टेज हैं...और मुझे.. आज ..अब पता चला !!...वो भी "कैंसर"
और दो माह बाद ही वो चली गई ..उस जहाँ में.. लौट कर आता नहीं जहाँ से कोई
तब से कुछ साल कुछ महीने कुछ दिन और कुछ घंटे बीत चुके हैं
कॉफ़ी पीना.. मैंने हमेशा के लिए छोड़ दिया था तबसे.....
.....हरीश .....

सहानुभूति ? कथा

सहानुभूति ?

"नहीं दीपिका इस जिन्दगी से अब कुछ नहीं चाहिए मुझे" सतीश ने झुझलाकर दीपिका को कहा ...."कुछ नहीं हो सकेगा मेरा ...न किसी मुकाम पे ले जा पाउँगा खुद को"
"नहीं सतीश.... तुम मेरे दोस्त हो न ...मेरी तरफ देखों.... मैं तुम्हे इस तरह टूटते नहीं देख सकती तुम में क़ाबलियत हैं ,कोशिश की जरूरत हैं यूं हार मत मानो अभी से"" भर्राए गले से कहा दीपिका ने
"'दीपिका'..मैं कभी कामयाब हो ही नहीं पाऊँगा  ..क्या क्या सपने देखे थे मैंने बचपन से ही ..एक बड़ा सा स्टेज ...सामने लोगो का हजूम ..ओटोग्राफ लेने के लिए भागते लोग ...चकाचौध से भरपूर दुनियां.... लेकिन.. सब ख़त्म ,,सब ख़त्म ...मैं गा ही नहीं पा रहा हूँ दो दिन से"" .......सतीश के मुह से शब्द निकल नहीं रहे हो जैसे  ..हताशा का आवेग उसकी आँखों में था
दीपिका की आखे नम हो आई .......
दीपिका और सतीश एक प्रोग्राम के सिलसिले मैं आगरा मैं मिले थे ताज महोत्सव मैं दीपिका अपने शहर देहरादून से अपने राज्य की नुमायन्दगी पर थी और सतीश  ... बचपन से ही सिंगर बनने का ख्वाब दिल में लिए आया था महोत्सव की जादूगरी को देखने, वहीं  सतीश ने दीपिका के गाने की तारीफ की और अपने मन की ख्वाहिश बयां की ,,दीपिका ने भी उसका हौसला बढ़ाते हुए उसकी मदद करने का वायदा किया था छोटी सी मुलाकात कब परवान चढ़ी ...पता नही चला
और आज चार महीने बाद ये सहानुभूति दोस्ती में बदल चुकी थी ...एक अच्छी आवाज होते हुए भी सतीश में  आत्मविश्वास की कमी थी वह जल्दी टूट जाता था तनाव और अवसाद ..पत्नी का बेमेल रवैया उसे उसका गाना जरा पसंद नही था ..और फिर परिवार की अन्य  समस्याएं भी तो मुंह  बाए खड़ी थी . दीपिका ने अपनी पहुंच से कुछ अच्छे  प्रोग्राम में सतीश को भी चांस दिलवा दिया था पर आगे तो उसे ही बढ़ना था अपनी मेहनत से दीपिका ने सतीश को हमेशा ही उत्साहित किया उसके अंदर के कलाकार को उभारने उसे अवसाद झिझक से बाहर लाने की हर सिम्त कोशिश
.."दीपिका आज कल तुम रहती कहाँ हो भाई.? तुम्हारे प्रोग्राम तो आजकल चल नहीं रहे हैं कहीं... फिर भी तुम इतनी व्यस्त हो की बच्चों की अभिवाहक मीटिंग में जाने का भी टाइम नहीं मिला" ...राजेश ने देर से घर पहुंची दीपिका से कुछ तल्खी से पूछा था ..."'वो मैं अपनी एक रेकॉर्डिंग के सिलसिले मैं निर्देशक साहब के साथ थी"" '...झूठ बोल गयी थी दीपिका अपने पति से...........
कैसे कहती की वो सतीश को सांत्वना देने उसके साथ थी.. जरूरत थी सतीश को उसकी
""देखो दीपिका तुम्हारा रचनात्मक जीवन तुम्हारे साथ हैं लेकिन मैं यह कभी नहीं चाहूँगा की तुम अपने शौक के लिए परिवार की जिम्मेदारियों को तिलांजलि दे दो."". राजेश टिपिकल पति की तरह पेश आया था ""और तुम्हारे ये प्रोग्राम रिहर्सल्स क्या रेस्टोरेंट मैं होने लगे हैं आजकल.... कल अपने त्रिपाठी जी बता रहे थे  की तुम मिडवे रेस्तरां मैं बैठी थी किसी के साथ .....""
बहुत घटिया सा मुह  बना कर कहा था राजेश ने  ""यदि तुम इन्हे आपस मैं व्यवस्थित नहीं कर पा रही हो तो घर मैं बेठों यूं भी बाहर लोगो से मिलना जुलना मुझे पसंद नहीं रोज़ रोज़ ये नही चलेगा अब वरना अपने रास्ते अलग कर लो"" ...राजेश ने उसे तकरीबन धमकाते हुए अपना फैसला  सुना दिया था
एक नश्तर सा उतर गया दीपिका के सीने में .....इसी जद्दोजहद मैं दो बार फ़ोन काटा था उसने सतीश का ...
अजीब कशमकश थी दीपिका के जहन में  सतीश....राजेश.....परिवार.......और उसका करियर सब एक साथ घूम गया था ...आश्चर्य की सतीश का नाम पता नहीं क्यों बार बार आ रहा था इन सबके बीच ...जोर से सर झटक दिया था उसने और चल दी थी रसोई की तरफ
'"कैसी हो दीपिका आज बहुत दिन बाद मिली हो अब तो फ़ोन भी कम उठाती हो तुम मेरा" ...."सुनो मुझे रत्नाकर साहब ने अपने ग्रुप मैं गाने का मौका दिया हैं ..बहुत अछे इन्सान हैं रत्नाकर साहब कई अच्छी फिल्म्स की हैं उन्होंने पता नहीं उन्हें मेरी आवाज कैसे पसंद आ गयी." सतीश ने चहक कर कहा
फीकी सी मुस्कराहट थी दीपिका के चहरे पे ....'"तुम्हारा प्रयास हैं सतीश तुम्हारी मेहनत रंग ला रही हैं कहा था दीपिका ने '"
न बता पाई की रत्नाकर जी को सतीश की सिफारिश के लिए कितने हाथ पैर जोड़े थे  उसने बावजूद के राजेश को ये पसंद नही था बावजूद की तल्खियां बढ़ती जा रही थी उनके बीच  एक दो बार तो राजेश को उसका फोन टटोलते भी देखा था उसने... पर वो खुद को रोक नही पा रही थी सतीश से मिलने को
और एक रोज .."दीपू आज शाम आ रही हो न काफी शॉप पे नए एल्बम की ख़ुशी सेलिब्रेट करनी हैं तुम्हारे साथ ...सिर्फ तुम और मैं और ...और  कुछ कहना भी  हैं तुमसे
."".सुनो सतीश तुम्हारी मुराद अब पूरी होने लगी हैं अब तुम्हे मेरी जरूरत नहीं प्लीज मुझे फ़ोन मत करा करों"" ..सपाट कह गयी थी दीपिका
'''नहीं दीपिका अब तो कहने के दिन आये हैं अगर आज मुझे कुछ हासिल हैं तो तुम्हारी ही कोशिश हैं नहीं तो मैं तो टूट ही चूका था तुम राह न दिखाती तो शायद मैं कभी गा ही न पाता तुम मेरी जरूरत हो दीपिका मेरी प्रेरणा तुम्हे कैसे न शामिल करता अपनी ख़ुशी मैं....'' सतीश उत्तेजित सा था कुछ
""बस सतीश मैं अपने परिवार से बहुत प्यार करती हूँ तुम्हारा साथ तुम्हारे जज्बात कोई नहीं समझता वहां ...मैं तो आखरी बार कहने आई हूँ की शायद अब मैं मिल न पाऊँ""
झक्क पढ़ गया था  था सतीश का चेहरा कितने अरमान थे उसके दिल मैं ....सोचा था उसने की आज तो अपने दिल की बात कह ही देगा वह दीपिका से .....
....''ये क्या कह रही हो दीप मैं...मैं....तो ........नहीं दीपिका मैं मर जाऊंगा .........मैं तो.....तुम्हे........अपना सर्वस्व मानता  हूँ......
"".मैं शादीशुदा हूँ सतीश तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया......... बिखर गई थी  दीपिका .....तुम....तुमने मेरी सहानुभूति को कुछ और समझा ....प्लीज जीने  दो मुझे भी सतीश उकता गई हूँ में रेज़ा रेज़ा टूट  रही हूँ .. गलती हो गई मुझसे ..कोई हक नहीं एक शादीशुदा, एक पत्नी को किसी गैर से दोस्ती का रिश्ता रखने का भी ...अब मैं कभी नहीं मिल पाउंगी "" 
अवाक था सतीश
""तो तुमने ...क्या जरूरत थी ..तुम्हे.....मेरी जिंदगी मैं आने की....क्यों झूठी सहानुभूति .....वो बाते.....हे ईश्वर."".....सतीश फट पड़ा था ............व्यर्थ के तर्क कुतर्क........बेमतलब वाद विवाद ........अंतहीन कहासुनी..........और फिर कसक। के साथ गीली होती कोर ..खोमोशी का उबाल ...
एक साल गुजर चुका हैं  ...राजेश अब दीपिका के साथ नहीं रहता हैं कहीं हल्द्वानी ट्रान्सफर करवा लिया हैं उसने अलग रास्ता जो चुनना था उसे रोज रोज त्रिपाठी जी की जासूसी बरगला गई थी उसे
और सतीश ...तीन तीन हिट एलबम देने के बाद एक नई फिल्म कर रहा हैं वह ..
दीपिका स्कूल से बच्चों को घर लाते हुए ...सोच रही हैं कैसे कैसे मरहले आते हैं जीवन में......राजेश हो या सतीश रिश्तों की गर्माहट खत्म हो गई हैं सर्द हवा के साथ ...गाना छोड़ दिया हैं अब उसने
लेकिन अतीत की दस्तक.... कि क्या गलत किया था उसने घर में बैठ के सोचती हैं जब. तो जवाब नहीं मिलता कुछ !!
--
हरीश भट्ट

कौन जान सकेगा...?? कथा

देहरादून के गढ़वाल विकास निगम का वह कांफ्रेंस हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था मंच पर राज्य के सांस्कृतिक विकास मंत्री श्री परमार जी ने अपना उद्बोधन देना शुरू किया ...."मुझे ख़ुशी हैं और गर्व भी,.. इस साल का संस्कृति रत्न पुरुस्कार श्री अनिरुद्ध डबराल जी को देते हुए ...आज  इनके काव्य संग्रह "अंतस " का विमोचन करते हुए मुझे अत्यंत हर्ष हो रहा हैं...इतनी कम उम्र में ऐसा प्रखर सृजन......... ""
....और हाल एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से भर गया....
अनिरुद्ध की आंखे स्टेज पर खड़े खड़े डबडबा आई थी ....आज उसका सपना जो साकार हो रहा था ...चिर प्रतीक्षित सपना ...उसकी पिता जी कि आँखों में चमक बड़ गई थी... बढ़ा आयोजन था...सब दोस्तों कि नजरें  आज अनिरुद्ध पर ही थी ...और जब अनिरुद्ध ने अपनी पुस्तक से कविता के  कुछ अंश पढने शुरू किये...
अंतस तक प्यासी हैं धरती
आओ अम्बर को बतलाये ....
तब..तब वहीँ तो थी कादम्बिनी  हॉल के दूसरे दरवाजे कि ओट  में ....हजारों बार सुनी थी उसने यह कविता अनु के मुह से ...तब उसे लगता था जैसे धरती कि नहीं यह उसकी स्वयं कि बात हो...."अंतस तक प्यासी हैं धरती.....(हाँ वह प्यार से अनिरुद्ध को अनु ही कहती थी)
कुछ दिन पहले  कि ही तो बात हैं .....
""अनिरुद्ध ""....बहुत दिन से तुमने कुछ नया नहीं लिखा...... पूछा था कादम्बनी ने...एक सकून भरी मुस्कराहट के साथ कहा था अनिरुद्ध ने...नहीं कादम्बनी कुछ नया लिखने का मन नहीं ...मेरे अन्दर से तब कुछ उत्सर्जित होता   हैं  ..जब में अकेला  होता हूँ ...दर्द और बेचैनी निकल ही आती हैं वर्कों पर ...लेकिन ...तुमसे मिलने के बाद सब कुछ पा लिया लगता हैं मेरी तलाश ख़त्म हुई...
"लेकिन अनिरुद्ध तुम्हारे सपने...तुम चाहते थे न कि तुम्हारा काव्यसंग्रह....."" ...
"ओहो....कादम्बिनी ...तुम हो ना मेरा काव्य संग्रह...आओ कहीं काफी पीते हैं"
"पर अनिरुद्ध तुम्हारा सपना मेरा भी तो हैं ..में तुम्हे आगे बढ़ते देखना चाहती हूँ जरूरी तो नहीं केवल मिलन और विछोह के ही गीत लिखे जाये...खुशियों के पल भी तो हैं सामाजिकता ..संस्कृति..."
"प्लीज़ कादम्बनी ...सुबह सुबह ..क्यों मूड ख़राब कर रही हो ..तुम्हारी दोस्ती मुझसे हैं या मेरी रचनाओं से.".कसक कर कहा अनिरुद्ध ने
"" नहीं अनु ..तुमसे तो हैं पर ..तुम्हारी रचनाओं  में  मेरा जीवन बसता  हैं....  तुम्हारी रचनाओं कि नायिकाओं में मैं खुद को तलाशती हूँ ...रख के देखती हूँ खुद को ...""
""हहहहहः ....क्या कादम्बनी ...तुम भी न...अरे कल्पनाओं कि नायिका और तुममे बहुत फर्क हैं " ... हँसते हुए कहा था अनिरुद्ध ने
"वो तो अतीत हो जाती हैं ...पल में ओझल ..पर..पर तुम तो मेरा वर्तमान हो...तुम से तो मैंने जीना सीखा हैं ....अच्छा  ..सुनो...प्लाजा में नई फिल्म लगी हैं ... शाम को चलते हैं ...वहीँ रेस्तरां  में कुछ खा लेंगे.." और हाँ तुमने वादा किया हैं कि कल तुम अपने घरवालों से बात भी करोगी "
"नहीं अनु...आज मुझे कुछ काम हैं में चलती हूँ . बाय " अनमने ही उठ खड़ी हुई थी कादम्बिनी
घर लौटते हुए कादम्बिनी  के चेहरे पे उदासी थी ...वह सोच रही थी ...कि कैसे अनिरुद्ध को बताये कि उसकी बातों में उसकी रचनाओं में एक अलग बात हैं ...वह अच्छा लिख सकता हैं ...इतना कि दुनिया उसे पढ़े ... और उसे सर आँखों पे बिठाये
कादम्बिनी अनिरुद्ध को बचपन से जानती थी दोनों  एक दूसरे कि चाहत थे पर कादम्बनी कि नज़रों में प्यार के मायने अलग थे वो जब अनिरुद्ध कि आँखों में आगे बढ़ने का सपना देखती थी..जब उसके चेहरे पर भविष्य कि ख़ुशी कि झलक महसूस करती थी तो उसे लगता था कि शायद यही चाहत हैं उस खुशी उस सपने को पूरा करने में ही उसके प्यार का हक अदा हो जाये शायद
शाम गहरा गई थी आसपास भी और मन के अन्दर भी ...सोचते  सोचते ...घर भी नजदीक ही था...कुछ तो निश्चय कर ही लिया था उसने ..आखिर क्या ?
अल सुबह ही अनिरुद्ध का फोन आ गया ....
"हाय कादम्बिनी कैसी हो" ....."ठीक हूँ कहो कैसे फोन किया"
"कादम्बिनी याद हैं ना तुम्हे आज तुम आपने घरवालों से मेरे बारे में बात करोगी " आवाज में चमक थी अनुरुद्ध की
"..क्या मतलब ..कैसी बात .." कादम्बिनी सपाट थी
"अरे ...हमारे रिश्ते की बात  ...." चहका था अनिरुद्ध
""क्या बकवास कर रहे हो अनिरुद्ध ..एक दो बार तुम्हारे साथ घूम क्या लीया  तुमने मुझसे रिश्ता जोड़ लिया ...तुमने सोच भी कैसे लिया कि में तुमसे शादी करूंगी ....तुम सिर्फ दोस्त हो मेरे पर शादी ...में तुमसे शादी कभी नही करना चाहती थी "
मजाक कर रही हो ... अनिरुद्ध अभी भी बेअसर था किसी भी अनहोनी से
"तुम्हें मेरी बातें हमेशा मजाक ही लगती हैं न अनु कभी तुमने अपने आगे कुछ समझ भी हैं मुझे ....बस अपनी कविताओं की कपोल कल्पना हूँ न में तो आगे से कभी मुझे फ़ोन मत करना""
और...फोन काट दिया कादम्बनी ने ....उसकी आँखों में खारापन बड़ गया था और सीने में भारीपन भी ....
हाँ यही तो सोचा था उसने कल शाम घर वापस आते हुए गहराते अंधियारे में.. और कोई रास्ता नही था .......
और अनिरुद्ध जड़ होगया था ..सुन कर...उसने कादम्बिनी को मिलने की बहुत कोशिश की तो पता चला वह आपने मामा के यहाँ चली गई हैं ..हल्द्वानी ..किसी कोर्स के लिए...
छः माह बीत गए शायद....
कांफ्रेंस हाल से निकलते हुए बुक स्टाल से कादम्बिनी ने  अनिरुद्ध की कविताओं का संकलन खरीदा ..प्रथम पेज पर ही "दो शब्द .."पढ़ कर उसकी आंखे फिर से नम हो गई वह दौड़ रही थी पूरे वेग से घर की ओर...लिखा था ..
""एक स्नेहिल मित्र के अंतस को समर्पित.... ""
कौन जान सकेगा की ..क्यों उमड़ घुमड़ कर आये मेघ कभी कभी धरती को प्यासा छोड़ कर रुख बदल लेते हैं जबकि उनकी तृप्ति भी धरती को अंतस  तक भिगोने की ही हैं ...
कौन जान सकेगा...??
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हरीश भट्ट

कैसे बुन लेती हो !! कविता भी,,और स्वेटर भी

तुम,,
कैसे बुन लेती हो !!
कविता भी,,
स्वेटर कि तरह !!!
एकसार, त्रुटिहीन..
लयबद्ध
अलंकारमय
गुनगुना सा...!!

शब्द ,,
एक दूसरे में
गुथे हुए,,,
प्रीत के फंदों में
सिमटे ,,,
अनगिनित रंगों ...
असीमित विस्तार ,,
में सजे हुए ..!!
ऊन का सा
मखमली एहसास..
कविता में भी ..!!??
कैसे पिरो लेती हो
तुम..!!""

सृजन की यह
आत्मीयता
स्संस्कार ही होगी तुममे
या प्रसव की वेदना सी
उत्सृजित होती हैं
यदा कदा ..!!
अपरिपक्व शब्दों से
मंथरित गूढ़
वाक्यांशों तक
यूंही तो गढ़ती हो तुम
ऊन के लच्छों को
व्यवस्थित गोलाइयों में
बुनावट का ये क्रम
कैसी तल्लीनता का
द्योतक हैं..!
सुध बुध विहीन हो जैसे..!!
कैसे पिरो लेती हो ..??
सुख -दुःख को
शब्दों की सिलाइयों में

सभी रंग तो हैं यहाँ
देखो तो ..
कभी मात्राओं  की तरह
फंदों का घट बढ़ जाना
कभी वैचारिक तारतम्य का
धागों की तरह टूट जाना
कभी किसी कोने में
अधबुना सा
अधलिखा सा
छूट  जाना
कभी मनभावन हो तो
पायल सी रुनझुन
और  कभी
मनमाफिक न हो
तो बस
उधेड़ बुन

कभी अखबार
या चाय की चुस्कियों के साथ
जब तुम पूछ लेती हो
शोख रंगों
या पैटर्न के बारे में
विन्यांश या
साइज के बारे में
में उलझ सा जाता हूँ ..!!??
तुम नए स्वेटर की
बात कर रही हो
या नई कविता की ??

लो..!!!!
कब पूरा कर लिया
तुमने इसे..,,!!
गर्वित सी उश्मिता लिए
ओढ़ लेता हूँ में
स्वेटर हो या
तुम्हारी पंक्तियाँ
ह्रदय से लगी हुई ..!!
और.. बढ़ जाती हैं
आँखों की चमक
जब मेरे नाम को
उकेर लेती हो तुम
अक्षरों के धागों में
या धागों के अक्षर से
कविता या
स्वेटर के   पृष्ठ  पर

सोचता हूँ...
और हैरान भी
की तुम ...,,
स्वेटर ज्यादा अच्छा बुनती हो...
या कविता ..?!?!

हरीश भट्ट