Tuesday, October 8, 2019

कैसे बुन लेती हो !! कविता भी,,और स्वेटर भी

तुम,,
कैसे बुन लेती हो !!
कविता भी,,
स्वेटर कि तरह !!!
एकसार, त्रुटिहीन..
लयबद्ध
अलंकारमय
गुनगुना सा...!!

शब्द ,,
एक दूसरे में
गुथे हुए,,,
प्रीत के फंदों में
सिमटे ,,,
अनगिनित रंगों ...
असीमित विस्तार ,,
में सजे हुए ..!!
ऊन का सा
मखमली एहसास..
कविता में भी ..!!??
कैसे पिरो लेती हो
तुम..!!""

सृजन की यह
आत्मीयता
स्संस्कार ही होगी तुममे
या प्रसव की वेदना सी
उत्सृजित होती हैं
यदा कदा ..!!
अपरिपक्व शब्दों से
मंथरित गूढ़
वाक्यांशों तक
यूंही तो गढ़ती हो तुम
ऊन के लच्छों को
व्यवस्थित गोलाइयों में
बुनावट का ये क्रम
कैसी तल्लीनता का
द्योतक हैं..!
सुध बुध विहीन हो जैसे..!!
कैसे पिरो लेती हो ..??
सुख -दुःख को
शब्दों की सिलाइयों में

सभी रंग तो हैं यहाँ
देखो तो ..
कभी मात्राओं  की तरह
फंदों का घट बढ़ जाना
कभी वैचारिक तारतम्य का
धागों की तरह टूट जाना
कभी किसी कोने में
अधबुना सा
अधलिखा सा
छूट  जाना
कभी मनभावन हो तो
पायल सी रुनझुन
और  कभी
मनमाफिक न हो
तो बस
उधेड़ बुन

कभी अखबार
या चाय की चुस्कियों के साथ
जब तुम पूछ लेती हो
शोख रंगों
या पैटर्न के बारे में
विन्यांश या
साइज के बारे में
में उलझ सा जाता हूँ ..!!??
तुम नए स्वेटर की
बात कर रही हो
या नई कविता की ??

लो..!!!!
कब पूरा कर लिया
तुमने इसे..,,!!
गर्वित सी उश्मिता लिए
ओढ़ लेता हूँ में
स्वेटर हो या
तुम्हारी पंक्तियाँ
ह्रदय से लगी हुई ..!!
और.. बढ़ जाती हैं
आँखों की चमक
जब मेरे नाम को
उकेर लेती हो तुम
अक्षरों के धागों में
या धागों के अक्षर से
कविता या
स्वेटर के   पृष्ठ  पर

सोचता हूँ...
और हैरान भी
की तुम ...,,
स्वेटर ज्यादा अच्छा बुनती हो...
या कविता ..?!?!

हरीश भट्ट

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