Tuesday, October 8, 2019

"उम्र की दहलीज के पार..." कविता

शुभ संध्या दोस्तों
"उम्र की दहलीज के पार..."

सुनो
कितने दिन बाद
दिखी हो 
चलन तो रक्खो
मिलने न सही
दिखने का ही सही
आदते बदल गई हैं न
याददाश्त भी

याद हैं
नुक्कड़  का वो
काफी हाउस
बड़ा सा ताला
मुह चिढ़ाता हैं अब तो
पार्क की वो आंखरी बेंच
अकेले
कब तक बैठेगा कोई,

और हाँ...
पहाड़ी का वो देवदार भी
पिछली बरसात में
गिर  चुका हैं
जिसपे उकेरा था
तुम्हारा नाम
तुम्हारे ही हेयर पिन से।

इस अंतराल में
तुम बदल रही हो
या ये मौसम
समझ नहीं पाया मैं
तुम्हारे
बालों पर  मेहँदी का रंग
गहराने लगा हैं अब 
कानों के ऊपर
झांकने लगी हैं
उम्र की
पक चुकी बालियाँ
चश्मा ...?
चश्मा लगाने लगी हो
तुम न
ये ..ओवल शेप
बदल लो.. फबता नहीं हैं
तुम्हारी
सुतवा नाक पर
याद हैं
मक्खी भी
बैठने नहीं देती थी तुम
और आज
आज ये चश्मा
अच्छा हैं लेकिन...
देखो
में भी लगाता हूँ
कुछ तो  हैं कॉमन
हमारे दरमियाँ
आज भी !!!

अपनी साड़ी के पल्लू को
भींच के रखने लगी हो तुम 
छोड़ो ..
गिरा के रक्खा करो
लहराने दो
हवाओं के रुख पर
कभी
तुम्हारी बासंती चूनर का
यही लहराव
हवाओं का रुख
तय करता था
और ये आँखों के
जर्द घेरे
कब से पाल लिए तुमने
कहाँ गया वो
सागर सी आँखों का
ज्वार भाटा
और वो
वो महकता पर्फियूम
और फिरोजी स्कार्फ
रुखसत  हो गया क्या ?
तुम्हारे गले से

पूरे बाजू का ब्लाउज
और ग्रे शेड्स
बढ़ते जा रहे हैं
तुम्हारे वार्डरोब में
हाई हील्स
फ्लैट होती जा रही हैं
और चेहरे की
मुस्कराहट भी,
रातें अब
कजरारी नहीं रही
ग़ज़ाल सी आँखों में
काजल लगाना
छोड़ जो दिया​  हैं तुमने
गज़लें आज भी
जिन्दा हैं मगर
तुम्हारे मोबाइल में

तुम्हारी आवाज की खनक 
अभी भी
वैसी ही हैं न
मंदिर के मंजीरों सी
छनकती थी
घुप्प खामोशियों में भी ​
या की
माहौल  का भारीपन
उतर आया हैं उसमें भी
बैचेनियों की उकताहट
क्या होती हैं
भूली तो नहीं न
छत के गमलों को पानी
देती तो होगी
आज भी
तकती भी होगी
अधजले चांद को
छत पे आने को
बहाने बनाना
कोई तुम से सीखे

सुनो..
उम्र की दहलीज के पार
तुम अकेले नही गई
मैं भी वही खड़ा हूँ
कभी मिल लिया करो
अचानक सी
बारिश की तरह
या किसी
टूटते तारे की तरह
गुजर जाया करो
ऐसे ही खामोश
कभी बाजू से
तुम्हें भी पता रहे
की तुम बिन
कोई ऐसे भी
जी रहा होगा ।।

हरीश भट्ट

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