Tuesday, October 8, 2019

एक प्रतिक्रिया आपकी रचनाओं पर

शुभ संध्या दोस्तों ..
एक प्रतिक्रिया आपकी रचनाओं पर

सुनो
रोज ही गुज़रता हूँ
तुम्हारी ग़ज़लों से
तुम्हारी नज़्मों
तुम्हारी कविताओं से
कितनी शिद्दत से
हर्फ़ दर हर्फ़
उकेर लेते हो तुम
उमस भरे दिन हों
या सीली सीली सी रातें
अतृप्त सा आक्रोश
या सुरमई सी बातें
एक शब्द या एक पंक्ति
बस
अपूर्णता में भी
संपूर्णता का हासिल

और उस कहन से
गुज़रते हुए
सोचता हूँ
की बाकमाल
कैसे लिख लेते हो तुम
कोई प्रतिक्रिया
सूझती ही नही पढ़ कर !
सोचता हूँ
कैसे महसूसते हो
अंतस का सूनापन
खारे पानी की लकीर
नब्ज़ नब्ज
धधकती पीर

मौन में छुपा क्रंदन
सहमे से जज्बात
रेंगती हुई सी रात
दूर तक पसरा
भुतहा आकाश
गुलमोहर की कसक
अनमना सा पलाश
पलकों का उनींदापन
नयनों की आद्रता
जब्त-धड़कन धड़कन
इकलौता इकतरफा प्यार
एक पल की आज़माइश
बरसों का इंतज़ार

अच्छा
ये तो बताओ
ये महसूसने का हुनर
सीखा कहाँ से तुमने
हद हैं
कितने बेहद हो तुम !

हैरां हूँ कि
कैसे उद्धृत कर लेते हो तुम न
असह्य होती
पर्वत सी पीर
लरजा हुआ आँचल
उड़ता वासंती चीर
झील सी शीतलता
सूरज का तेग
बारिश की छींटाकशी
पहाड़ी नदी का उद्वेग
भावों का आलंबन
कभी नर्म कभी सख्त
अबाबील का एकाकीपन
चनार का सूना दरख़्त

रोज़ ही देखता हूँ
खुलते  हुए
ग़ज़लों के खुले छज्जे
पंक्ति दर पंक्ति
नज़्म दर नज़्म हिज्जे
मखमली से लहज़े
सलीके से बुना रदीफ़
काफिये- उलझे उलझे
और उन सब में उलझा
नुक्ते सा
ठहरा ठिठका हुआ मैं
हर विसर्ग हर विभक्ति पर
हर उपमा हर उक्ति पर
अर्धविराम से पूर्णविराम तक
आते आते
तुम मुझमें
आकार लेने लगते हो
ये जुड़ाव
संयोग मात्र तो न होगा न !

और ये भी की
सभी रस भाव तो हैं तुममें
रति सी शृंगारिकता
शोक की करुणा भी
क्रोध की रौद्रता
उत्साहित वीरांगना सी
और आश्चर्य अद्भुत भी
जल के समान शांत निर्वेद भी
भय सी भयानक,
और घृणा सी विभत्स भी
और इन सब के मध्य
हास्य का तत्व भी
तभी तो
पंक्ति पंक्ति
पढ़ता हूँ बार बार
छू लेने को तुम्हें
हर भाव में !

हतप्रभ हूँ
तुम्हारी रचनाएं हैं
की तिलिस्मी अय्यारियाँ
झरने सी निष्कलंक
चंचलता
कब दरियाह की
गंभीरता ओढ़ लेती हैं
पता ही नही चलता
भावों का उद्वेग
सीधा विवेक की
चट्टान से टकरा कर
मन मष्तिष्क पर
छितरा जाता हैं
अपने सम्पूर्ण
व्यक्तित्व के साथ
तिरोहित होते हो तुम
तब मेरी वैचारिकता पर
ऐसा लगता हैं
कविता नही कोई वशीकरण हैं
मंत्र बद्ध
जो रचा हैं तुमने !

आश्चर्य
तुम जब भी
उठाते हो कलम
छन्द छन्द
नाच उठते हैं
पहन पदबंधों के घुंघरू
लयात्मक हो उठती हैं
साँवरी बयार भी
शब्द शब्द मुखरित हो
चित्र चित्र गढ़ने लगता हैं
परावर्तित होते हो जब
मन वचन प्राण से
अपनी ही कविताओं में 
तब तुम
त्वमेव नही रहते
कवितामय हो जाते हो !

जितना तुम्हें पढ़ता हूँ
उतना ही
तुम में उतर जाता हूँ
एकाकार होने लगता हूँ
तुमसे और तुम्हारी कविता से
तब कुछ और
पढ़ने सुनने का
मन नही होता
सोचता हूँ
की तुम मेरे हृदय के
मटमैले पृष्ठ पर लिखी
वो अंतहीन कविता हो
जिसे
गुनगुना सकता हूँ में
ताउम्र ताज़िन्दगी !

सुनो तो
तुमने ही लिखा हैं न
ये गीत
गुनगुना रहा हूँ
जिसे में
अभी अभी
धड़कनों के साज़ पर !
सुना !!??

हरीश भट्ट

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