Tuesday, October 8, 2019

समर्पण - एक लघु कथा

देहरादून के गढ़वाल विकास निगम का वह कांफ्रेंस हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था मंच पर राज्य के सांस्कृतिक विकास मंत्री श्री परमार जी ने अपना उद्बोधन देना शुरू किया ...."मुझे ख़ुशी हैं और गर्व भी,.. इस साल का संस्कृति रत्न पुरुस्कार श्री अनिरुद्ध डबराल जी को देते हुए ...आज  इनके काव्य संग्रह "अंतस " का विमोचन करते हुए मुझे अत्यंत हर्ष हो रहा हैं...इतनी कम उम्र में ऐसा प्रखर सृजन......... ""
....और हाल एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से भर गया....
अनिरुद्ध की आंखे स्टेज पर खड़े खड़े डबडबा आई थी ....आज उसका सपना जो साकार हो रहा था ...चिर प्रतीक्षित सपना ...उसकी पिता जी कि आँखों में चमक बड़ गई थी... बढ़ा आयोजन था...सब दोस्तों कि नजरें  आज अनिरुद्ध पर ही थी ...और जब अनिरुद्ध ने अपनी पुस्तक से कविता के  कुछ अंश पढने शुरू किये...
अंतस तक प्यासी हैं धरती
आओ अम्बर को बतलाये ....
तब..तब वहीँ तो थी कादम्बिनी  हॉल के दूसरे दरवाजे कि ओट  में ....हजारों बार सुनी थी उसने यह कविता अनु के मुह से ...तब उसे लगता था जैसे धरती कि नहीं यह उसकी स्वयं कि बात हो...."अंतस तक प्यासी हैं धरती.....(हाँ वह प्यार से अनिरुद्ध को अनु ही कहती थी)
कुछ दिन पहले  कि ही तो बात हैं .....
""अनिरुद्ध ""....बहुत दिन से तुमने कुछ नया नहीं लिखा...... पूछा था कादम्बनी ने...एक सकून भरी मुस्कराहट के साथ कहा था अनिरुद्ध ने...नहीं कादम्बनी कुछ नया लिखने का मन नहीं ...मेरे अन्दर से तब कुछ उत्सर्जित होता   हैं  ..जब में अकेला  होता हूँ ...दर्द और बेचैनी निकल ही आती हैं वर्कों पर ...लेकिन ...तुमसे मिलने के बाद सब कुछ पा लिया लगता हैं मेरी तलाश ख़त्म हुई...
"लेकिन अनिरुद्ध तुम्हारे सपने...तुम चाहते थे न कि तुम्हारा काव्यसंग्रह....."" ...
"ओहो....कादम्बिनी ...तुम हो ना मेरा काव्य संग्रह...आओ कहीं काफी पीते हैं"
"पर अनिरुद्ध तुम्हारा सपना मेरा भी तो हैं ..में तुम्हे आगे बढ़ते देखना चाहती हूँ जरूरी तो नहीं केवल मिलन और विछोह के ही गीत लिखे जाये...खुशियों के पल भी तो हैं सामाजिकता ..संस्कृति..."
"प्लीज़ कादम्बनी ...सुबह सुबह ..क्यों मूड ख़राब कर रही हो ..तुम्हारी दोस्ती मुझसे हैं या मेरी रचनाओं से.".कसक कर कहा अनिरुद्ध ने
"" नहीं अनु ..तुमसे तो हैं पर ..तुम्हारी रचनाओं  में  मेरा जीवन बसता  हैं....  तुम्हारी रचनाओं कि नायिकाओं में मैं खुद को तलाशती हूँ ...रख के देखती हूँ खुद को ...""
""हहहहहः ....क्या कादम्बनी ...तुम भी न...अरे कल्पनाओं कि नायिका और तुममे बहुत फर्क हैं " ... हँसते हुए कहा था अनिरुद्ध ने
"वो तो अतीत हो जाती हैं ...पल में ओझल ..पर..पर तुम तो मेरा वर्तमान हो...तुम से तो मैंने जीना सीखा हैं ....अच्छा  ..सुनो...प्लाजा में नई फिल्म लगी हैं ... शाम को चलते हैं ...वहीँ रेस्तरां  में कुछ खा लेंगे.." और हाँ तुमने वादा किया हैं कि कल तुम अपने घरवालों से बात भी करोगी "
"नहीं अनु...आज मुझे कुछ काम हैं में चलती हूँ . बाय " अनमने ही उठ खड़ी हुई थी कादम्बिनी
घर लौटते हुए कादम्बिनी  के चेहरे पे उदासी थी ...वह सोच रही थी ...कि कैसे अनिरुद्ध को बताये कि उसकी बातों में उसकी रचनाओं में एक अलग बात हैं ...वह अच्छा लिख सकता हैं ...इतना कि दुनिया उसे पढ़े ... और उसे सर आँखों पे बिठाये
कादम्बिनी अनिरुद्ध को बचपन से जानती थी दोनों  एक दूसरे कि चाहत थे पर कादम्बनी कि नज़रों में प्यार के मायने अलग थे वो जब अनिरुद्ध कि आँखों में आगे बढ़ने का सपना देखती थी..जब उसके चेहरे पर भविष्य कि ख़ुशी कि झलक महसूस करती थी तो उसे लगता था कि शायद यही चाहत हैं उस खुशी उस सपने को पूरा करने में ही उसके प्यार का हक अदा हो जाये शायद
शाम गहरा गई थी आसपास भी और मन के अन्दर भी ...सोचते  सोचते ...घर भी नजदीक ही था...कुछ तो निश्चय कर ही लिया था उसने ..आखिर क्या ?
अल सुबह ही अनिरुद्ध का फोन आ गया ....
"हाय कादम्बिनी कैसी हो" ....."ठीक हूँ कहो कैसे फोन किया"
"कादम्बिनी याद हैं ना तुम्हे आज तुम आपने घरवालों से मेरे बारे में बात करोगी " आवाज में चमक थी अनुरुद्ध की
"..क्या मतलब ..कैसी बात .." कादम्बिनी सपाट थी
"अरे ...हमारे रिश्ते की बात  ...." चहका था अनिरुद्ध
""क्या बकवास कर रहे हो अनिरुद्ध ..एक दो बार तुम्हारे साथ घूम क्या लीया  तुमने मुझसे रिश्ता जोड़ लिया ...तुमने सोच भी कैसे लिया कि में तुमसे शादी करूंगी ....तुम सिर्फ दोस्त हो मेरे पर शादी ...में तुमसे शादी कभी नही करना चाहती थी "
मजाक कर रही हो ... अनिरुद्ध अभी भी बेअसर था किसी भी अनहोनी से
"तुम्हें मेरी बातें हमेशा मजाक ही लगती हैं न अनु कभी तुमने अपने आगे कुछ समझ भी हैं मुझे ....बस अपनी कविताओं की कपोल कल्पना हूँ न में तो आगे से कभी मुझे फ़ोन मत करना""
और...फोन काट दिया कादम्बनी ने ....उसकी आँखों में खारापन बड़ गया था और सीने में भारीपन भी ....
हाँ यही तो सोचा था उसने कल शाम घर वापस आते हुए गहराते अंधियारे में.. और कोई रास्ता नही था .......
और अनिरुद्ध जड़ होगया था ..सुन कर...उसने कादम्बिनी को मिलने की बहुत कोशिश की तो पता चला वह आपने मामा के यहाँ चली गई हैं ..हल्द्वानी ..किसी कोर्स के लिए...
छः माह बीत गए शायद....
कांफ्रेंस हाल से निकलते हुए बुक स्टाल से कादम्बिनी ने  अनिरुद्ध की कविताओं का संकलन खरीदा ..प्रथम पेज पर ही "दो शब्द .."पढ़ कर उसकी आंखे फिर से नम हो गई वह दौड़ रही थी पूरे वेग से घर की ओर...लिखा था ..
""एक स्नेहिल मित्र के अंतस को समर्पित.... ""
कौन जान सकेगा की ..क्यों उमड़ घुमड़ कर आये मेघ कभी कभी धरती को प्यासा छोड़ कर रुख बदल लेते हैं जबकि उनकी तृप्ति भी धरती को अंतस  तक भिगोने की ही हैं ...
कौन जान सकेगा...??
--
हरीश भट्ट

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