Tuesday, October 8, 2019

नजरिया -

नमस्कार दोस्तों ...शुभरात्रि
सोचता हूँ
कुछ नजरिये
तह कर के रख दूं
अंदर वाले
संदूक में
चलन से
बाहर हो चुके
कपड़ों के साथ
दृष्टिकोण के कोंण
मिटा कर
पाट दूं
सार्वजनिक
स्वीकार्यताओं से
वैचारिकता को
थोप लूँ
खुद पर
तुम्हारे स्वयं के
आंकलित
पूर्वाभासों को
और कुछ आग्रहों  को
जिन्हें तुम
पूर्वाग्रह कहते हो
मुझे आंकलित करते हुए
तिलांजलि दे दूं
छोड़ दूं
खुद को
किस्मत के हवाले
रफ्ता रफ्ता
आदत पड़ जाने तक
भीड़ का चेहरा होना ही
भीड़ का हिस्सा होना हैं
मान कर
सोचता हूँ संकल्प ले
तर्पण कर दूं
आज ही
तथाकथित
अपने प्रति
तुम्हारे दुराग्रहों का
तिलांजलि दे दूं
हृदयगत संबंधों को
सीख लूं चलन
समायोजनाओं में
जीने का
तलाश लूं
बीच के रास्ते
कुछ पगडंडियां
कुछ रिश्ते
कुछ वास्ते
तुम कहो तो
संवेदनाएं टांक दूं
व्यस्तताओं की खूंटी पर
वेदनाएं ओढ़ लूं
मेटीरियलिस्टिक सी
प्रेक्टिकल अप्प्रोच
मुखोटों की तरह
सहज न हो भले
तो क्या
आकर्षण तो होगा न
विकर्षण भी
क्यों न
ढूंढ लू
तुम्हारे वाला शब्दकोश
जिसमें
भाव-समभाव
वेदना-संवेदना
आवेश-भावावेश
प्रेम-स्नेह और विवेक
जैसे शब्द न हो
और जो हों
उनके कई कई
अर्थ निकल जाते हों
सहूलियत के हिसाब से
पारिस्थितिक और
मान्यता के हिजाब में
सोचता हूँ
अपेक्षाएं जमा कर दूं
पीछे के स्टोररूम में
उपेक्षाओं की
और कांटेदार
जिल्त चड़ा लूं
चेहरे पर
भरपूर
नाटकीयता के लिए
चेहरे पे चेहरों का होना
शायद
जरूरत बन गई हैं
एकमात्र शक्लें
संदेहग्रस्त हो जाती हैं
अमान्य भी
मित्र जब तुम
ऐसा सोचते हो
तो अगर मैं भी
तत्सम ही
सोचता हूँ
तो
कहो जरा
क्या गलत सोचता हूँ ??
हरीश भट्ट

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