Tuesday, October 8, 2019

वट सावित्री के पर्व पर कुछ पंक्तियाँ "जीवनसंगिनी" को समर्पित

आज वट सावित्री के पर्व पर
कुछ पंक्तियाँ "जीवनसंगिनी" को समर्पित 

सुनो
ये जो तुम मंदिर में
तिलक करते हुए
रोली चंदन लगाते हुए
पुष्प अर्पित करते हुए
परिक्रमा करते हुए
मन ही मन
मांग लेती हो न
उससे, उस परमपिता से
बालसुलभ ही
स्नेह, प्रेम
और सामर्थ्य का आशीष
सच कहूँ
तुम तब 
स्वयं इक देवांगना सी
लगती हो

अपनी सम्पूर्ण
तन्मयता के साथ
सम्पूर्ण
आसक्ति के साथ
की जैसे रोक ही लोगी
विघ्नताओं को
छूने न दोगी
आशंकाओं को
आने न दोगी मुझ तक
और मेरे स्वजनों तक
विपन्नताओं को, वर्जनाओं को
आश्चर्य
अभेद्य दीवार की तरह
कैसे रोक लेती हो तुम

तुम्हारे ललाट पे
सामर्थ्य के
पसीने में घुला सिंदूर
और तुम्हारी आंखों में
आशाओं के दीप
लहलहा उठते हैं
होंठों पर आरती के स्वर
थिरकने लगते हैं
हतप्रभ हो
देखता ही तो रह जाता हूँ तुम्हें

एक एक दिये के
रोशन होने तक
लोबान और धूप के
सुलगने तक
जल के प्रवाहित होने तक
कलेवे के चढ़ाए जाने तक
पुष्पार्पण होते होते
दिव्य रूप
ले ही तो लेती हो तुम

तुम्हारे हाथों की
चूड़ियों की खनक
माथे की
बिंदिया की चमक
झुमके की धमक
बिछुओं की ललक
मंगलसूत्र की गमक
हाथों की मेहँदी की धनक
कजरे की कनक
और शर्मीली नथ की कसक
सब तो सजदे में हैं
करबद्ध, कृतार्थ हो जैसे
तुम्हारे स्त्री होने पर

तब, ठीक तभी
लगता हैं कि
तुम्हीं तो हो वो वचन
आजन्म मेरी रक्षा का
सुरक्षा का
उस ईश्वर से
मेरे घर, मेरे परिवार
की अभिरक्षा का
वचन और सामर्थ्य
ऐसे ही तो
मांग लेती हो तुम
सस्नेह ही
हठ करके भी
उस परमपिता से

और क्यों न हो
मां जो हो  तुम
वात्सल्य
तुम्हारे आचर में जो पसरा हैं
जगतजननी की तरह
जब बाहें पसार लेती हो
अपने सम्पूर्ण ममत्व के साथ
माँ बरबस ही
याद आ जाती है
पत्नी होना
माँ होने से
कहीं कम होता हैं भला ??!

सुनो
स्त्री होना
जितना सुखद हैं
जितना सहज तुम्हारे लिए 
उतना ही
पूजनीय भी मेरे लिए
प्रणाम करने को
मन होता हैं
जब तुम्हें देखता हूँ
सर पे आस्था और
सजगता का पल्लू रक्खे
अपलक ही
पूरी श्रद्धेयता के साथ
सब की कुशलक्षेम
मांगते हुए
कभी
अपने लिए भी
मांग के देख होता
वैसे
आज क्या मांगा तुमने
बताओ न
पर जानता हूँ
शायद हमेशा से ही
वही जो सदा मांगा हैं
मैने तुम्हारे लिए

एक बात कहूँ
तुम आज
उस वट वृक्ष के नीचे
अपने सम्पूर्ण
स्त्रीत्व के साथ
साक्षात
सावित्री सी लगी मुझे
साक्षात सावित्री सी
हां सावित्री होने का सत्व
तो आज भी हैं तुममे
तुम रख पाई हो
सगर्व ही ससंस्कार ही
सत्यवान मुझे भी
और क्यों न हो
अर्धांग जो हो तुम !!

सुनो तो
प्रणाम
मुझे कर लेने दो आज !!

हरीश भट्ट

No comments:

Post a Comment