Tuesday, October 8, 2019

यूं तो कहने को ये एक कहानी ठहरी....

यूं तो कहने को ये एक कहानी ठहरी....
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और एक दिन वो चली ही गयी...
उस जहाँ में जहां से लोग कहते हैं की, शरीर बदल कर ही कोई लौट पाता हैं
२५ कि उम्र.. भरा पूरा परिवार, पति सेक्ट्रेट में  ऊँचे पद पर, दो बच्चे, तीन कमरे का छोटा सा फ़्लैट, घर गृहस्थी कि भागमभाग। कुछ पुराने रिश्ते नाते, करीबी तो बस एक आध ही, दरमियाना कद चेहरे पर हमेशा से चिपकी ..लम्म्मबी सी मुस्कान कान के कोने तक जाती हुई। ताम्बई होता रंग.. यही था परिचय वैसे तो उसका ..बताने  को.. न बताने को ओर भी बहुत था वैसे 
"कुंतल" … यही नाम तो था उसका.. आप कहेंगे नाम में क्या रक्खा हैं आखिर,
पर नाम में ही शायद सब कुछ रक्खा था उसके लिए,, घनघोर श्याम वर्ण कुंतल उसके चेहरे पर उदासी की गहराहट को और बढ़ा दिया करते थे.. चेहरे का पीलापन सांझ तक आते आते और पनियाला हो जाता था। बच्चे समझ नहीं पाते थे कि माँ से कैसे बात करें जिद करना तो दूर कि बात थी।
घंटों शून्य मैं तकते हुए बिता देना शग़ल हो गया था उसके लिए, बीती बातों को क्या जरा भी याद करना मुश्किल तो नहीं ही होता होगा न..
बीती बातें ……मुझे भी तो धुंधली सी ही याद हैं अब …
हमारी बस्ती मैं मिडल स्कूल हुआ करता था तब …तब से जानता हूँ उसे, मेरे ही साथ तो पढ़ती थी.…।
छल्लेदार कमीज और सितारों वाली चूनर पक्की सहेली थी उसकी, फिरोजी रंग पसंद था उसे, गले में काले धागे के साथ राम जी का लॉकेट भी..कोर तक गहरा काजल उसकी आँखों को और बड़ा कर देता था.. बचपन अधूरा हो तो बचपना जाता नहीं…बड़े होने तक भी
कुछ भी बेपरवाह कह देना आदत थी उसकी, चुप रहना तो दूर कि बात थी शायद बेसाख्ता बेझिझक चाहे सुनने वाला कुछ और मतलब निकल ले..
माथे पर बालों के लहरावदार गुच्छे गाहे बगाहे आ ही धमकते थे और सारा दिन उन्हें बरबस ही सहेजने में निकल जाता होगा उसका ऐसा मुझे लगता था
हमउम्र मंडली साथ ही रहती थी उसके चाहे नुक्कड़ वाली दुकान से संतरे वाली गोली लेना हो या पास कि अमराई से खट्टी मिठ्ठी अम्बियाँ चुरानी हों
दिन भर धमाचौकड़ी मजाल हैं जो किसी को हाथ भी रखने दे तुनक कर करारा जवाब वो भी हाथ के हाथ ...किसकी बिसात जो छुपन छुपाई में कोई उसे ढूंढ ले
ये सब ओरों से सुना था मैंने, .. मैंने तो जब भी देखा सकुचाई लजाई सी ही मिली मुंह मैं जबान न हो जैसे, लोगो कि सुनता था तो लगता था कि... मेरे ही साथ ऐसा नाटक क्यों, फिर लगता था यही स्थाई हैं बाक़ी तो केवल आवरण मात्र
मैंने कहा न बचपना नहीं जाता भले ही बचपन कोसो दूर निकल गया हो
फिर बात कुछ बदली बदली सी भी हुई सतरा-अठरा सालों कि तब बातों के मायने बदलने लगे होते हैं ...होठों कि मुस्कान कान के सिरे तक ललायमान कर देती हो तो अर्थ के अनर्थ होने में देर नहीं हो पाती … यौवन कि दस्तक सुनाई नहीं देती महसूस कि जाती हैं साथ साथ होने में ही नहीं अकेले भी !
नया सूट पहनने पर "कैसी लग रही हूँ " पूछना बनता ही था उसका
स्कूल मैं भी अपना टिफिन मुझसे शेयर किये बिना खाना हजम नहीं होता था उसका, मेरी कविताओं की एक डायरी मेरे पास थी और एक उसके पास जो उसने मुझसे सुन के पता नहीं कब लिखी...लड़ाई ओरों से होगी मुह मुझसे फुला लेना आदत थी उसकी आखिर मनुहार को कोई तो होना चाहिए न...
कभी मुझे लगता था कि उसके इस व्यवहार का मैं आदि नहीं हो पा रहा हूँ.. और खुद को संयत रखने कि कवायद में,, उसे उलझा देता था मैं..
"कुंतल चलो कहीं बैठ कर एक कप कॉफ़ी पीते हैं" एक नहीं कई बार कहा था मैंने
पर संकोच था या उसे काफी का स्वाद पसंद नहीं था कभी न जान पाया मैं
पर याद नहीं करना चाहता अब मैं,, याद करने को जी भी नहीं करता.. क्यों कर करू शिराओं मैं रक्त तीव्र होने लगता हैं ...परिकल्पनाएं साकार रूप में होने पर भी अनदेखा सा रहा मैं जैसे ..हाँ जिद ही नहीं की कभी शायद....काश के की होती..
निरपेक्ष भाव का सुख और तटस्थ रहने का आलोक कचोटता हैं अब मुझे !
फिर भी क्या रिश्ता था उसका मेरे साथ न उसने कभी जानने कि कोशिश कि न मैंने कभी कुरेदने कि
पर था तब भी जब बांकी संगी साथी कहीं छूटने लगे थे, सतरंगी सपनो कि दुनिया होती होगी पर हमें कभी नहीं पता हो पाया या ..शायद मैं अकेला ही अनभिज्ञ था !
ऐसा भी न था कि मुझे दीन दुनिया कि खबर न हो या कि उसे ही जब्त कि आदत रही हो …एक दफा का तो कुछ कुछ याद भी हैं मुझे धुंधला सा..... कुछ कहने कि कोशिश कि थी उसने कभी … शायद ज्योत्स्ना कि शादी वाले दिन जब ज्योत्स्ना ने भर्राते हुए कहा था
""कुंतल मेरा तो जो होना था हुआ अब तुम्हारी बारी हैं मन कि मन में मत रखना"
मेरे सामने ही कि तो बात हैं मुझे बड़ी बड़ी मृग के छौने सी आँखों से उनिग्ध हो देखा था उसने, जैसे ज्योत्स्ना ने नहीं,, कुंतल ने पूछा हो मुझसे और मैं उससे कह बैठा कि ""मैंने क्या किया हैं मुझे क्यों आँखे दिखा रही हो"" हालाँकि तब भी जबकि मुझे पता था कि ज्योत्स्ना किसी और ही साहिल कि किश्ती पर सवार थी पर कभी कह नहीं पायी..
आज ये सब याद करते हुए सवालों कि गुत्थी सुलझा नहीं पा रहा हूँ मैं
विवश कभी नहीं रहा था मैं.…फिर क्या था वो.… क्या कोई पूर्वाग्रह
पर अब तो उत्तर देने वाला भी कोई नहीं और न उत्तर सुनने को ही कोई बचा हैं
कितनी खुश थी अपनी शादी वाले दिन कुंतल... मुझे तो ऐसा ही लगा था (?) पूछा था उसने बारात आने से कुछ क्षण पहले ""नाराज हो""
""नहीं तुम्हे ऐसा क्यों लगा"" यही कह पाया था मैं केवल
""फिर तुमने मुझे बधाई क्यों नहीं दी कल से कुछ न बात कि न सामने ही आये तुम"" ""अब क्या कुछ कहोगे नहीं मुझसे"" "सिंदूर की डब्बी मंगवाई थी तुमसे लाये नही न क्या इतना भी हक़ नही दोगे अब"
स्थिर रह गया था तब भी मैं ...उसकी आँखे वही मृग के छौने जैसी फ़ैल कर और बड़ी लग रही थी तब,, शहनाई और बैंड कि आवाज कहीं लुप्त सी हो गई हो जैसे नेपथ्य मैं ...बांकी के सवाल उसकी पलकों कि कोर पर ही तैर गए जब मैंने कहा कि.......... ""तुम तो ख़ुश हो न"'
कई बार लगा,, बल्कि बार बार ...कि कैसा बचकाना सवाल था
फिर कभी जिंदगी में किसी और से ऐसा सवाल शायद ही पूछा हो मैंने
फिर सोचा उसकी विदाई पर बांकी दोस्तों की आँखे भी तो नम थी ही...कितनी बचकानी सी समझ थी न... या दिल को बहला लिया था बस...
अब ये तो मुझे याद नहीं कि अपनी शादी पर मैंने उसे नहीं बुलाया था या वो खुद ही नहीं आई थी...
हालाँकि उसके बाद भी कितनी ही बार उससे मुलाकात हुई फोन पर, बाजार में
पर एक लक्ष्मण रेखा सी खिंच गई लगता था ..हाँ वह एक सवाल हमेशा मौजूद रहा .. हमेशा... जवाब न मैंने कभी ढूँढा,, न उसने कभी जाहिर होने दिया
अभी कुछ दिन पहले ही तो मिली थी डॉ गम्भीर के क्लिनिक में
""क्या हुआ"" पूछने पर बताया उसने कि "कुछ नहीं बस तबियत ख़राब हैं बुखार हैं"
""सुनो तुम हमेशा कहते थे न चलो आज कही बैठ कर एक कप काफ़ी पीते हैं""
न जाने क्या सोच के कहा था उसने ..
मैं जड़वत उसके पीछे कॉफी शॉप तक चलता चला गया .. मैंने सिर्फ कॉफ़ी पी....सिर्फ काफ़ी.. पर उसने .. उसने न जाने क्या क्या !!
यही पहला और आखरी कॉफ़ी का प्याला था उसके साथ, अपने बच्चो अपने पति के साथ कितनी खुश हैं वो,, जाने क्यों जता रही थी वो उस दिन ...
पर दिल मैं एक हौल सा उठ रहा था तो लौटते हुए मैं डा. गम्भीर से मिला था केंसर स्पेसिअलिस्ट हैं वो उन्होंने ही बताया …लास्ट स्टेज हैं...और मुझे.. आज ..अब पता चला !!...वो भी "कैंसर"
और दो माह बाद ही वो चली गई ..उस जहाँ में.. लौट कर आता नहीं जहाँ से कोई
तब से कुछ साल कुछ महीने कुछ दिन और कुछ घंटे बीत चुके हैं
कॉफ़ी पीना.. मैंने हमेशा के लिए छोड़ दिया था तबसे.....
.....हरीश .....

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