Wednesday, December 31, 2014

नव वर्ष !! क्यों कहूँ तुम्हे अभिनन्दन हो ??


जब तिमिर द्वार पर पसरा हो  और व्योम घना घन गर्जन हो
जब मानवता का ह्रास प्रबलऔर भूख प्यास का क्रंदन हो
जब चहूँ ओर चीत्कार मचे,,  और मानवता अकुलाती हो
जब पाप हो पोषित घर घर में,,  पृथ्वी की फटती छाती हो
तब कौन तुम्हे आह्वाहन दे ,,, तुम मोह पाश का बंधन हो
नव वर्ष !! तुम्हारे आने पर  क्यों कहूँ तुम्हे अभिनन्दन हो ??

जब विद्या के उस आलय में  सौ सौ  बच्चो की चिता जली
जब क्षत विक्षत हो  ललनाएँ ,, अपने ही  हाथों  गई छली
क्यों उठी नहीं ये सुन कर भी,,  चीत्कार तुम्हारे होठों पर
क्यों कान तुम्हारे बंद हुए थे,,  उन आतंकी विस्फोटों पर
कब बचा सके तुम लाज कहो  हाँ सभ्य नहीं तुम दुर्जन हो
नव वर्ष !! तुम्हारे आने पर  क्यों कहूँ तुम्हे अभिनन्दन हो ??

गत वर्ष भी तो तुम आये थे,,  शोभित नूतन सी आस  लिए
नवकोंपल और नवजीवन का  स्वप्नीला सा, विश्वास लिए
तब भी तो तुम्हारे स्वागत में,,  हमने सुध - बुध बिसराई थी
नव तिलक किया था माथे पर  कोमल कलियाँ बिखराई थी
पर मिटा सके कब  माथे से,, तुम  रक्तजनित उस चन्दन को
नव वर्ष !!  तुम्हारे आने पर  क्यों कहूँ तुम्हे अभिनन्दन हो ??

अब तो मित्र  उत्सुक्त नहीं, आल्हादित हूँ तुम्हारे आने पर
अब कोई प्रतिकार ही हैं ,,ना  प्रतिरोध तुम्हारे  जाने पर
जाने हो  कैसा स्वर्णिम युग,, जिसका संकल्प दिया तुमने
में भुजा पसारे याचक  था,, पर निष्ठुर,,  अल्प दिया तुमने
क्यों कहो की फिर सत्कार करूँ  क्यों ये तुम्हारा वंदन हो

नव वर्ष !!  तुम्हारे आने पर  क्यों कहूँ तुम्हे अभिनन्दन हो ??

Saturday, December 20, 2014

साल-दर-साल



तुम
इस बार भी नहीं रुके,
नहीं ही रुके,
इस बार भी !!
या कहूँ ,
नहीं  रोक पाया,
मैं तुम्हे,
इस बार भी,
हर बार की तरह !!

पीछे
जनवरी-फ़रवरी
तुम्हारे
आने आने  में  रह गयी,
आ धमकते हो
बुलाने तक तो ,,,,

मार्च-अप्रेल ..
मैं तुम्हे रिझाने ,मनाने
और  खुद को
समझाने  में  रह गया !!

मई-जून.....
हाँ अब शायद ……
तुम्हारे प्यार की गर्माहट
महसूस होने  लगी हैं अब,
और तो और
जुलाई-अगस्त आते आते
सराबोर करने लगे हो तुम,
अतरंग फुहारों से !

पर यह क्या ??
सितम्बर-अक्टूबर ……
पीछा छुडाने लगा हैं
तुमसे,
उतरने लगे हो तुम,,
दिवार पर  से,
धूप की तरह !!
नवंबर-दिसम्बर....
कोशिश में लगा हूँ
फिर  से
रोक पाने की तुम्हे ?

मुझे पता हैं
फिर नहीं रुकोगे तुम,,
जाना, नियति हैं तुम्हारी
कौन रोक पाया हैं तुम्हें

कोशिश !! फिर भी
जारी हैं,
मेरी भी, ओरों की तरह  ,,,
साल-दर-साल
लम्हें-दर-लम्हें !!!!!
काश !!
की तुम,
रूक पाते ????

तुम
फिर आओगे
जनवरी-फ़रवरी में
पता हैं मुझे !!
पर हर बार,
तुम !!!
कुछ बड़ से जाते हो ,,
और
मुझ में,,
कुछ घट सा जाता हैं !!!??



Thursday, January 30, 2014

पुण्यतिथि....


गाँधी...
गाँधी नाम का विचार 
६२ वर्ष पहले नहीं
और  न ही किसी
गोडसे ने
न ही किसी
धर्मान्धता ने
न ही किसी
सामाजिकता ने 
न अस्त्र ने न शस्त्र  ने
किसी ने नहीं मारा था उसे  तब
वो तो एक जर्जित काया
विपन्न तन से
अलग हुआ था केवल
किन्तु
उसे मारा हमने
और  रोज मार रहे हैं
हाँ....
रोज मर रहा हैं गाँधी
अपने ही देश में
रोज अविग्यित हो रहा हैं
रोज अविनयित हो रहा हैं
अपने  ही देश में
विचारों का तिलान्जलन
ओर आदर्शो का तर्पण
नियति बन चुकी हैं इस देश की
हाँ ...नियति
राष्ट्रपिता  सा शब्द
गाली सा लगने लगा हैं
और ....
और  तुझे तो मरना ही  था
मोहन दास करमचंद गाँधी
ये कृतघ्नों का देश हैं
गोली से नहीं मरता
तो शर्म से तो
कब का मर ही जाता
कब का
रोज पानी पी पी कर
कोसती नई पीढ़ी
और  भ्रष्ट कार्यप्रणाली को
आत्मसात किये
देश के दोगले कर्णधार
रोज ही तो कर रहे हैं
श्राद्ध गाँधी का
सही ही हैं
कलयुग का  पराकाष्ठ
यही हैं शायद 
जब घर वाले
अपने बूढ़े लाचार बाप को नहीं छोड़ते
तो बापू  तुझे  क्या छोड़ेंगे
बस !!??
करो माल्यार्पण
चाय काफी मंगवालो
गान्धित्व का ग भी न जानने वाले
झाड़ रहे हैं भाषण
और  फिर
पुण्यतिथि दिवस का
बजट भी तो ठिकाने लगाना हैं

Tuesday, January 7, 2014

तुम क्या गए.......


तुम क्या गए की आस का मधुमास विस्मृत हो गया !
संवाद संक्षिप्त से रहे  औरसंताप विस्तृत हो गया !!
दग्ध अधरों के प्रश्नों का उत्तर, मैं भला देता भी क्या !
झूठ की  उस परिकल्पना में..,,सत्य वर्जित हो गया !!

दो चरण भी साथ ले कर, क्यों चल सके ना सार्थ तुम !
नीतिगत प्रतिबद्धता में, क्यों बंध  सके ना पार्थ तुम !!
क्या मैं   अर्पित  चाहता था....क्या  समर्पित हो गया !
झूठ की  उस परिकल्पना में.…सत्य वर्जित हो गया !!

तुम कहो तो पूर्व अर्जित पुण्य........ तुमको सौंप  दूं  !
चिर प्रतीक्षित कामना का......... हेतु तुमको सौंप दूं !!
क्यों कहो मधुमास का अवसर.... विसर्जित हो गया !
क्या मैं  अर्पित  चाहता था... क्या  समर्पित हो गया !!

क्या पता था परिहास भी यूं अक्षरश  शिरोधार्य  होगा !
अनमना प्रतिकार तुमको ....सहज ही स्वीकार्य होगा !!
भाव जो समभाव  में  था, क्षण भर मैं वर्गित  हो गया !
झूठ की  उस परिकल्पना में.…सत्य वर्जित हो गया !!