मध्यमा और अंगुष्ठ
में कर
रचयनी
उकेरे हैं जो
दृश्यमान तूने
उन पर
भावों का
प्रत्यर्पण
तेरे कर में नहीं
ये समर्पण नहीं
कि उढ़ेल लो
साधिकार
अक्षरश
न होगा
यदि
धानी चूनर
धानी
न हुई तो
रचना का
दारिद्य
कौन सहेगा फिर ???
यह बलात नहीं
सम्भोग हैं
उकेरे जाने के
प्रसव
और उकेरने के
संसर्ग
कि प्राराब्धता
हैं,
ये, तो.
बहुत ही खुबसूरत और कोमल भावो की अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteगहन बात लिखी है ..अच्छी प्रस्तुति
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