Sunday, January 8, 2012

ओ चितेरे !!

ओ चितेरे !!
मध्यमा और अंगुष्ठ

में कर

रचयनी

उकेरे हैं जो

दृश्यमान तूने

उन पर

भावों का

प्रत्यर्पण

तेरे कर में नहीं

ये समर्पण नहीं

कि उढ़ेल लो

साधिकार

अक्षरश

न होगा

यदि

धानी चूनर

धानी

न हुई तो 

रचना का

दारिद्य

कौन सहेगा फिर ???

यह बलात नहीं

सम्भोग हैं

उकेरे जाने के 

प्रसव

और उकेरने के

संसर्ग

कि प्राराब्धता

हैं,

ये, तो.

2 comments:

  1. बहुत ही खुबसूरत और कोमल भावो की अभिवयक्ति.....

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  2. गहन बात लिखी है ..अच्छी प्रस्तुति

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