संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !
मित्र तुम्हारी कामनाएं... फर्जी सी लगती हैं अब तो !!
बेमन कि ये प्रार्थनाएं,. .अब मुझको रास नहीं आती !
प्रिय तुम्हारा प्रेम पत्र भी, अर्जी सी लगती हैं अब तो !!
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !
मित्र तुम्हारी कामनाएं... फर्जी सी लगती हैं अब तो !!
बेमन कि ये प्रार्थनाएं,. .अब मुझको रास नहीं आती !
प्रिय तुम्हारा प्रेम पत्र भी, अर्जी सी लगती हैं अब तो !!
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !
रिश्तों में अपनत्व कहाँ अब, पहले सा अधिकार कहाँ !
तिनकों सा बिखरा बिखरा हैं, संबल और आधार कहाँ !!
दोमुहेपन कि ये बातें,... अंतस विचलित कर जाती हैं !
शत्रु ह्रदय भी विजय करे जो, अब ऐसा व्यवहार कहाँ !!
करुण दया का भाव भी, खुदगर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
तिनकों सा बिखरा बिखरा हैं, संबल और आधार कहाँ !!
दोमुहेपन कि ये बातें,... अंतस विचलित कर जाती हैं !
शत्रु ह्रदय भी विजय करे जो, अब ऐसा व्यवहार कहाँ !!
करुण दया का भाव भी, खुदगर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
राग और विद्वेष की भाषा, प्रियवाचन पर प्रथ्मांकित हैं !
ह्रदय शूल से वेधित हैं और, चित्त भी भय से शंकित हैं !!
मित्र तुम्हारे बाहुपाश में,,, अपनापन अब निस्तेज हुआ !
कृतिघ्न्ताओं से भरी शिराएँ....धवल रक्त से रंजित हैं !!
कभी जो थी सहयोगितायें, मनमर्जी सी लगती हैं अब तो!
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
ह्रदय शूल से वेधित हैं और, चित्त भी भय से शंकित हैं !!
मित्र तुम्हारे बाहुपाश में,,, अपनापन अब निस्तेज हुआ !
कृतिघ्न्ताओं से भरी शिराएँ....धवल रक्त से रंजित हैं !!
कभी जो थी सहयोगितायें, मनमर्जी सी लगती हैं अब तो!
संबंधों कि परिभाषाएं, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
अविरल संबंधों कि पूँजी को, क्या पल भर मैं ठुकरा दोगे !
अतरंग क्षणों के प्रतिवेदन, क्या तत्क्षण ही बिखरा दोगे !!
पलभर का भी विचलन तुमको प्रिय कभी स्वीकार नथा !
अब कैसा ब्रजपात की मुझको, ह्रदय से ही बिसरा दोगे !!
साधारण नयनों की भाषा, अपवर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं,, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
......हरीश भट्ट....
अतरंग क्षणों के प्रतिवेदन, क्या तत्क्षण ही बिखरा दोगे !!
पलभर का भी विचलन तुमको प्रिय कभी स्वीकार नथा !
अब कैसा ब्रजपात की मुझको, ह्रदय से ही बिसरा दोगे !!
साधारण नयनों की भाषा, अपवर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं,, कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
......हरीश भट्ट....
sundar rachna...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर में आपके ब्लॉग पे पहली बार आया हु
ReplyDeleteलेकिन आगे आता रहूँगा
मेरे ब्लॉग पे भी आप आएंगे तो हमें अच्छा लगेगा
http://vangaydinesh.blogspot.in/