मेरा घर .....
बूढा हो चुका हैं
चुने सुर्खी की दीवारे
पनियाने लगी हैं...
उदास अकडू सा...
बैठ गया हैं
नीव का गीलापन ....
खड़ा हैं मुह बाये....
चूना चूना टपकती
दीवारों के साथ ........
और ये शहर ....
सारा शहर
धड़धडाता सा
निकल गया हैं आगे को... कंक्रीट छितरा दिया हो जैसे
गुल्ली डंडे के मैदान में.....
गुलमोहर के वो पेड़
अब नहीं हैं
उनकी जगह
होर्डिंग खड़े हैं..
कॉर्पोरेट दफ्तरों के.
सारा दिन
भांय भांय करती मोटरों का शोर
और आते जाते लोगों की
रेलमपेल ..
इक्का दुक्का
पनियाले रंग के पंछी को छोड़
कोई नहीं फुदकता
घर आंगन में....
दूर पहाड़ों से आती
आवारा हवाए
आंचल बिंध के चलती हैं अब....
सिम्बल के वो उड़ते
पुछल्लेदार बीज
जाने कहाँ कहाँ तैरा करते थे ....
शाम को गंगा का
हरा हरा पानी
और उसपर तेरते उम्मीदों के दिए.....
लगता था जैसे
सतरंगी आसमान
समूचा तैर रहा हो सामने ही .....
पांच रुपये का
चने की दाल का पत्ता
और उबले मकई के दाने का स्वाद....
जाने कहाँ रह गया अब
कन्कव्वों से भरा रहने वाला आकाश
नग्न सा दीखता हैं
कोरा सा ..
दूर तक भुतहा हो जैसे...
और सड़कों पर
अनमने से चेहरे
एक दूसरे को घूरते...
लड़ने को बेताब ...
मुह फेर के कन्नी काटना
शगल हो जैसे ....
सुबह और शाम
एक हाथ में बैत
दूसरे में
परदेसी से
दुग्गले कुत्ते की जंजीर थामे
सरसराते हुए लोग
भभकती सांसों को
हलक में धकियाते हुए
दूसरे मोहल्ले के
आँख मटक्के पे खिसयाते हुए
एक दूसरे को
अपने कमर
और ब्लड प्रेशर का नाप बताते हुए .....
शहर की आवारा हवाओं
और राजनीती को कोसते हुए ...
बस...
इतनी सी मोहल्लेदारी
हाँ ....
एक मरते हुए शहर को देखने का
शायद यही अंदाज हैं
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