Monday, February 13, 2012

हे ऋतुराज ...न आना तुम ..

 



न ही विचलन और  न, कुछ सन्दर्भ होगा
तुम्हे ऋतुराज होने का कदाचित दर्प होगा
वासंती कर के छोड़ोगे.. धरा में जानता हूँ
हर इक धानी चूनर का यही उपसर्ग होगा  

न तुम अवरुद्ध हो न बद्ध हो इंकार से कोई
न रोके रोक पाया हैं किसी तकरार से कोई
हैं सब ही कुसुम पल्लव तुम पे नतमस्तक
स्फुटित कोंपल हैं, चकित व्यवहार से कोई  
 
हैं कामातुर भ्रमर भी, ओ' पुष्प पल्लव भी
हैं कैसा शोर ये नंदन  में, और कलरव भी
ये चहु ओर पसरा फागुनी सा, इत्र कैसा हैं  
यहाँ यौवन सदृश्य संसर्ग हैं, ओ शैशव भी 
 
तुम्हे क्यों भान हो किसी कि.. वेदनाओं का
तुम्हे क्यों ध्यान किसी कि व्यस्तताओं का  
तुम्हे सुख दुःख से किसी के क्या ही लेना हो
तुम्हे तो भान केवल हैं नियम बद्धताओं का  
 
न तुम साध्य हो मेरे न साधन ही बने तुम
न तुम आराध्य हो मेरे न प्रीतम ही बने तुम
मुझे कुछ भा नहीं पाया ये ऋतुराज सा होना
न तुम बाधक ही हो पाए न संगम ही बने तुम
 
जो फिर आओ मेरे रस्ते तो इतना तो करना 
बीती रुत कि वो  बातें जरा विस्तार से सुनना
जो ऐसा कर सको तो तुम्हे ऋतुराज कह लूँगा
न कर पाओ तो मत आना न मिलना मिलाना  
 
 न कर पाओ तो मत आना न मिलना मिलाना 

1 comment:

  1. मन के भावों को बहुत खूबसूरती से लिखा है ॰

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