थी हसरत-ए-परवाज़ मगर हौसला न था !
या यूं भी था की सर पे मेरे आस्मा न था !!
सारे शहर मैं सबने जिसे आम कर दिया !
महफ़िल मैं तेरी यार मेरा तज़करा न था !!
बेगाने इस शहर की, तनहाइयाँ न पूछ !
अपना कहें किसे कोई अपने सिवा न था !!
मैं भी रह गया उन्ही काँटों मैं उलझ कर !
इसमें खता क्या मेरी अगर रास्ता न था !!
चेहरे पे जम गई थी, ख्यालों की सलवटें !
ऐसे तो हमसफ़र था मगर बोलता न था !!
मेरे ही फैसलों ने मुझे बरबाद कर दिया !
यूं शक्ल पर उसकी कुछ भी खुदा न था !!
या यूं भी था की सर पे मेरे आस्मा न था !!
सारे शहर मैं सबने जिसे आम कर दिया !
महफ़िल मैं तेरी यार मेरा तज़करा न था !!
बेगाने इस शहर की, तनहाइयाँ न पूछ !
अपना कहें किसे कोई अपने सिवा न था !!
मैं भी रह गया उन्ही काँटों मैं उलझ कर !
इसमें खता क्या मेरी अगर रास्ता न था !!
चेहरे पे जम गई थी, ख्यालों की सलवटें !
ऐसे तो हमसफ़र था मगर बोलता न था !!
मेरे ही फैसलों ने मुझे बरबाद कर दिया !
यूं शक्ल पर उसकी कुछ भी खुदा न था !!
हौसलों हो तो क्या नही हो सकता है..... बेहतरीन अभिवयक्ति....
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