वट सावित्री
सुनो
ये जो सितारों
जड़े
आसमान को
झिलमिल साडी बना
ममत्व का
प्रदीप्त
दुप्पट्टा खींच
कुमकुम की
सिन्दूरी
आभा
सजाई हैं
तुमने
उन्नत ललाट पर
सदा सुहागन सा
ये
मांग टीका
अधरों तक बलखाती
दूज का चाद सी
तुम्हारी ये नथ
कर्ण फलकों को
छूते
कुंडल
देव सुता सी तुम
अवर्णनीय सी
लगती हो
मैं
ये तो नहीं जनता
की वजह
निर्जल उपवास
हैं या तुम्हारा
अडिग
विश्वास
ये भी नहीं की
एक जन्म का हैं
ये
या जन्म
जन्मान्तर का साथ
पर वो चौथ
का चाँद
आज फीका जरूर
हैं
इस पूनम के चाँद
के आगे
तुम्हारा
विश्वास बहुत बड़ा हैं
किसी भी उपवास
या नियमबद्धता
से
कहने को तो
उपवास
मैंने भी तो
रक्खा हैं
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