Saturday, January 1, 2011

सोनचिरैय्या.......

बचपन की दहलीज पर
दस्तक देता यौवन
जब भी 
तुम्हारे आँगन मैं 
तुम्हे देखता हूँ
यही बात
याद आती हैं जहन  मैं
और साथ मैं 
सुनाई देती हैं
तुम्हारे आंगन   के नीम 
के वृक्ष पर बैठी 
सोनचिरैय्या   की आवाज
आशा की डोर से बधि  
मेरी जिज्ञासा
हमेशा खिची रहती हैं
तुम्हारी बंद खिड़की की तरफ
रात मैं जब 
तुम्हारे आँगन मैं
हर तरफ
चांदनी छिटकी रहती हैं
और हवा के बहाव मैं
नीम के गिरते पत्ते
तुम्हारी बंद खिड़की पर
दस्तक देतें हैं
तुम शायद 
गहरी नींद  की 
आगोश मैं होती हों
यौवन की दस्तक
तुम्हारी नींद  को 
बेध नहीं पाती
तुम्हारे सपनों की
अलग दुनिया
होगी शायद
तुम्हारे सपनों मैं
नीम का पेड़ नहीं होगा
तुम्हारे सपने
और तुम्हारा आँगन
और बंद खिडकियों का 
ये फलसफा 
कुछ अनबूझा सा हैं
मेरे आस पास की हवा 
कुछ जज्बाती सी हैं
मैं तुम्हारे जहन की 
उदासी और  बोझिलता 
तोडना चाहता हूँ
तुम एक बार 
अपने आगन मैं 
आ तो जाओ 
बचपन की दहलीज 
लाँघ चुकी हो तुम
इन नीम के पत्तों को 
दिवार मत समझों 
सतरंगी सपनों की 
अलग दुनिया नहीं होती
चांदनी और  यौवन की दस्तक
सुनाई नहीं देती
महसूस की जाती हैं
अपने आगन के 
नीम के पत्तों पर छिटकी
चांदनी की थिरकन 
कभी तो 
बाहर  निकल कर देखो तुम
तुम
मेरे सपनो की 
सोनचिरैय्या  हों















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