Thursday, April 7, 2011

आस का दिया


दूर  तक ,
जाते देखा करता हूँ ,
उस दिए को मैं ,
गंगा की लहरों  पर ,
अपनी तमाम ,
श्रद्धेयता  के साथ !
विसर्जित किया था जिसे मैंने, 
अठखेलियाँ  करता वो ,
हिचकोले खाता,
रुकता रुकाता ,
लड़ता  रहता हैं ,
तेज हवा और ,
पावन लहरों से भी  !

उसके साथ तैर जाती हैं ,
मेरी 
कुछ  हसरते,
कुछ  सपने ,
कुछ  उम्मीदे ,
कुछ  मन्नते भी ,
अठखेलियाँ करती ,
हिचकोले खाती ,
नियति से लडती !
और वो ,
ओझल हो जाता हैं ,
कुछ दूर बाद ,
आँखों से,

मेरा मन ,
मानता नहीं
मेरी श्रद्धा ,
टूटती नहीं 
की,
गंगा की पावन ,
और उदार,
पर तीक्ष्ण लहरों ने,,
लील ही लिया होगा उसे,
मेरी तमाम ,
हसरतों , संभावनाओ, उम्मीदों, 
और मन्नतों के साथ !!!
क्या पता  पार हुआ हो वो 
या नहीं,  क्या पता ....
श्रद्धा की भी 
कोई लक्ष्मण  रेखा होती  हैं क्या  ??
क्या पता ​!!??

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना ...आस का दिया ही जीने की प्रेरणा देता है

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  2. जब श्रधा पूर्वक दिए को जलाकर गंगा जी में विसर्जित किया जाता है तो उस दिए से जुडी होती है हमारी हसरतें, उम्मीदें, श्रधा ,सपने और मन्नतें और कुछ दूर तक तैर कर जब वह दीपक खो जाता है गंगा की पावन लहरों में तो ऐसा लगता है मानो उस दिए के साथ जुडी हर भावना भी खो गई उस टिमटिमाती रौशनी के साथ और मन यह मानने को तैयार नहीं क्यूंकि गंगा को हम माँ मानते हैं जो की बहुत पावन है, उदार है और उसी ने हमारी हर भावना को लील लिया ? एक दृश्य सा खिंच दिया है आपने यहाँ लगता है बिलकुल जैसे आपकी ही आँखों से मैंने सब देख लिया खुद गंगा किनारे आ कर

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