Thursday, April 14, 2011

तुम मुझे पहले भी ... मिली हो शायद


तुम मुझे पहले भी ... मिली हो शायद !!
काचनार की कलि सी खिला करती थी !
उदास शाम गजलों में मिला करती थी !!
नंगे पांव, रेत पे, बिखराती, आंचल को !
लरजती, सिमटती, सी चला करती थी !!
तुम मेरे साथ कुछ दूर..चली हो शायद !
तुम मुझे पहले भी ....मिली हो शायद !!

तुम कुहासों को ओढती थी अनमनी सी !
तुम्हारी जुल्फ लिपटी सी कुछ घनी सी !!
सुरमई सी नज़रों के.. कोर तक काजल !
मंदिर की सादा मूरत सी संवरी बनी सी !!
सौधीं मिट्टी के सांचे में... ढली हो शायद !
तुम मुझे पहले भी ..... मिली हो शायद !!

तुम भी क्या रंग चुराती थी शोख फूलों से !
तुम भी झुंझलाती थी .. हवा के झोंकों से !!
दूर परिंदों को...... हसरत से देखती होंगी !
तुम भी लहराई तो होगी तीज के झूलों से !!
मेरे शहर की बिसरी सी ..गली हो शायद !
तुम मुझे पहले भी ..... मिली हो शायद !!

चलो माना की ये मेरा वहम ही हो शायद !
फिर क्यों ये चाँद तुमको तकता रहता हैं !!
सजदे करती हैं क्यों ये ....शाम-ओ-सहर !
तेरा वजूद मेरी सांसों में..अटका रहता हैं !!
कुछ यादें मेरे अश्कों से, सिली हों शायद !
तुम मुझे पहले भी ...... मिली हो शायद !!

5 comments:

  1. बहुत रूमानी सी ..भावों से भरी रचना ...अच्छी लगी

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  2. बेहतरीन पंक्तियां. शानदार भाव.
    मेरा ब्लॉग भी देखें
    भले को भला कहना भी पाप

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  3. मुझे इस कविता ने मोह लिया हरीश जी...बस कई बार.........पढना.......बहुत अच्छा लगता है...

    ''''चलो माना की मेरा वहम हो शायद ...

    फिर क्यों ये चाँद तुमको तकता रहता है...'''

    और भी ऐसी ही भोली कई अभिव्यक्तियाँ....बशीर बद्र साब का कहा ...दुहराने का मन हो रहा है...इन भावों पर...........

    ''नहीं बे-हिजाब वो चाँद सा...की नज़र का कोई असर नहीं..

    उसे इतनी गर्मी-ऐ -शौक से बड़ी देर तक न तका करो.....''

    मन खुश होता है...ये पढ़ कर......

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  4. खुबसूरत खुबसूरत खुबसूरत इससे ज्यादा क्या कहूँ इस रचना को बहुत हीं प्यारी सी रचना है बिलकुल निश्छल पावन नदी की तरह भावों का बहाव भी है
    तुम मुझे पहले भी मिली हो शायद ..........
    एक गीत याद आ गया जो की बहुत पसंद है मुझे "तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई, यूँही नहीं दिल लुभाता कोई "
    चलो माना की ये मेरा वहम ही हो शायद
    फिर क्यूँ ये चाँद तुमको तकता रहता है
    सजदे करती है क्यूँ ये शाम-ओ-सहर
    तेरा वजूद मेरी साँसों में अटका रहता है
    जाने क्यूँ फिर भी कि मिली हो शायद
    तुम मुझे पहले भी मिली हो शायद
    आखरी इन छः पंक्तियों के क्या कहने मुग्ध हो गई मैं | शायद लिखा है फिर भी पढ़ कर शायद नहीं विश्वास झलकता है कि "तुम मुझे पहले मिली हीं हो"

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