Tuesday, May 29, 2018

मुझे रब्त था उससे

शुभ संध्या दोस्तों एक नज़्म

मुझे रब्त था उससे ..उसे भी

वो बस के इन्तजार में
देर तक नुक्कड़ पे
रूका करती थी
कुछ एक तो जाने किस
कश्मकश में
अक्सर ही छुटी थी
उसके बराबर की सीट
भले न मिली कभी भी
पर मेरा उस बस स्टॉप से
रिश्ता हैं
अभी भी

मुझे रब्त था उससे
शायद
उसे भी !!

यूं तो हर दीद पे
गुमसुम सी
दिखा करती थी
गली के मोड़ से कुछ धीरे
चला करती थी
मेरे छज्जे  की ओर
जाने क्यों यूं ही
तका करती थी
मगर आंखों की कसक
जाहिर न हो पाई
कभी भी

मुझे रब्त था उससे
शायद
उसे भी !!

दरवाजे पे दूधवाले से
देर तक बतियाती थी
और बहाने से
नजरें मेरी खिड़की
पे चली जाती थी
देर शाम छत पे
कपड़े उठाने आती थी
कभी शक्कर तो
कभी नमक के बहाने
मेरे घर में अक्सर ही
आती जाती थी
उसकी हँसी की खनक
मुझे याद हैं
अभी भी

मुझे रब्त था उससे
शायद
उसे भी !!

वो बात बात पे
बेवजह ही
ऐंठा करती थी
वो कॉलेज केंटीन की
कोने की बेंच पे
अकेले ही बैठा करती थी
इम्तेहान के बहाने
मेरे नोट्स मांगा करती थी
और मेरी नोटबुक के
पिछले पन्नो पर
अपना नाम
ढूंढा करती थी
जो लिखा तो था
पर उसे न मिल पाया
कभी भी

मुझे रब्त था उससे
शायद
उसे भी !!

उड़ते बालों को वो
जूड़े में कसा करती थी
भरी महफ़िल में भी
वो चुपके से
हँसा करती थी
किसी माशूक के
शहर की तरह
बस वो मुझमें ही
बसा करती थी
याद हैं उस दिन
दो कदम वो मेरे
साथ चली भी
रुकी भी

मुझे रब्त  था उससे
शायद
उसे भी !!

रास्ते भी अलग हैं
अब मंजिल से
उसको देखा नही
कई दिन से
वक्त फिर रुक गया
किसी लम्हें
जितना भी सोचता हूँ
बस कम हैं
वो अपनी खिड़की पर
खड़ी होगी शायद
हवाएं उसकी खुशबू लेकर
आती जाती रहती हैं
अभी भी

मुझे रब्त है  उससे
उसे भी!!

हरीश भट्ट

No comments:

Post a Comment