एक कविता बे सर पैर ही ☺️☺️
वो लड़की
सीधी साधी सी
कुछ सकुचाई
कुछ राजी सी
झक्क, दूध सी
धुली धुली
पर पंखुड़ियों सी
खुली खुली
बस यूं ही
तो लगती हैं मुझे
कुछ बेगानी
कुछ मिली मिली
वो इंद्र धनुष के
रंगों सी
परिमल सी
उष्ण तरंगों सी
पहली बारिश
की रिमझिम सी
मन की निश्छल
उमंगों सी
कोई राग सी हैं
इक लोरी सी
कुछ कच्ची सी
कुछ कोरी सी
कभी खुलेआम सी
लगती हैं
कभी चुपके सी
कभी चोरी सी
सुनो, ये माना
गैर हो तुम
बिछुड़ा सा कोई
शहर हो तुम
में अँधियालों का
गाहक हूँ
कोई खिली हुई
दुपहर हो तुम
पर मन का मीत
तुम्हें माना
जीवन संगीत हो
तुम जानां
हृदय से मत
बिसराना तुम
यूं छोड़ कभी भी
मत जाना
तुम भले मुझे
अधिकार न दो
पल भर का भी
तुम प्यार न दो
तुम द्वार से ही
लौटा दो भले
मुझको स्नेहिल
व्यवहार न दो
पर इतना
कहना हैं तुमसे
तुम भली भली
सी लगती हो
एक लड़की
सीधी साधी सी
मुझे खिली खिली
सी लगती हो
मुझे
मिली मिली
सी लगती हो
😊😊
हरीश भट्ट
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