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काफिया "आ" रदीफ़ "रहा था"
वो जख्म दिल के, दिखा रहा था !
ग़ज़ल कोई ....गुन गुना रहा था !!
छुपाता कैसे ....मैं अश्क अपने !
वो सामने से .....ही आ रहा था !!
वो अब भी मुझमें, कहीं हैं बांकी !
न जाने क्या, सिलसिला रहा था !!
जला रहा था वो, शम्म-ए-उल्फत !
में शाम अपनी......बुझा रहा था !!
थी इक खलिश सी, लबों पे मेरी !
वो पलकें अपनी ..झुका रहा था !!
चलो की तुम ......बेवफा नहीं थे !
मेरा ही कुछ ....मसलहा रहा था !!
जहाँ पे हद ....तुमने खींच दी थी !
मैं भी वहीँ पर ......रुका रहा था !!
...हरीश भट्ट ...
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