Tuesday, May 29, 2018

सौंचिरैया

"सोनचिरैय्या सा ख्वाब"

लौटती उम्र की
दहलीज पर
दस्तक देता
चिर यौवना सा ख्वाब
जब भी
तुम्हारे आँगन में 
तुम्हे देखता हूँ
यही बात
याद आती हैं
जहन में

और साथ में
सुनाई देती हैं
तुम्हारे आंगन   के
गुलमोहर पर बैठी
सोनचिरैय्या  
की आवाज

आशा की डोर से बंधीं  
मेरी जिज्ञासा
हमेशा खिची रहती हैं
तुम्हारी बंद
खिड़की की तरफ
बेसबब ही

रात मैं जब
तुम्हारे आँगन मैं
हर तरफ
चांदनी छिटकी रहती हैं
और हवा के बहाव में
गुलमोहर के गिरते पत्ते
तुम्हारी बंद खिड़की पर
दस्तक देतें हैं
तुम शायद
गहरी नींद  की
आगोश में होती हों
मेरे ख्वाबों  की दस्तक
तुम्हारी नींद  को
बेध नहीं पाती

तुम्हारे सपनों की
अलग दुनिया
होगी शायद
बेतरतीब
अव्यक्त सी
सिमटी शर्मीली सी
तुम्हारे सपनों में
आने वाला गुलमोहर
कुछ और ही
चटक लिए होगा शायद

तुम्हारे सपने
तुम्हारा आँगन
और
बंद खिडकियों का
ये फलसफा
कुछ अनबूझा सा हैं
मेरे आस पास की हवा
कुछ जज्बाती सी हैं
मैं तुम्हारे जहन की
उदास बोझिलता
तोड देना चाहता हूँ
तुम एक बार
अपने आगन में
निकल कर
आ तो जाओ

पारंपरिक उम्र  की
दहलीज
लाँघ चुकी हो तुम
गुलमोहर  के पत्तों को
दिवार मत समझों
सतरंगी सपनों की
अलग दुनिया
नहीं होती
चांदनी और 
स्वप्निल सी दस्तक
सुनाई नहीं देती
महसूस की जाती हैं

अपने आंगन के
गुलमोहर के पेड़ के
पत्तों पर छिटकी
चांदनी की थिरकन
कभी तो
बाहर  निकल कर
देखो तुम
तुम
अब भी
मेरे सपनों की
सोनचिरैय्या  हों

हरीश भट्ट

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