Tuesday, May 29, 2018

कविता

कुछ पंक्तियाँ अनायास ही

मैं
अपलक
देखता हूँ
जब भी तुम्हें
मैं
तुम में उतर जाता हूँ
और आश्चर्य
तुम मुझमें

वही वो क्षण होता हैं
जब
रचनात्मक भाव
रोप देते  हो तुम
मुझमें

अनजाने ही
तुम्हारी
मुस्कुरहाट
सींच देती हैं
सस्नेह ही
मन रुपी मृदा ..
नम हो जाती हैं

शब्दों का  अंकुरण
स्फुटित होता हैं
ह्रदय में
आकार लेने लगता हैं
अव्यक्त सा अतिरेक 

तुम्हारी सांसों से
प्राणवायू ले
कांतिमय चक्षुओं की
सौर् उर्जा ले
भावों के आलम्बन से
ओत प्रोत
तुम्हारी
खनकती आवाज से पोषण ले
उग आती हैं
गीतों की अमर बेल

तुम्हारा प्यार
खिल उठता हैं
ज़िस पर
अनायास ही
प्रफुल्लित पलाश की तरह

और  वो  कहते हैं
इसे
मैंने रचा हैं
अब तुम्ही बताओ
इसमें
मेरा क्या
कसूर भला !!!

हरीश भट्ट

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