Tuesday, May 29, 2018

नजरिये

सोचता हूँ
कुछ नजरिये
तह कर के रख दूं
अंदर वाले
संदूक में
चलन से
बाहर हो चुके
कपड़ों के साथ
दृष्टिकोण के कोंण
मिटा कर
पाट दूं सार्वजनिक
गोलाईयों से

कुछ आग्रहों  को
जिन्हें तुम
पूर्वाग्रह कहते हो
तिलांजलि दे दूं
छोड़ दूं
खुद को
किस्मत के हवाले
रफ्ता रफ्ता
आदत पड़ जाने तक
भीड़ का चेहरा होना ही
भीड़ का हिस्सा होना हैं
मान कर

संकल्प ले
तर्पण कर दूं
आज ही
तथाकथित अपने प्रति
तुम्हारे दुराग्रहों का
सीख लूं चलन
समायोजनाओं में
जीने का
तलाश लूं
बीच के रास्ते
कुछ पगडंडियां
कुछ रिश्ते कुछ वास्ते

संवेदनाएं टांक दूं
व्यस्तताओं की खूंटी पर
वेदनाएं ओढ़ लूं
मेटीरियलिस्टिक सी
प्रेक्टिकल सी अप्प्रोच
मुखोटों की तरह
सहज न हो भले
तो क्या
आकर्षण तो होगा न

ढूंढ लू
तुम्हारे वाला शब्दकोश
जिसमें
भाव समभाव
वेदना संवेदना
आवेश भावावेश
प्रेम स्नेह हृदय
जैसे शब्द न हो
और जो हों
उनके कई कई
अर्थ निकल जाते हों
सहूलियत के हिसाब से

सोचता हूँ
अपेक्षाएं जमा कर दूं
पीछे के स्टोररूम में
उपेक्षाओं की
और कांटेदार
जिल्त चड़ा लूं
चेहरे पर
भरपूर
नाटकीयता के लिए
मार्केटिंग स्किल्स
जरूरत सी हो गई हैं

मित्र जब तुम
ऐसा सोचते हो
तो अगर मैं भी तत्सम ही
सोचता हूँ
तो
क्या गलत सोचता हूँ ??

हरीश भट्ट

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