Tuesday, May 29, 2018

बलात्कार शर्मिंदा हूँ खुद से

बलात्कार ... शर्मिंदा हूँ खुद से

किसी मासूम से चेहरे को.. मसलने वालों ।
तुम्हारे घर में भी इक चाँद सी, बेटी होगी ।।
आज इस खाक-ओ-लहू में जो आलूदा हैं ।
लाड़ से बाप के सीने पे भी... लेटी होगी ।।

वो भी घुटनों कभी पैरों से...चली ही होगी ।
उसने तुतला के कभी माँ तो, कहा ही होगा ।।
जब भी चूमा  कभी माथे पे, गालों पे कभी ।
मेरी दुनिया हैं मेरी जाँ तो... कहा ही होगा ।।

वो जो परियों सी शाहज़ादी, हुआ करती थी ।
खिलखिलाने की जो आदी, हुआ करती थी ।।
आज खामोश हैं उसकी जुबाँ... बेहोश हैं वो ।
कल तलक बरकतें थी आज अफसोस हैं वो ।।

किसी बेटी को गलत अंदाज जो छू लोगे कभी ।
खुद की बेटी को किस अंदाज से देखोगे भला ।।
कभी रातों के  किसी अँधियाले से, सन्नाटों में ।
जुर्म के ख़ौफ़ को अक्सर...कैसे रोकोगे भला ।।

देखने वालों जरा तुम भी... संभल का देखो ।
अपने चश्मे को जरा तुम भी बदल कर देखो ।।
ये न हिन्दू न मुसलमान ,  का उघड़ा हैं बदन ।
ये जो उजड़ा हैं किसी मां का हैं उजड़ा ये चमन ।।

फिर किसी बेटी के दामन को, कुचलने वालों  ।
कहीं ऐसा  न हो ये चेहरा, दिखा भी न सको ।।
किसी मासूम से चेहरे को....... मसलने वालों ।
अपनी बेटी से कभी आंख...मिला भी न सको ।

किसी मासूम से चेहरे को ...
तुम्हारे घर में भी तो इक चाँद सी ....

हरीश भट्ट

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