Thursday, May 19, 2011

धूप ....हो न तुम






 धूप की गर्माहट
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सुनो
हाँ ...तुमसे ही कह रहा हूँ ...
तुम यूं सुबह-सुबह
किरन सी
मत आया करो
द्वार छिद्रों से
दनदनाती हुई
अतिक्रमण सा लगता हैं !

दिन तक आते आते
पसर जाती हो
खिडकियों के पल्लों से
सीधे मेरी आरामकुर्सी तक
छीनती हुई
मेरी निजता को
प्रत्यर्पण सा लगता हैं !

सामने के गुलमोहर
पर इतराती चिढाती
मुझे
घूरा करती हो न तुम..
चिलचिलाती हुई सी
आक्रमण सा लगता हैं !

भावों का वाष्पीकरण
तिलमिलाहट भर देती हैं
गर्माहट इतनी मत बढाओ
तलवों में
पसीना सूख नहीं पाता
संक्रमण सा लगता हैं !

लो.. अब जब
तुम्हारी तपिश का
आदी होने लगा हूँ
तो खीचने लगी हो तुम
अपने पाँव
मेरे आँगन से
क्षरण सा लगता हैं !

सुनो
रुक जाओ
शाम के धुधलके
अस्पष्ट कर देते हैं मुझे
हाथ को हाथ
सुझाई नहीं देगा
अकर्मण्य सा लगता हैं !

लौटा लो खुद को
रात तुमसे
अजनबी कर देती हैं मुझे
सुबह तक
अपरिचित हो जाओगी
तुम फिर मुझसे
ग्रहण सा लगता हैं !

तुमसे
दोबारा मुलाकात तक
कैसे जी पाउँगा
इस,,
क्रमशः ,,
में !!!!

8 comments:

  1. भावप्रवण कविता.......लाजवाब अभिव्यक्ति.

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  2. सुन्दर भाव प्रवण कविता

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  3. छानकर आती धूप , इधर से उधर बलखाती धूप और ......... इस नायिका के साथ दिन की मधुरता , बहुत सुन्दर

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  4. बहुत सुन्दर भावमयी रचना..

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  5. शब्द नहीं मेरे पास इस रचना की तारीफ में हर शब्द छोटे से लगते हैं | बहुत ही अच्छी लगी रचना दिल को छू गई बिलकुल ऐसा लगा मानो मेरे मन की लिख दी हो आपने सच में धुप की तरह हीं कई बार कुछ लोग मिलते हैं कई परिस्थितियां आती हैं जो असहज सी करती हैं और फिर जब हमे उनकी आदत पड़ जाती है हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती हैं वो परिस्थितियां या वे लोग तब धीरे धीरे उनका हमसे दूर हो जाना बहुत खलता है

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  6. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  7. बहुत सुंदर है हरीश सर ....आदत .....सहस्तित्व ...स्वाभिमान ....वियोग .....सभी भावनाओ को समेटे हुए ..ये रचना उत्तम है .
    आत्मा को छु लेती है ..
    बहुत बधाई ....इस प्यारी रचना का सृजन करने के लिए आपको

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