चलो की आपकी ,आँखों का भी गिला निकले
कोई तो शख्श हो आखिर हिला मिला निकले
वो मुस्कुराये तो हैं, आज अपनी ज़ानिब से
कोई तो शख्श हो आखिर हिला मिला निकले
वो मुस्कुराये तो हैं, आज अपनी ज़ानिब से
किसी बहाने तो, बातों का सिलसिला निकले
मैं तेज तेज से क़दमों को.. रक्ख के लौटा हूँ
तुम भी तो रुक के चलो कुछ तो फासला निकले
अकेला हूँ तो बहुत फिर भी.... छुपा लेता हूँ
तेरी तस्वीर से कोई ना आशना निकले
न बैठ पहलू मैं उसके.. न बात कर जालिम
जबान खुश्क हैं उसकी, न दिलजला निकले
मैं चला भी जाता चलो अकेला शौकबाज़ी मैं
तेरे मकान से हो कर तो रास्ता निकले
मैं जिंदगी की किताबों को.. खोलता ही नहीं
ना जाने कौन सा पन्ना,, मुड़ा हुआ निकले
मैं तेज तेज से क़दमों को.. रक्ख के लौटा हूँ
तुम भी तो रुक के चलो कुछ तो फासला निकले
अकेला हूँ तो बहुत फिर भी.... छुपा लेता हूँ
तेरी तस्वीर से कोई ना आशना निकले
न बैठ पहलू मैं उसके.. न बात कर जालिम
जबान खुश्क हैं उसकी, न दिलजला निकले
मैं चला भी जाता चलो अकेला शौकबाज़ी मैं
तेरे मकान से हो कर तो रास्ता निकले
मैं जिंदगी की किताबों को.. खोलता ही नहीं
ना जाने कौन सा पन्ना,, मुड़ा हुआ निकले
मैं जिंदगी की किताबों को.. खोलता ही नहीं
ReplyDeleteना जाने कौन सा पन्ना,, मुड़ा हुआ निकले
बहुत खूब ...सुन्दर गज़ल
bahut achchi lagi.
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