इस शहर मैं भी रकीबों का ठिकाना निकला
मेरी बरबादी का, अच्छा ये बहाना निकला
मेरी कमनसीबी की, पूछों न तुम दुश्वारियां
तुम न थी तो ये, मौसम भी सुहाना निकला
किस यकीं से कहता मैं हाल-ए-दिल उसको
जिसकी बातों में नया रोज फ़साना निकला
मैं तो दुनिया से अलग था ही पता था मुझको
नाज-ओ-अंदाज से तू भी तो शाहाना निकला
कैसे करता मैं गुजारिश, की मुझे याद न कर
तुझे भुलाने मैं, मुझे भी तो जमाना निकला
फिर न कहना की ये अंदाज-ए-गुफ्तगू क्या हैं
जबभी निकला हैं तेरे होठों से दीवाना निकला
तेरी जफ़ाओं के किस्से सुनाये सारी रात जिसे
वो भी आशिक तेरा कमबख्त पुराना निकला
बहुत खूब ..बढ़िया गज़ल
ReplyDeletewaah.... mann khush ho gaya , bahut badhiyaa gazal
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गज़ल| धन्यवाद|
ReplyDeletesunder ghazal...
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 24 - 05 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच
umda gazal prabhavshali hai .shukriya ji .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गज़ल
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