Sunday, May 22, 2011

मैं तो दुनिया से अलग था



इस शहर मैं भी रकीबों का ठिकाना निकला
मेरी बरबादी का, अच्छा ये बहाना निकला

मेरी कमनसीबी  की, पूछों न तुम दुश्वारियां
तुम न  थी तो ये, मौसम भी सुहाना निकला

किस यकीं से कहता मैं हाल-ए-दिल उसको
जिसकी बातों में नया रोज  फ़साना निकला

मैं तो दुनिया से अलग था ही पता था मुझको
नाज-ओ-अंदाज से तू भी तो शाहाना निकला

कैसे करता मैं गुजारिश, की मुझे याद न कर
तुझे भुलाने मैं, मुझे  भी तो जमाना निकला

फिर न कहना की ये अंदाज-ए-गुफ्तगू क्या हैं
जबभी निकला हैं तेरे होठों से दीवाना निकला

तेरी जफ़ाओं के किस्से सुनाये सारी रात जिसे
वो भी आशिक तेरा कमबख्त पुराना निकला






7 comments:

  1. waah.... mann khush ho gaya , bahut badhiyaa gazal

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर गज़ल| धन्यवाद|

    ReplyDelete
  3. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 24 - 05 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच

    ReplyDelete
  4. umda gazal prabhavshali hai .shukriya ji .

    ReplyDelete
  5. बहुत सुन्दर गज़ल

    ReplyDelete