किस कदर थी भीड़ लेकिन काफिला मेरा न था
वो गज़ल मेरी तो थी पर ,,काफिया मेरा न था
आपने भी सच कहूं तो,,आज ही ये तामील की
वक्त-ए-रुखसत साथ था जो बारहा मेरा न था
बज्म मैं वो कुछ कहें और ओर कुछ तन्हाई में
एक मुह और दो जबां का, फलसफा मेरा न था
तुम ही कहो कैसे में रहता चैन से उस बस्ती में
तुम पढ़ गए थे कब्र पर जो, फातिहा मेरा न था
मैं तो इन्सां भी न था, पर तुम खुदा बनते गए
चाहत भले ही हो मगर ,,ये मशवरा मेरा न था
तुमने भी बस पढ़ के, मुजरिम मुझे ठहरा दिया
सच कहूं उस तफसील पर वो, तब्सरा मेरा न था
कुछ अजब से रंग देखे जिस्त के अब क्या कहें
हाँ..जमीं तक तो थी मेरी,पर आसमां मेरा न था
bhut hi khubsurat gazal...
ReplyDeleteक्या बात क्या बात क्या बात .........बेहतरीन
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