Sunday, June 19, 2011

जब ओढ़ लिया इंकार स्वयं में


तुम तो पल में, संक्षिप्त हो गए !
फिर मैं कैसे, विस्तृत हो जाता !!
जब ओढ़ लिया, इंकार स्वयं में !
फिर में कैसे, स्वीकृत हो जाता !!

मैं भोर की, अरुणाई सा हरपल !
भाल तिलक को, तत्पर था बस !!
छू उड़ा सकूं,, कुंतल ललाट पर !
पवन सदृश्य ही, प्रेरित था बस !!
तुम परधि,, लाँघ ना पाई स्वयं !
फिर मैं कैसे, समवृत हो जाता !!
जब ओढ़ लिया, इंकार स्वयं में !
फिर में कैसे, स्वीकृत हो जाता !!

कुछ भान मुझे,, अस्पष्ट सा हैं !
तुम आत्मसात सी,, थी मुझसे !!
हर कथ्य मेरा,, अंगीकृत ही था !
तुम पारिजात सी... थी मुझमे !!
पर प्यास ह्रदय की, दीर्घ न थी !
फिर मैं कैसे, अमृत हो जाता !!
जब ओढ़ लिया, इंकार स्वयं में !
फिर में कैसे, स्वीकृत हो जाता !!

मैं स्नेह सृजन का,, याचक था !
और प्रणय विरह का, संवाहक !!
मैं दिया सरीखा, मन मंदिर का !
और वेद वाक्य का,, अनुवाहक !!
तुम मौन निवेदन.... क्रमशः में !
फिर मैं कैसे,, झंकृत हो जाता !!
जब ओढ़ लिया, इंकार स्वयं में !
फिर में कैसे, स्वीकृत हो जाता !!

6 comments:

  1. बहुत खूबसूरत और भाव मयी रचना ..

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  2. प्रेम के याचक की दिल से निकली गुहार ... लाजवाब रचना है ..

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  3. bhaavo ka sunder pravaah bana raha ant tak. sunder abhivyakti.

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  4. बहुत खूब ....प्रेम की मौन स्वीकृति
    --

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  5. प्रेममयी रचना!!!!!

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