जिंदगी कुछ यूं, गुजरनी चाहिये !
कुछ शरारत सी भी होनी चाहिये !!
झूठ की बुनियाद पर, पैमां हैं जो !
वो ईमारत भी तो, ढहनी चाहिये !!
दोस्तों की, आज़माईश के लिए !
तल्ख़ियां लहज़े में, रहनी चाहिये!!
टूट कर बरसे, ये सावन की घटा !
इक ग़ज़ल ऐसी भी, कहनी चाहिये !!
तुममे मेरा अब, बचा भी कुछ नहीं !
रुख़सती, कह दो की करनी चाहिये !!
तुम जरा मुस्का के, मुड़ के देख लो !
इतनी ख़ुशफ़हमी तो रहनी चाहिये!!
लौट आयें वो परिंदे, रुख़-ब-रुख़ !
कुछ हवा ऐसी भी, बहनी चाहिये !!
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