Saturday, April 21, 2012

बिंदी

क्षितिज की
लालिमा
कोरी सी
लगेगी,
सपाट
हो जायेंगे,
देवस्थलों के
उतुंग
शिखर!
बाढ़ सी
छितरा देंगे,
गंगा के
ये उर्वरा मैंदान,
अगर तुमने
माथे से
ये बिंदी
बदल ली
तो... !!!!!
में हर रिश्ते को  शिद्दत से सर-ए-तस्लीम  करता हूँ
वो मुझ पर फर्ज था उसका बेइरादतन  मुस्कुरा देना

मंदिर कि सीडियां चड़ते हुए


मंदिर कि सीडियां चड़ते  हुए
साथ साथ 
श्वास दर श्वास
देखता हूँ उसे

दोनों हाथों में
पूजा का थाल लिए
सर पर
उम्मीदों का पल्लू रक्खे
कजराई आँखों में
सम्पूर्ण विश्व का
वात्सल्य समेटे
कुसुमित   से होठों पर
प्रार्थना  के स्वर   लिए
कदम दर कदम
निर्भीक और प्रफुल्लित

लगता हैं कई कई बार
अलग अलग समयांतर पर
कई कई युगों  में
चड़ी होंगी से सीडियां हमने
यूंही साथ साथ
नयनों से करबद्धता  का
भाव प्रेषित करते हुए

सोचता हूँ
कुछ भी तो नहीं बदला
साल दर साल
आज भी वही प्रतिबद्धता
वही विश्वास
जब पहली बार
इन सीड़ियों पे
कदम रक्खा था

मैं जानता हूँ
हर बार
वह "माँ "से
कुछ नहीं मांगती
अपने लिए
प्रत्यक्षतः तो बिलकुल नहीं
उसकी थाली से अर्पित होते पुष्प
दीपक कि ज्योति
रससिक्त  नारियल
स्वयं ही प्रेषित कर देते है मंतव्य

फिर भी हर बार कि तरह
पूछ लेता हूँ में
क्या माँगा आज "माँ" से

और हर बार कि तरह
मुस्कुराते हुए
कहती हैं वो

"वही...
जो तुमने"

हैरान हूँ
उपलब्ध  संभाव्य विकल्पों मैं से
इतना सटीक चुनाव
कैसे कर लेती हैं वो
माँ से मांगते समय भी

Sunday, April 15, 2012

सुना हैं रंग तुझे



एक नज्म 'फ़राज़" साहब की जमीन पर ....

सुना हैं रंग तुझे, खुद-ब-खुद सजाते हैं !
और बेसाख्ता ही, तुझपे बिखर जाते हैं !!

सुना हैं शाम, गुजरती हैं तेरी जुल्फों से !
सितारे डूब कर,  जाने से मुकर जाते हैं !!

सुना हैं फागुनी गीतों पे, तुम मचलते हो !
पाँव रुकते ही नहीं, धुन पे बिफर जाते हैं !!

सुना हैं की गीले रंगों से, तुम लरजते हो !
हम भी सूखे ही रहे, छोडो की घर जाते हैं !!

सुना हैं गजलें भी तुम पर, आह भरतीं हैं !
तुझ तक आ कर नगमें भी, ठहर जाते हैं !!

सुना हैं गालों पे उसके गुलाल रुकता नहीं !
नज़ारे ठहर के चुपचाप .....गुजर जाते हैं !!

सुना हैं रंग तो उनके भी, धुल गए कब के !
वो जो कहते थे मोहब्बत में निखर जाते हैं !!

सुना हैं छज्जों पे अब वो निकलते ही नहीं !
पिछली होली की किसी बात से डर जाते हैं !!
...हरीश भट्ट......