Sunday, December 18, 2011

वो बिंदिया



उफ्फ्फ़ ....
वो  ऊँचे  ललाट पर
कमान सी भोंहों के
मर्म में,
सुर्ख तप्त गोलाईयां  लिए
असीमित परिधि का
विस्तार   लिए,   
मुझे बैचेन सी 
कर देती हैं
प्रलोभन सी लगती
निमंत्रित सी करती हुई
पास आने को
आमंत्रित  सी करती
अधरों को छू  लेने को.........
तेरे माथे की
वो बिंदिया !

नज़रों को मिलाते हुए
एक टक देखती हैं मुझे
तुम्हारे
सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर
एक छत्र राज लिए
कुसुमित चेहरे को
अप्रतिम सौन्दर्य से
भर देती हैं
तेरे माथे की
वो बिंदिया !

जब तुम्हारा चेहरा
मेरी हथेलियों मैं होता हैं
उस कसमसाहट में
लरजते  होठों में
रक्तिम कपोलों में
सांसों के उतार चड़ाव में
पलकों के
उनीदेपन में
सुर्ख होते कर्ण फलकों में
ताम्बई होती त्वचा में
दीर्घ होते श्वाशकण
जब
चेहरे को छूने  लगते हैं
शरीर का सम्पूर्ण रक्त
जब चेहरे की तरफ दौड़ता
सा लगता हैं
तब भी
मुह चिड़ाती सी रहती हैं
तेरे माथे की
वो बिंदिया !

..वो पूनम का चाँद,
.....रात को खाने की थाली,
........घर का आइना,
...........गेंदे के फूल,
.............चाट वाले की टिक्की,
.................ऑफिस का पेपरवेट,
.........................ट्रेफिक सिंग्नल की लाइट,
सब तेरी
बिंदिया की
याद दिलाते  हैं मुझे !

उफ्फ्फ!!!!!!
आज फिर
मेरे काँधे से चिपक कर
आ गई हैं

तेरे माथे की
वो बिंदिया .........!!